जेएनयू प्रशासन (JNU Administration) द्वारा महान इतिहासकार रोमिला थापर (The great historian Romila Thapar) से सीवी मांगने के प्रकरण ने सोशल मीडिया में काफी विवाद पैदा कर दिया है। कई स्वघोषित राष्ट्रवादी ओछेपन की सारी सीमाएं पार कर उनके उम्र और पद के 'लालच' का मजाक बनाने में भूल जाते हैं कि सूरज पर थूकने से अपने ही मुंह पर गिरता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक ग्रुप (A Group of University of Allahabad) में एक विदुषी ने लिखा, "उनका मजाक CV मांगने वाले नहीं बना रहे ये खुद बना रही हैं। 85 की उम्र वानप्रस्थ की है ना कि स्वघोषित ज्ञानियों में बैठकर सुरापान की।"
संवेदना की अमानवीय क्रूरता हमारी वर्णाश्रम संस्कृति में ही है। वर्ण व्यवस्था की क्रूरता पर काफी चर्चा होती है, आश्रम व्यवस्था की क्रूरता (Ashram system cruelty) पर कम चर्चा होती है। गृहस्थ आश्रम तक धर्म-अर्थ-काम का जीवन जीने के बाद बुजुर्गी में सन्यास -- सुख-सुविधा से वंचित उपयोग। बुढ़ापे में जब देख-रेख की जरूरत होती है, तब वानप्रस्थ। जब श्रम मे अक्षम अनुपयोगी हो जाएं तब लात मार कर जंगल में भगा दो। वृद्धाश्रम वानप्रस्थ के आधुनिक संस्करण हैं।
मुझे तो रोमिला थापर से रश्क होता है कि इस उम्र में सार्थकता से इतनी सक्रिय हैं।
ये ओछे छद्म देशभक्त इतना भी नहीं जानते कि प्रोफेसर एमिरिटस नौकरी नहीं है, जीवन की उपलब्धियों के लिए आजीवन सम्मान, वैसे रोमिला जैसे लोग किसी औपचारिक सम्मान के मोहताज नहीं हैं। वे समाज की ऐसी बौद्धिक नगीना हैं जिन पर देश व समाज को गर्व होना चाहिए। उन्हें क्लूजर अवार्ड इसलिए दिया गया है कि उन्होंने
ईश मिश्र