गधों के सींग नहीं होते। हमारे लोगों के अपने ही नरसंहार के लिए गठित पैदल सेना के अंधे आत्मघाती सिपाही बनते देखकर कभी मैंने लिखा था। वह लेख “हस्तक्षेप” पर भी लगा था, जो अभी मिल नहीं रहा वरना शेयर जरूर करता।
घोड़ों की आंख पर पट्टी (Horse blindfold) बांधकर कहीं भी किसी भी दिशा में हनक दो। लेकिन घोड़े मारे नहीं जाते, जब तक काम के होते हैं तबतक। घोड़ों का इस्तेमाल नील नदी की सभ्यता को गुलाम बनाने के लिए हमलावरों ने किया था।
भारत में भी मूलनिवासियों के नरसंहार के लिए अश्वमेध यज्ञ होते थे। जिनकी महिमामण्डित कथाएं याब हमारी आस्था है।
घोड़ों के भी सींग नहीं होते।
खच्चरों के भी सींग नहीं होते।
बाघ शेर के सींग नहीं होते।
नरभक्षियों के सींग नहीं होते।
फिर भी गधे बदनाम हैं।
जहरीले सांपों के भी सींग नहीं होते।
गाय बैल भैंस बकरी और हिरन के सींग होते हैं।
जो व्यापक पैमाने पर मारे जाते हैं।
हिरन फिर भी जंगली हैं।
गाय, बैल, भैंस, बकरी घरेलू हैं और कृषि समाज के अभिन्न अंग हैं। फिर भी मुर्गियों और सुअरों की तरह मारे जाते हैं।
हिसाब से देखें तो मारे जाने वाले जानवरों में सींग वाले जानवर ज्यादा होते हैं, जो सींग होने के बावजूद अपनी बुद्धि और ताकत की खुशफहमी में बेमौत मारे जाते हैं।
हमलावर विदेशियों की कथाओं में मूलनिवासियों को अजीबोगरीब शक्ल सूरत काले रंग के असुर दैत्य दानव दिखाया जाता रहा है और उनके सींग भी दिखाए जाते हैं। कथाओं में उनके नरसंहार के धर्मयुद्ध होते हैं और उनका वध देव कर्म है।
गधों का वध वीरता का काम नहीं है और न ऊंटों का वध महिमामण्डित है।
ये आत्म समर्पण कर देने वाले जीव होते हैं।
शुतुरमुर्ग के सींग नहीं होते लेकिन वे कुशाग्र बुद्धिजीवी होते हैं। शायद वे अपनी भाषा
बहुजन समाज से हूँ।
असुरों का वंशज हूँ।
सींग हमारे भी जरूर रहे होंगे।
इन दिनों सींग दिखते नहीं हैं।
अपने इन अदृश्य सींग का इस्तेमाल वे दुश्मनों के खिलाफ कभी नहीं करते।
सबसे ज्यादा खुद को लहूलुहान करते हैं।
फिर अपनों को सिंगियाने का कोई मौका नहीं खोते।
किसान का बेटा (Farmer's son) हूँ। 50 - 60 के दशक में भी किसानों के बच्चों से पढ़ लिखकर कुछ कर लेने की उम्मीद नहीं की जाती। लड़कीं को पढ़ाना गलत मन जाता था लेकिन लड़कों के पढ़ लिखकर बिगड़ जाने के खतरे से डरे रहते थे लोग।
गनीमत है कि मेरे पिता को मुझपर भरोसा था। सातवीं- आठवीं में ही मेरी बगावत से भी मुझमें उनकी आस्था नही डिगी। गनीमत है कि मेरे पूरे गांव और तराई के सभी गांवों के प्यार में पला हूँ और उस मुहब्बत पर कोई दूसरा रंग अभी चढ़ भी नहीं सका है।
किसानी किसान के बेटे को जरूर आनी चाहिए, इस पर सभी एकमत थे। बेहतर पढ़ने लिखने के बावजूद खेतीबाड़ी के कामकाज में कोई रियायत नहीं थी।
पंतनगर विश्वविद्यालय 1960 में बना लेकिन हरित क्रांति तेजी नहीं पकड़ी थी और तकनीकी क्रांति और आर्थिक सुधार से खेत गांव तब तबाह भी नहीं हुए थे। खेती में उर्वरक, कीटनाशक और मशीनों का इस्तेमाल शुरू भी नहीं हुआ था।
इसलिए सींग वाले जानवर हमारे साथी, सहयोगी और यूं समझिए सहपाठी खूब थे। अंग्रेज़ी तो मैंने उनसे बकबक कर सीखी और गणित भैंस की पीठ पर।
ऐसे दृश्य की आप कल्पना नहीं कर सकते कि कोई बच्चा भैंस की पीठ पर पढ़ने में मशगूल हो या सवाल जोड़ रहा हो और तभी भैंसों की खूनी लड़ाई छिड़ जाए।
लेकिन सींग वाली प्रजातियों को आपस में खून खराबा करने की जितनी दक्षता होती है, उत्पीड़क मालिक हुक्मरान के खिलाफ एकजुट होने की आदत उतनी ही कम। ये गधों, खच्चरों और ऊंटों की तरह ही गुलाम प्रजातीय हैं जिन्हें अंततः मार गिराया जाता है।
इस वक्त संकट तो यह है कि गधों को भी सींग होने की खुशफहमी हो गई है।
नरसंहारी पैदल सेना में शामिल गधे भी सिंगियाने लगे हैं। बाकी फिर।
पलाश विश्वास