वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र शर्मा का यह आलेख “कार्ल मार्क्स : सहस्त्राब्दी के सबसे महान चिंतक” हस्तक्षेप पर मूलतः 5 मई 2018 को प्रकाशित हुआ था। कार्ल मार्क्स की जयंती पर इस आलेख का पुनर्प्रकाशन -
बीसवीं सदी के एकदम अंत में बीबीसी न्यूज के एक ऑनलाइन जनमत सर्वेक्षण के नतीजे (BBC News online poll results) बहुतों के लिए चौंकाने वाले थे। 1999 के सितंबर में हुए इस सर्वे ने कार्ल मार्क्स को सहस्त्राब्दी का सबसे महान चिंतक (Karl Marx The greatest thinker of the millennium) ठहराया था। याद रहे कि तब तक सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोपीय समाजवादी राज्यों के पतन को लगभग एक दशक गुजर चुका था।
इस दशक के दौरान न सिर्फ एक बार फिर मार्क्सवाद के अंत का एलान (Declaration of the end of Marxism) किया जा चुका था बल्कि उसने जिस सचेत सामाजिक परिवर्तन का द्वार खोला था, उसके अर्थ में इतिहास के ही अंत का एलान किया जा चुका था।
बेशक, इक्कीसवीं सदी में भी इस महान क्रांतिकारी चिंतक का दर्जा कोई घटा नहीं है। नई सदी के क्रमश: पहले और दूसरे दशकों के मध्य में भी अलग-अलग सर्वेक्षणों में कार्ल मार्क्स को ‘महानतम दार्शनिक’ से लेकर, ‘अब तक का सबसे प्रभावशाली चिंतक’ तक ठहराया गया है।
अचरज नहीं कि आज दुनिया भर में कम्युनिस्ट ही नहीं बल्कि मानवता के लिए एक बेहतर भविष्य की कामना करने वाले सभी लोग, मार्क्स का दो सौवां जन्म दिन मना रहे हैं।
मार्क्स का जन्म एक जर्मन यहूदी वकील के घर में 5 मई 1818 को हुआ था। 65 वर्ष की आयु में, 14 मार्च 1883 को उनका निधन हुआ था। इस
याद रहे कि मार्क्स ने ही कहा था कि विचार जब लोगों के मानस में जड़ जमा लेते हैं, तो वे एक भौतिक शक्ति बन जाते हैं। मार्क्स के विचारों को ऐसी ही भौतिक शक्ति का रूप लेकर समूचे समाज को ही बदलते, पहले-पहल 1917 में रूस में तथा आगे चलकर दूसरे भी कई देशों में दुनिया ने देखा था। लेकिन, उसकी चर्चा बाद में। यहां तो हम सिर्फ इतना ध्यान दिलाना चाहेंगे कि मार्क्स की द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की प्रस्थापना (Marx's proposition of dialectical materialism) से हुए क्रांतिकारी प्रतिमान परिवर्तन ने, कुछ ही समय में विचारों और मानवीय प्रयासों, दोनों की ही समूची दुनिया को झकझोर कर रख दिया था। अर्थशास्त्र, इतिहास तथा दर्शन जैसे क्षेत्रों में तो सीधे उनके वैज्ञानिक हस्तक्षेप की धमक सुनी ही गयी, अन्य सामाजिक विज्ञानों से लेकर, कला तथा संस्कृति के क्षेत्रों तक को उसने जबर्दस्त तरीके से बदल दिया।
अचरज नहीं कि 1917 की अक्टूबर क्रांति से पहले ही भारत तक मार्क्स की कीर्ति पहुंच चुकी थी, हालांकि अक्टूबर क्रांति के बाद इसने जैसे बाढ़ का रूप ले लिया। ऐसा लगता है कि भारतीय भाषाओं में मार्क्स का पहला उल्लेख, 1903 में अमृत बाजार पत्रिका में एक पत्रकारीय टिप्पणी में आया था। यह टिप्पणी विदेशी समाजवादियों के उदय पर अंग्रेजी के किसी लेख पर आधारित थी। इसके एक दशक के अंदर-अंदर, 1912 में कार्ल मार्क्स की रामकृष्ण पिल्लै की जीवनी आ चुकी थी। और एक दशक और गुजरने से पहले ही भारत में मार्क्स के विचारों पर आधारित कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हो चुकी थी। इसके बाद, पूर्ण स्वतंत्रता की दुविधाहीन मांग से लेकर, राष्ट्रीय आंदोलन के साथ मजदूरों तथा किसानों के हितों के बुनियादी प्रश्नों को जोड़ने तक के जरिए, जिस तरह राष्ट्रीय आंदोलन का और समूचे सोच-विचार तथा सृजन का रैडीकलाइजेशन हुआ और रचनात्मकता का जैसा विस्फोट हुआ था, उसकी कम से कम यहां याद दिलाने की जरूरत नहीं है। यह इसके बावजूद है कि आज हमारे यहां इसी विरासत को भुलाने, मिटाने, हटाने की सबसे ज्यादा कोशिशें की जा रही हैं।
सभी जानते हैं कि कार्ल मार्क्स और उनके आजीवन सहयोगी, फ्रेडरिख एंगेल्स ने कम्युनिज्म का, एक वर्गीय शोषण तथा वर्गीय विभाजन से मुक्त समाज का लक्ष्य, मानवता के सामने रखा था। ऐसे समाज का सपना बेशक, उनसे पहले ही अस्तित्व में आ चुका था। पर मार्क्स और एंगेल्स ने इस सपने को यथार्थ की ठोस जमीन पर उतारने का काम किया था। 1848 में प्रकाशित कम्युनिस्ट घोषणापत्र में, जिसकी गिनती आज भी दुनिया की अब तक की सबसे प्रभावशाली पचास पुस्तकों में होती है, पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए मजदूर वर्ग के आह्वान के जरिए, इस क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन को उन्होंने ठोस सामाजिक शक्तियों के एजेंडे पर पहुंचा दिया। लेकिन, मार्क्स और एंगेल्स जैसे उनके संगी, कोई विचारों की दुनिया तक ही सीमित रहने वाले जीव नहीं थे। इसके उलट, उनका तमाम लेखन तथा उनके विचार और वास्तव में उनका पूरा का पूरा जीवन ही, इस सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई का ही अभिन्न हिस्सा था। अचरज नहीं कि वे मजदूर वर्ग के सामने, एक वर्गहीन समाज का लक्ष्य रखने पर ही नहीं रुक गए। वे खुद भी इस संघर्ष के लिए मजदूरों को संगठित करने के प्रयास में जुट गए। 1864 में स्थापित इंटरनेशनल वर्किंग मेन्स एसोसिएशन इन्हीं प्रयासों का नतीजा थी।
ऐतिहासिक भौतिकवाद | Historical materialism
बहरहाल, वर्गहीन समाज के सपने को इस तरह जमीन पर उतारना, सिर्फ किसी बौद्धिक युक्ति या चमत्कार का करिश्मा नहीं था। इसके विपरीत, मार्क्स-एंगेल्स ने सामाजिक इतिहास के आम नियमों की वैज्ञानिक खोज और उनसे निकलने वाले तत्कालीन समाज की प्रगति के नियमों की ठोस जमीन पर, इस सपने को टिकाया था। इन्हीं नियमों के आधार पर इतिहास की व्याख्या को, ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम जाता है। इसके केंद्र में यह विचार है कि मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का उद्यम, समाज के विकास की मुख्य चालक शक्ति है। यह उद्यम खुद, उत्पादन के साधनों तथा उत्पादन के संगठन के संदर्भ में ही रूप लेता है, जिनकी समग्रता को उत्पादन पद्धति कहते हैं। इन सभी में बदलाव या विकास होता रहा है और उत्पादन पद्धतियों में गुणात्मक बदलावों के आधार पर, समाज के विकास के अलग-अलग चरणों की पहचान की जा सकती है। उत्पादन पद्धतियों के अनुरूप ही अन्य तमाम सामाजिक संरचनाओं का विकास होता है। यह बदलाव या विकास, वर्ग संघर्ष के आधार पर होने से ही मार्क्स इस निष्कर्ष तक पहुंचे थे कि अब तक का इतिहास, वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है। और यह भी कि पूंजीवादी व्यवस्था के गर्भ से पैदा हुआ मजदूर वर्ग इस अनोखी स्थिति में है कि वह, इस अर्थ में इतिहास का अतिक्रमण कर, एक वर्गहीन समाज का रास्ता खोल सकता है। यहां आकर वर्गहीन समाज का सपना सिर्फ सदेच्छा का मामला न रहकर, समाज के विकास की एक ऐतिहासिक अनिवार्यता बन जाता है।
इसी क्रम में एक आम भ्रांति का जिक्र करना अप्रासांगिक नहीं होगा। यह एक आम धारणा है कि समाज के विकास की आर्थिक बुनियाद पर अपने जोर के चलते, मार्क्सवादी विचार सामाजिक परिवर्तन में गैर-भौतिक या वैचारिक, सांस्कृतिक आदि पहलुओं को अनदेखा करता है। और यह भी आर्थिक ढांचे को आधार और शेष सामाजिक ढांचे को अधिरचना मानने वाली मार्क्सवादी दृष्टि, अधिरचना की भूमिका कम कर के देखती है।
इस सिलसिले में मार्क्सवाद पर आर्थिक निर्धारणवाद या डिटरमिनिज्म के आरोप भी लगते रहे हैं। लेकिन, पूंजीवादी समाज को लांघने वाले सामाजिक बदलाव की मार्क्स की समझ कम से कम डिटरमिनिज्म के आरोप का पर्याप्त जवाब दे देती है।
याद रहे कि पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण के वस्तुगत नियमों को रेखांकित करते हुए भी मार्क्स, यह याद दिलाना नहीं भूलते हैं कि आर्थिक आधार के ये नियम, खुद ब खुद यह संक्रमण संभव नहीं बना सकते हैं। यहां तक कि पूंजीवाद के गर्भ से जन्मे सर्वहारा वर्ग तक में, पूंजीवाद के दायरे से बाहर से विचारों का प्रवेश ही, उसे इस संक्रमण का नेतृत्व करने की अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करने में समर्थ बनाता है। मार्क्सवादी विचार और उस पर आधारित संगठन की ठीक यही भूमिका है। दूसरी ओर, मार्क्स-एंगेल्स खुद इस संबंध में सचेत थे कि बहस में आर्थिक आधार पर जोर देने के क्रम में संभव है कि उन्होंने गैर-आर्थिक पहलू पर यथोचित जोर नहीं दिया हो। स्वाभाविक ही है कि आर्थिक आधार के शेष सामाजिक अधिरचना की संभवनाओं पर सीमाएं लगाने के आम नियम के दायरे में, आर्थिक ढांचे और सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे के आपसी संबंध की समझ का, बाद के मार्क्सवादी चिंतन में काफी विकास हुआ है।
याद रहे कि मार्क्स के विचारों के अमर होने का संबंध सबसे बढ़क़र इन विचारों के वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित होने से है। इस वैज्ञानिक पद्धति का सार है: सामाजिक यथार्थ विशेष के अध्ययनों से, सामाजिक विकास के आम नियमों तक पहुंचना और इन आम नियमों की रौशनी में विश्लेषण के माध्यम से, यथार्थ विशेष की बेहतर समझ हासिल करना। स्वाभाविक रूप से मार्क्स ने अपने समय की पूंजीवादी व्यवस्था का विशद और गहरा अध्ययन किया था। मार्क्स का महाग्रंथ पूंजी इसी का पारिणाम था, जिसका पहला खंड ही मार्क्स के जीवन काल में प्रकाशित हो पाया था और अन्य दो खंड बाद में उनकी छोड़ी पांडुलिपियों से तैयार किए गए थे। इस विशद अध्ययन के फलस्वरूप मार्क्स ने पूंजीवाद की जिन बुनियादी प्रवृत्तियों को रेखांकित किया था, वे आज भी सच हैं। इसके बावजूद, मार्क्स जाहिर है कि पूंजीवाद के उसी रूप की प्रवृत्तियों को देख सकते थे, जो रूप उनके समय तक सामने आ चुका था। पूंजीवाद के रूप के बाद के विकास की पड़ताल करने और उसके आधार पर मार्क्सवाद की पद्धति से बढक़र उसके निष्कर्षों को अपडेट करने का काम, उनके बाद के मार्क्सवादियों ने किया। लेनिन का नाम इनमें सबसे प्रमुख है, जिन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था के साम्राज्यवादी रूप की पहचान की थी।
वास्तव में, मार्क्स उत्तराधिकारियों द्वारा मार्क्सवाद का यही विकास था जिसने पश्चिमी योरप की विकसित पूंजीवादी दुनिया से बाहर, मजदूर-किसान एकता के आधार पर, पूंजीवादी व्यवस्था के अतिक्रमण का रास्ता खोला था। दुनिया की पहली समाजवादी क्रांति, रूसी क्रांति इसी सिलसिले की शुरूआत थी। इसी ने समाजवाद की इस उभरती हुई ताकत और साम्राज्यवादी गुलामी के जुए तले पिसते जनगण की स्वतंत्रता की आकांक्षाओं की, स्वाभाविक मैत्री को संभव बनाया था। पूर्वी योरपीय समाजवादी शिविर के पराभव से पहले तक, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में आम तौर पर इसका असर देखा जा सकता था। नवउदारवाद के बोलबाले के आज के दौर में भी, यह गति कोई पूरी तरह से रुक नहीं गयी है। विश्व पूंजीवाद के मौजूदा संकट के खिलाफ जहां विकसित दुनिया में मेहनतकश बढ़ते पैमाने पर आंदोलित हो रहे हैं, वहीं तीसरी दुनिया के देशों में भी मजदूर-किसान उठ रहे हैं। पड़ौस में नेपाल का ताजा घटनाक्रम इसका उदाहरण है।
मार्क्स का कभी दावा नहीं था कि उनका कहा ही हर्फे आखिर है। उल्टे वह खुद जीवन भर अपने विचारों का विकास करते रहे थे। भारत के संबंध में मार्क्स का लेखन इसका महत्वपूर्ण उदाहरण है। भारत के अपने संदर्भ में साम्राज्यवादी गुलामी से मुक्ति और पूंजीवाद की गुलामी से मुक्ति के रिश्ते को, खुद मार्क्स ही रेखांकित कर चुके थे। मार्क्स ने न सिर्फ 1857 के विद्रोह की पहचान ‘भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ के रूप में की थी और एक अमरीकी दैनिक के लिए उसकी खुले तौर पर सहानुभूतिपूर्ण रिपोर्टिंग की थी बल्कि उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि ब्रिटिश राज के संपर्क से आ रहे आधुनिक प्रगति के साधनों का भारत को कोई वास्तविक लाभ तभी होगा, जब वह ब्रिटिश दासता को उखाड़ फैंकेगा। ब्रिटिश भारत सरकार के आर्थिक दस्तावेजों का अध्ययन कर, मार्क्स भारत में ब्रिटिश राज की आर्थिक लूट को नोट कर चुके थे। नरोद्निक अर्थशास्त्री एन एफ डेनिअल्सन के लिए मार्क्स की चि_ी, जो उन्होंने अपनी मृत्यु से सिर्फ दो वर्ष पहले लिखी थी, इसका सबूत है। यहां से पूंजीवाद के साम्राज्यवादी चरण की पहचान, एक ही डग दूर रह जाती थी, जो कदम जल्द ही लेनिन भरने वाले थे।
यह एक आम गलतफहमी है कि मार्क्सवादी वही है जो मार्क्स के लिखे को ही अंतिम माने। वास्तव में यह धारणा मार्क्स के मूल सिद्धांतों के ही खिलाफ है, जो परिवर्तन की निरंतरता पर आधारित हैं। मार्क्स यूं ही नहीं कहते थे कि एक ही अपरिवर्तनीय सत्य है, कि सब कुछ परिवर्तनीय है। याद रहे कि और किसी ने नहीं खुद लेनिन ने यह एलान किया था कि, ‘‘हम मार्क्स के सिद्धांत को कोई मुकम्मल तथा अलंघनीय चीज नहीं मानते हैं। उल्टे हमारी पक्की राय है कि उसने तो सिर्फ उस विज्ञान की नींव डाली है, जिसे समाजवादियों को, अगर वे जीवन के साथ कदम मिलाकर चलना चाहते हैं तो, सभी दिशाओं में विकसित करना होगा।’’ मार्क्स के विचारों के वास्तविक वारिस, इन विचारों का मंत्रजाप करने वाले नहीं बल्कि उन्हें सामाजिक बदलाव का औजार बनाने वाले लोग हैं, जिनका दायरा सिर्फ मार्क्सवादियों या कम्युनिस्टों तक ही सीमित नहीं है। उन्हें मार्क्स के विचारों के अपने इसी व्यवहार के तकाजों से, इन विचारों का निरंतर विकास करते रहना होगा। यह धारा मार्क्स के विचारों के व्यवहार के किसी प्रयास विशेष के विफल हो जाने से रुकने वाली नहीं है। यही मार्क्स के विचारों को चिर प्रासंगिक रखेगा। यही 200 वीं सालगिरह पर मार्क्स के लिए सच्ची श्रद्घांजलि होगी।
राजेंद्र शर्मा