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समझना भाषाई प्रतिश्रुतियों के स्रोतों को

—अरुण माहेश्वरी

अंग्रेजी दैनिक 'टेलिग्राफ' (The Telegraph) के 2 नवंबर के अंक में प्रसिद्ध भाषाशास्त्री जी. एन. देवी का एक लेख प्रकाशित  है — 'अनसुने शब्द' (अभी बिखरी पड़ी है आधुनिक भारतीय भाषाओं की प्रतिश्रुति)। { (Words Unheard ; The promise of modern Indian languages now lies broken) }

अपने इस लेख में देवी ने बिल्कुल सही पिछले एक हजार साल में प्राकृत और अपभ्रंश को पीछे छोड़ कर आज की तमाम स्वीकृत भारतीय भाषाओं के विकास के इतिहास को लैटिन से यूरोपीय भाषाओं के विकास के इतिहास का समकालीन और समकक्ष बताया है। लेकिन इस संदर्भ में उन्होंने इस सचाई पर चिंता जाहिर की है कि भाषाओं के विकास के बारे में विश्व इतिहास की पूरब और पश्चिम की ये समानांतर धाराएं, जो आजादी की लड़ाई के दिनों तक लगभग साथ-साथ चली, आजादी के बाद के काल में खास तौर पर भारतीय भाषाओं के मामले में इस तरह से अवरुद्ध हो गई कि आज की दुनिया के भाषाई नक्शे पर एक भी भारतीय भाषा को उसके बोलने वाले भी 'ज्ञान की भाषा' के रूप में नहीं स्वीकारते हैं। किसी भी भारतीय भाषा को मनुष्य के जीवन में उन्नति के अवसरों की भाषा, भारत के भविष्य की भाषा के तौर पर नहीं जाना जाता है।

सरकार की भूमिका पर सवाल

Question about the role of government

देवी ने इसी सिलसिले में सरकार की भूमिका के सवाल को उठाया है और यह साफ कहा है कि भारतीय भाषाओं की इस त्रासदी को खत्म करने में वास्तव में सरकार की कोई भूमिका नहीं हो सकती है। उलटे इस प्रकार के सरकारी संरक्षण से भाषाओं में 'सिर्फ एक प्रकार का अधकचरापन (मीडियोक्रिटी) बढ़ा सकता है'।

उन्होने लिखा है कि इस प्रकार “आंशिक तौर पर लकवाग्रस्त भारतीय भाषाओं को तभी चंगा किया जा सकता है जब हम यह समझेंगे कि

इन भाषाओं ने भारतीय आधुनिकता की नींव रखी थी और साथ ही यह भी जान लेंगे कि अन्य भाषा के पर्यावरण में प्रगति की बात सोचना एक बौद्धिक मृग मरीचिका है।”

'भाषा का पर्यावरण' क्या चीज है

What is the 'language environment'

'अन्य भाषा के पर्यावरण में प्रगति' — देवी के लेख का यह रूपक हमें पूरे विषय पर जरा ठहर कर गंभीरता से विचार करने के लिये मजबूर कर रहा है। हमारे सामने यह एक बुनियादी सवाल आ खड़ा होता है कि यह 'भाषा का पर्यावरण' क्या चीज है, और आखिर इसमें मनुष्य का या मनुष्य के जीवन में इसका क्या स्थान है ? यह तो साफ है कि भाषा महज हमारी भौतिक जरूरतों को व्यक्त करने का माध्यम नहीं होती है। इसे तो हम आज के भाषा-विहीन संकेतों से लदी हुई दुनिया में बड़ी आसानी से देख-समझ सकते हैं।

भाषा का संबंध मूलत: मनुष्य के चित्त से, उसके प्रतीकात्मक जगत से होता है। और जब हम इसके 'पर्यावरण' की बात करते हैं तो यह साफ है कि भले यह आदमी के चित्त का एक हिस्सा हो, लेकिन इसकी निश्चित तौर पर अपनी एक एक स्वतंत्र स्थिति और संरचना होती है। यह सभी मनुष्यों में समान रूप से नैसर्गिक तौर पर मौजूद नहीं रहती है। इसीलिये भाषा को मनुष्य के चित्त में विभेदों की एक औपचारिक व्यवस्था भी कहा जाता है। एक ऐसी संरचना जो नैसर्गिक तौर पर मनुष्य के बाहर की होती है और उसमें हर मनुष्य अपने-अपने लिये अपना एक स्थान बनाता है।

शब्द वस्तु की हत्या के सबब होते हैं

इसीलिये कहते हैं कि शब्द भले किसी व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करें, लेकिन वे सिर्फ उसके लिये, व्यक्ति विशेष के लिये नहीं बने होते हैं। वे हर किसी को उपलब्ध होते हैं। मनुष्य अपनी जरूरतों के अनुसार भाषा के इस स्वतंत्र ढांचे में अपनी जगह बनाता है। कह सकते हैं कि भाषा और मनुष्य के संबंधों की समस्या आदमी के लिये जिंदा रहने की खातिर भाषा के जगत में अपना स्थान बनाने की उसकी अपनी एक जद्दोजहद की समस्या है।

भाषा मनुष्य के चित्त से जुड़ी होने के बावजूद उसकी संपूर्ण संरचना में आदमी एक बाहरी तत्व होता है। यह आदमी को उसकी भौतिक जरूरतों के परे, कहीं बड़ी दुनिया में गुम हो जाने का रास्ता खोलती है और इस प्रकार उसके निजीपन को अवरुद्ध करने और यहां तक कि लुप्त तक करने के साधन की भूमिका भी अदा करती है। इसीलिये भाषा से आदमी की पहचान की बात के विपरीत, हमारे अनुसार भाषा उसकी अपनी पहचान को खत्म करती है। दर्शनशास्त्री हेगेल ने कहा हैं कि 'शब्द वस्तु की हत्या के सबब होते हैं'।

सिर्फ अधकचरेपन को बढ़ावा देता है सरकारी संरक्षण

ऐसे में यदि भाषा को जीवन में अवसरों, अर्थात जीविका के सवालों से ही सिर्फ जोड़ कर देखा जायेगा तब हमारा प्रश्न है कि किसी भी खास भाषाई संरचना के होने, न होने से किसी भी आदमी की प्राणी सत्ता को क्या फर्क पड़ता है ? शायद इसी वजह से देवी अपने लेख में कहते हैं कि भाषा को 'सरकारी संरक्षण सिर्फ अधकचरेपन को बढ़ावा देता है' ; वह भाषा को 'व्यवहारिक भाषा' के तंग दायरे तक सीमित करता है। और इस प्रकार मनुष्य के चित्त में उसके किसी स्वतंत्र योगदान की,   भाषा के मानविकी, गतिशील और विस्तारवान पक्षों की संभावनाओं को नष्ट करता है।

ज्ञान की भाषा क्या है

What does it mean to say 'language of knowledge'

यहीं पर यह सवाल भी उठता है कि आखिर किसी भाषा को 'ज्ञान की भाषा' कहने से क्या तात्पर्य है ? क्या जब तक किसी भाषा में गणित, रसायनशास्त्र, भौतिकी, आदि विज्ञान की खास शाखाओँ की चर्चा न हो या दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की तरह के विषयों पर अध्यापकीय किस्म की गतिविधियां न हो, तब तक यह मान लेना होगा कि वह भाषा 'ज्ञान की भाषा' नहीं है ?

जैसा कि हमने शुरू में ही कहा कि भाषा के संसार की अपनी एक स्वायत्त संरचना होने पर भी वह हर हाल में मनुष्यों के चित्त का, उनके अंतर के प्रतीकात्मक जगत का संसार है, वह उसी के पर्यावरण मं  मूर्त होती है। इनका एक द्वंद्वात्मक संबंध है और चित्त के विस्तार का ही एक अर्थ है भाषा के दायरे का भी विस्तार। मनुष्य की भौतिक जरूरतों के साथ ही उसकी बहुविध आत्मिक जरूरतें संबद्ध होती हैं। अधुनातन जीवन ही अधुनातन ज्ञान की जरूरत और 'ज्ञान की भाषा' के आधार का निर्माण कर सकता है। इसीलिये, भाषा का विकास जीवन के विकास और मानविकी के क्षेत्र में निरंतर कामों से जुड़ा हुआ है।

रामजन्म भूमि के लिये मरने-मारने वालों को भक्ति और धार्मिक उन्माद की भाषा से अधिक किसी चीज की जरूरत नहीं होती है। पुरातनपंथी और जड़ विचारों से जकड़ा हुआ समाज न कभी किसी भाषा के विकास में सहयोगी बन सकता है और न संस्कृति के विकास में। पोंगापंथ भाषाओं के 'ज्ञान की भाषा' के रूप में विकास के रास्ते का सबसे बड़ा अवरोध होता है।

और, अगर कोई अध्यापकीय कर्म के लिये भाषा के प्रयोग को ही 'ज्ञान की भाषा' मानता हो, तो कहना होगा, हर प्रकार की अध्यापकीय चर्चा अपने सर्वश्रेष्ठ बिन्दु पर ही एक ढांचे में कैद, जीवन की गतिशीलता से असंबद्ध अमूर्त चर्चा होती है। भाषा में असली ज्ञान चर्चा उसे इस प्रकार के अध्यापकीय विमर्श के सर्वाधिक अमूर्त बिंदु से मुक्त करके ही संभव है; अर्थात, जीवन से आने वाली चुनौतियों से उसे जोड़ कर ही संभव है। ये चुनौतियां विश्वविद्यालयी कक्षाओं में आसानी से प्रवेश नहीं कर पाती है। हमेशा जरूरत इस बात की होती है कि ज्ञान चर्चा के मान्य अध्यापकीय स्वरूपों को चुनौती दी जाए — आप देखेंगे कि भाषाओं का स्वरूप बदलने लगेगा। विज्ञान और दर्शन की दूसरी सभी शाखाएं जीवन की धड़कनों के साथ स्वत: उनमें प्रवेश करने लगेगी। भाषाएं 'ज्ञान की भाषा' का रूप ग्रहण करने लगेगी।

इसके बाद भी हम नहीं समझते कि विश्व में भाषाओं के स्वरूप और अस्तित्व संबंधी चिंताओं का कभी पूरी तरह से कोई अंत होगा, क्योंकि आज गणित का बढ़ता हुआ दायरा उसकी जद में मानविकी के तमाम रूपों को शामिल करता हुआ दिखाई दे रहा है। यह पूरी प्रक्रिया मनुष्य मात्र की तात्विक एकसूत्रता से भी कहीं न कहीं जरूर चालित है। इसे भी भाषा विमर्श के हर स्तर पर आज ध्यान में रखना जरूरी है।

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