किसी भी मज़हब की बात कीजिए, विवाह/ शादी में यौनिक संबंधों को ही अहम माना गया है। प्यार का तो जिक्र ही नहीं मिलता। मनपसंद शादी के नाम पर चेहरे से ज्यादा खानदान की इज्ज़त के रूप में जाने जानी वाली नाक कट जाती है और बिना जांच पड़ताल किए दान-दहेज के साथ बेटी को रुख़सत करने से कोई गुरेज़ नहीं इस समाज के सभ्य लोगों को।
इसीलिए आज के युवाओं में विवाह को लेकर उदासीनता अन्य कारणों में इक अहम मुद्दा है। आज भी लोगों को यौनिकता की स्वतंत्रता (Freedom of sexuality) या यौन शिक्षा पर चर्चा (Discussion on sex education) करने से घबराते देखती हूं।
कॉलेज में मुझे "क्राइम अगेंस्ट वीमेन" (Crime against women) सब्जेक्ट मिला था पढ़ाने को। ज़ाहिर है क्लास में लड़कियों से ज्यादा लड़कों की संख्या, ऊपर से महिला शिक्षिका। मैं कभी असहज तो नहीं हुई, लेकिन बाकी चीज़ों पर अफसोस हुआ। उसमें कुछ वो बच्चियाँ भी थीं, जो कानून पढ़ने तो भले ही आ गई थीं, दुनियां से शोषण, असमानता को नेस्तनाबूद करने के ख्वाब भी थे उनकी आंखो में, लेकिन फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी वाली छाप पूरी दिखाई पड़ती थी।
आप क्यों नहीं समझते, किसी भी मुद्दे पर जब तक हेल्थी चर्चा या विचार विमर्श नही होगा, सवाल महज़ सवाल बने रहेंगे। कोई भी विषय हो उसपर चर्चा
राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक लगभग हर मुद्दे पर यही ढर्रा है।
भारत के कानून (Laws of india) भी लंबे समय से यहां के सामाजिक ढाँचे, पितृसत्ता सोच और कल्चर का पालन-पोषण करने में मददगार साबित हुए हैं। यौन स्वतंत्रता के अधिकार (Sexual freedom rights) की बात महज़ पुरूषों तक सीमित है। महिलाओं के हिस्से में कानून तो आए, लेकिन साथ ही सामाजिक जिम्मेदारी का बोझ भी। मैं लड़की हूं, सेक्स पर कुछ लिखूं तो कमेंट में शाबाशी और इन्बाक्स में अपनी असल औक़ात के नंगे नज़र आते हैं लोग। जैसे सेक्स जैसे मुद्दे पर बात करना इनके पिता और दादाओं की निशानी रहा हो और अब इनका कॉपीराइट।
मैं किसी भी इंसान की निजी ज़िंदगी (धर्म, रहन-सहन, वेशभूषा, खानपान आदि) पर कोई कमेंट नहीं करती, यहां तक कि तब भी नहीं जब कोई अपनी नीचता की हद पार कर चुका हो। मैं उन लोगों का भी समर्थन हरगिज़ नहीं करती जो अपनी मर्दानगी सिर्फ जिस्म के इक अंग से आंकते हैं और आखेटक की तरह जाल बिछाकर सेक्स की आज़ादी का समर्थन करते हैं।
मुझे शराब और सिगरेट पीती लड़कियाँ ऐसी ही लगतीं जैसे बाकी सब। जजमेंटल क्यों होना भला? बस अखरता है कि महिलाओं ने भी शोषक वर्ग के बनाएं सांचे शराब, सिगरेट, छोटे कपड़ों को, आधी रात सड़क पर घूमने को ही अपनी आजादी मान लिया, जबकि इससे उलट उनकी नजर में आज़ादी का मतलब होना था सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक पक्षधरता समानता और सुरक्षा।
बहुत से देशों में पति द्वारा पत्नी से जबरदस्ती सहवास को बलात्कार माना जाता है लेकिन अभी भारतीय संस्कृति में ऐसे किसी फैसले की आस ही अपने आप में छलावा से बढ़कर कुछ नहीं हैं। सामाजिक नैतिकता और कानून के दरमियाँ जो गहरी खाई है, उसे पाटने में जाने कितना समय लगे? लेकिन इस खाई के इक तरफ “माई बॉडी, माई लाइफ, माई चॉइस” दूसरी तरफ सामाजिक सरोकार और चरित्र का सवाल। कई बार समझना जितना आसान होता है, समझाना उतना ही मुश्किल हो जाता है।
लिंग समानता और स्त्री की गरिमा क्या कभी पूरा होगा ये सपना या फिर इसकी आड़ में शुरू होगा पितृसत्ता की नई क्रांति का नया दौर। ऐसी क्रांति जो जानी जायेगी ‘सम्पूर्ण यौन क्रांति‘ के नाम से, विषय जितना संवेदनशील है उतना ही गहराई से गंभीरता से सोचना- समझना भी होगा।
साल 2016 में एक फिल्म आई थी “पिंक” जिसमें यौन हिंसा के मामलों को मद्देनज़र रखते हुए एक सवाल को जन्म दिया था कि “न मतलब न” जो कि अब बढकर “हाँ का मतलब हाँ” तक स्वीकार किया जाने लगा है।
एक मामले में न्यायमूर्ति विभु भाखरू ने कहा, 'जहां तक यौन संबंध बनाने के लिए सहमति का सवाल है, 1990 के दशक में शुरू हुए अभियान 'न मतलब न', में विश्व में स्वीकार किया एक नियम शामिल है। मौखिक 'न' इस बात का साफ इशारा है कि यौन संबंध के लिए सहमति नहीं दी गई है।
इक मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि शारीरिक संबंधों के बावजूद प्रेमिका से बेवफाई चाहे जितनी खराब बात लगे, लेकिन यह अपराध नहीं है। ये बात खुले दिमाग़ से समझने की ज़रूरत है।
इसी कड़ी में आगे सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी भी शामिल है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर महिला ये जानती है कि इस तरह के संबंध को शादी के मुकाम पर नहीं पहुंचाया जा सकता है और इसके बाद भी वो रिलेशन बनाती तो इसको रेप नहीं माना जा सकता।
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने सेल्स टैक्स में असिस्टेंट कमिश्नर महिला की याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा है कि आपसी सहमति से बनाए शारीरिक संबंध को शादी का झूठा वादा कर रेप करना नहीं कहा जा सकता।
बहुत कुछ है जहाँ चर्चा चार दीवारी के भीतर नहीं खुले मंच पर होनी चाहिए। सहजीवन (Live-in- relationship) के कानूनी पक्ष के साथ सामाजिक आयामों को नज़रअंदाज़ कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। बातें घर की दहलीज़ लांघ सड़कों पर आ निकलीं तो कई सो कॉल्ड इज्ज़तदारों की इज्ज़त की धज्जियां उड़ जाएंगी।
आज़ादी महज़ जिस्म की नहीं, सोच की आज़ादी। सवाल कीजिए और करते रहिए जब तक जवाब न मिलें। बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, लिख कि कलम में स्याही अब भी बाकी है।
नगीना खान