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संरचनात्मक हिंसा से साम्प्रदायिकता के जड़ें और गहरी हो रहीं हैं

The roots of communalism are getting deeper with structural violence

सन 2019 का साल भारत के लिए उथल-पुथल भरा रहा. देश में अशांति व्याप्त रही और हिंसा भी हुई. सांप्रदायिक हिंसा एक व्यापक अवधारणा है जिसमें सांप्रदायिक दंगे, किसी धर्म विशेष पर केन्द्रित नफरत फैलाने वाले भाषण और किसी समुदाय विशेष को निशाना बनाने वाली संरचनात्मक हिंसा शामिल है. सन 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से घृणा-जनित अपराधों में बढ़ोत्तरी हुई है. इसके साथ ही, सरकार  ने अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं और आदिवासियों के साथ भेदभाव करने वाली नीतियाँ लागू कीं हैं. सरकार ने सन 2017 से नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के सांप्रदायिक दंगों सम्बन्धी आंकड़ों का प्रकाशन बंद कर दिया है जिस कारण वर्ष-दर-वर्ष होने वाली सांप्रदायिक हिंसा की वारदातों की संख्या की तुलना करना कठिन हो गया है. परन्तु, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म (सीएसएसएस) के आंकलन, जो कि विभिन्न अग्रणी समाचारपत्रों में प्रकाशित ख़बरों पर आधारित हैं, से ऐसा लगता है कि दंगों की संख्या में कमी आयी है.

दूसरी ओर, पिछले कुछ वर्षों में संरचनात्मक हिंसा में वृद्धि हुई है. राज्य की भेदभावपूर्ण नीतियां और ऐसे कदम जो समाज में भेदभाव और हिंसा को बढ़ावा देते हैं, संरचनात्मक हिंसा की परिभाषा में आते हैं.

The CSSS considers incidents of communal violence on an annual basis.

सीएसएसएस सांप्रदायिक हिंसा की घटनओं की वार्षिक आधार पर विवेचना करता है. इस वर्ष, हम देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं का विश्लेषण तीन हिस्सों में करेंगे - संरचनात्मक हिंसा, व्यवहारगत हिंसा और शारीरिक हिंसा.

अतीत में सांप्रदायिक दंगों से होने वाले ध्रुवीकरण से भाजपा को चुनावों में फायदा हुआ है और उसकी राजनैतिक ताकत बढ़ी है. पॉल ब्रास के अनुसार, भारत में संस्थागत दंगा प्रणाली अस्तित्व में है जो राजनैतिक दलों के इशारे पर उन्हें लाभ पहुँचाने के लिए कभी

भी और कहीं भी- विशेषकर चुनावों के पूर्व - सांप्रदायिक दंगे करवा सकती है. सांप्रदायिक दंगों से चुनाव में होने वाले लाभ के मद्देनजर, केंद्र में सत्ता में आने के पहले तक भाजपा बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे भड़काती थी. ये दंगे लम्बे समय तक चलते थे और इनमें बड़ी संख्या में जनहानि होती थी. इन दंगों से सामान्य जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाता था.

सन 2014 के बाद से दंगों की प्रकृति में परिवर्तन आया है. अब दंगे कम अवधि के होते हैं और सामान्य जनजीवन को अधिक दिनों तक प्रभावित नहीं करते. सन 2014 के बाद से, समाज को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने के तौर-तरीके बदल गए हैं. इस पृष्ठभूमि में संरचनात्मक हिंसा का महत्व बढ़ गया है और सांप्रदायिक हिंसा के बदलते स्वरूप को समझने के लिए संरचनात्मक हिंसा की प्रकृति को समझना ज़रूरी हो गया है.

Why is difficult to see and understand structural violence

संरचनात्मक हिंसा को देखना-समझना इसलिए अपेक्षाकृत कठिन होता है क्योंकि वह संरचना का हिस्सा होती है और उसे राज्य का समर्थन और सहयोग प्राप्त होता है. संरचनात्मक हिंसा लम्बे समय तक चलती है क्योंकि उसका स्वरुप संस्थागत होता है. उदाहरण के लिए, इन दिनों नागरिकता की परिभाषा पर बहस चल रही है. नागरिकता, जो कि सभी अधिकारों का मूल स्त्रोत है, को बहिष्करण के आधार पर परिभाषित किया जा रहा है.

नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिन्दुओं, ईसाईयों, जैनियों, बौद्धों और पारसियों को आसानी से भारत की नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान करता है. जैसा कि साफ़ है, इस भेदभावपूर्ण कानून में मुसलमानों के लिए कोई स्थान नहीं है. इस अधिनियम के सन्दर्भ में इजराइल की याद आना स्वाभाविक है. इजराइल यह मानता है कि वह पूरी दुनिया में रहने वाले यहूदियों का स्वाभाविक घर है. इसी तरह, भाजपा की यह मान्यता है कि भारत, दुनिया के सभी मुसलमानों का स्वाभाविक घर है. यह अधिनियम हमारे संविधान की उस नींव पर प्रहार करता है जिसके आधार स्तम्भ धर्मनिरपेक्षता और समान नागरिकता हैं.

सीएए और एनआरसी इस मान्यता पर आधारित हैं कि पड़ोसी देशों से सीमा पार कर आए अवैध प्रवासी भारत में रह रहे हैं. परन्तु भाजपा ने अपने राजनैतिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए प्रवासी की परिभाषा ही बदल दी है. असम में वह बांग्ला-भाषी हिन्दू और मुस्लिम प्रवासियों के बीच कोई विभेद नहीं करती परन्तु उसका कहना है कि देश के अन्य हिस्सों में रह रहे मुस्लिम प्रवासी घुसपैठिये और दीमक हैं.

गृहमंत्री अमित शाह ने कहा,

“अवैध प्रवासी दीमक की तरह हैं. वे उस अनाज को खा रहे हैं जो हमारे गरीबों को जाना चाहिए, वे हमारी नौकरियां ले रहे हैं.”

कहने की आवश्यकता नहीं कि श्री शाह जिन प्रवासियों की बात कर रहे हैं वे सभी मुसलमान हैं. मुस्लिम प्रवासियों और भारतीय मुसलमानों के बीच की विभाजक रेखा को धुंधला कर दिया गया है. इससे इस आख्यान को मजबूती मिलती है कि मुसलमान राष्ट्र-विरोधी, प्रतिगामी, कट्टरपंथी और हिंसक हैं. सीएए के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के साथ पुलिस के बर्बर व्यवहार के बाद प्रधानमंत्री ने जो कहा वह सरकार की सोच को उजागर करता है.

उन्होंने कहा,

“कांग्रेस और उसके साथी बहुत शोर मचा रहे हैं, वे तूफ़ान खड़ा कर रहे हैं. और जब उससे भी काम नहीं चल रहा है तो वे आग लगा रहे हैं...टीवी में जो दिखाया जा रहा है, उससे आग लगाने वालों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है.”

पुलिस ने विद्यार्थियों के खिलाफ ज़रुरत से कहीं अधिक बल प्रयोग किया, विशेषकर उन विश्वविद्यालयों में जो पुलिस की निगाह में ‘मुस्लिम’ विश्वविद्यालय हैं. जामिया मिल्लिया इस्लामिया में लाइब्रेरी के अन्दर आंसू गैस के गोले फोड़े गए और विद्यार्थियों को जम कर पीटा गया. उत्तरप्रदेश के अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पुलिस ने एक कदम और आगे बढ़ कर स्टन ग्रेनेडों का प्रयोग किया. इस हथियार का प्रयोग युद्ध में किया जाता है. इस कार्यवाही में एक विद्यार्थी का हाथ उड़ गया.

सीएए का विरोध करने वाले विद्यार्थियों और अन्यों पर बर्बर बलप्रयोग किया जा रहा है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो मानो प्रदर्शनकारियों से बदला लेने पर आमादा हैं. उन्हें सरकारी संपत्ति को हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति करने के लिए नोटिस भेजे जा रहे हैं. अगर वे ऐसा नहीं कर सके, तो उनकी जो भी थोड़ी-बहुत संपत्ति है, उसे सरकार जब्त कर लेगी. इस प्रक्रिया में किस तरह की मनमानी की जा रही है और कैसे एक धर्म-विशेष के लोगों को परेशान किया जा रहा है यह इससे जाहिर है कि जिन व्यक्तियों को नोटिस दिए गए हैं उनमें 87 साल के बन्ने खान शामिल हैं, जो छह साल पहले खुदा को प्यारे हो चुके हैं.

फ़साहत मीर खान, जो 93 साल के हैं और एक साल से बिस्तर पर हैं, उन्हें भी नोटिस मिला है. सीएए के विरोध में प्रदर्शनों में एक सप्ताह के भीतर 19 लोगों की जानें गईं और ये सभी मुसलमान थे.

पुलिस ने मुसलमानों के घरों में तोड़-फोड़ की और सीसीटीवी कैमरे नष्ट कर दिए. इसके पहले शायद ही कभी किसी आन्दोलन के दौरान या उसके बाद पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर इस तरह की बर्बरता की होगी. जहाँ पहले सरकारें प्रायोजित गुंडों को अल्पसंख्यकों पर हमले करने की छूट देतीं थीं वहीं अब तो ऐसा लग रहा है कि सरकारी मशीनरी का उपयोग मुसलमानों पर बल प्रयोग कर उन्हें दबाने और कुचलने के लिए किया जा रहा है. क्या राज्य ने अल्पसंख्यकों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी है?

सीएए का नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स (एनआरसी) से सीधा सम्बन्ध है, सीएए, एक तरह से राष्ट्रव्यापी एनआरसी की शुरुआत है. इस दिशा में अगला कदम होगा नेशनल पापुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) का निर्माण. एनआरसी के अंतर्गत,  भारत के सभी निवासियों को विरासत-सम्बन्धी जटिल दस्तावेजों के ज़रिये अपनी नागरिकता साबित करनी होगी. स्वयं को नागरिक साबित की ज़िम्मेदारी सम्बंधित व्यक्ति की होगी. अर्थात सरकार को यह साबित नहीं करना होगा कि कोई व्यक्ति नागरिक नहीं है. जो लोग चाहे गए दस्तावेज प्रस्तुत नहीं कर सकेंगे उन्हें अपना शेष जीवन डिटेंशन सेंटरों में बिताने के लिए तैयार रहना होगा.

असम में हुए एनआरसी में यह सामने आया कि आदिवासियों, गरीबों और अन्य हाशियाकृत समुदायों के सदस्यों के पास जन्म प्रमाणपत्र ही नहीं थे. भूमिहीन, ज़मीन के मालिकाना हक के कागजात प्रस्तुत नहीं कर सके. यही हाल पूरे देश में हैं.

सीएए का उद्देश्य मुसलमानों को छोड़कर अन्य सभी समुदायों के ऐसे सदस्यों को पिछले दरवाज़े से नागरिकता देना है, जिनके पास ज़रूरी दस्तावेज नहीं हैं. जाहिर है कि यह मुसलमानों के साथ भेदभाव है और इससे उनमें यह डर व्याप्त हो गया है कि उन्हें भयावह डिटेंशन सेंटरों में अमानवीय जीवन जीने पर मजबूर होना पड़ेगा.

सीएए-एनआरसी, कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद लाये गए हैं. यह अनुच्छेद, जम्मू-कश्मीर राज्य को कानून बनाने की स्वायत्तता देता था.

भाजपा को अपने इस पुराने वायदे को पूरा करने की इतनी जल्दी थी कि उसने कश्मीर के लोगों को विश्वास में लेना भी ज़रूरी नहीं समझा. वहां के लोग प्रतिरोध न कर सकें इसलिए वहां इन्टरनेट और टेलीफोन बंद कर दिए गए हैं और प्रदेश को दुनिया से अलग-थलग कर दिया गया है. कश्मीर से इस आशय की चिंताजनक खबरें आ रहीं हैं कि वहां सुरक्षा बल अत्याचार कर रहे हैं, 10 साल तक के लड़कों को हिरासत में लिया जा रहा है और लोगों को चुप करने के लिए उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है.

ये सभी नीतियाँ, भारत के उस विचार के विरुद्ध हैं जिसकी कल्पना हमारे देश के निर्माताओं ने की थी. नागरिकता के मुद्दे के अलावा, एक अन्य कारक जो देश में साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ा रहा है वह है शिक्षा का भगवाकरण. विद्यार्थियों को यह सिखाया जा रहा है कि मुसलमानों की आज़ादी के आन्दोलन में कोई भूमिका नहीं थी. वर्तमान सरकार इतिहास का पुनर्लेखन कर रहे है, जिसका उद्देश्य संघ और हिंदुत्व के झंडाबरदारों का गौरव गान करना है.

इतिहास का मिथ्याकरण और आरआरएस का महिमामंडन करने के अपने इरादे को जाहिर करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने देश के इतिहासकारों का आव्हान किया कि वे ‘भारत’ के दृष्टिकोण से इतिहास का पुनर्लेखन करें. हिंदुत्व चिन्तक सावरकर को भारत रत्न से नवाज़ने के प्रयास पहले से ही जारी हैं. हाल में, वड़ोदरा के एमएस विश्वविद्यालय ने अपने विद्यार्थियों और शिक्षकों को अनुच्छेद 370 हटाये जाने के समर्थन में आयोजित एक रैली में भाग लेने के लिए आधिकारिक रूप से कहा. अहमदाबाद के जिला शिक्षा अधिकारी ने एक सर्कुलर जारी कर जिले के सभी सरकारी, अनुदान-प्राप्त और स्ववित्तपोषित उच्च और उच्चतर माध्यमिक स्कूलों को निर्देश दिया कि प्रधानमंत्री मोदी के जन्मदिन पर संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए पर विशेष व्याख्यानों के साथ-साथ वाद-विवाद, भाषण व निबंध प्रतियोगिताएं आयोजित की जाएं.

इस वर्ष का एक अन्य घटनाक्रम भी गंभीर चिंता का विषय है और वह है हिन्दू त्योहारों को मनाने और हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों स्थापित करने पर सरकारी धन का व्यय. इसी के साथ, अन्य धर्मों के त्योहारों पर सार्वजानिक उत्सवों को हतोत्साहित किया जा रहा है. उदाहरण के लिए, उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने इलाहाबाद में होने वाले कुम्भ मेले के लिए 4,236 करोड़ रुपये के बजट का आवंटन किया है. यह 2013 में आयोजित महाकुम्भ के बजट का तीन गुना है. दीपावली के पहले अयोध्या दीपोत्सव पर सरकार ने रुपये 133 करोड़ खर्च किये गए. ऐसा लगा रहा था मानो सरकार दीपावली मना रही हो. इसी के समांतर, कर्नाटक सरकार ने मुस्लिम शासक टीपू सुल्तान जिन पर राज्य के लोग श्रद्धा करते हैं के जन्मदिन पर आयोजन रद्द कर दिया. यह सब हमारे संविधान का मखौल है, जो करदाताओं के धन को धार्मिक समारोहों पर व्यय करने की इजाजत नहीं देता. यह इसलिए और भी गलत है क्योंकि राज्य द्वारा ईसाई और मुस्लिम त्यौहार नहीं मनाये जा रहे हैं.

हमारे संविधान निर्माताओं ने यह सुनिश्चित किया है कि राज्य के विभिन्न अंगों के बीच संतुलन बना रहे और राज्य का कोई भी अंग अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर ऐसा ऐसा कुछ न कर सके जिससे संविधान के मूल्यों को क्षति पहुंचे. परन्तु हम यह देख रहे हैं कि देश में आपराधिक न्याय प्रणाली का निरंतर ह्रास हो रहा है. अपने राजनैतिक आकाओं के दबाव में पुलिस जानबूझकर आपराधिक घटनाओं की ठीक से विवेचना नहीं करती और नतीजे में अपराधी अदालतों से बरी हो जाते हैं. इसके अलावा, पुलिस निर्दोष नागरिकों की रक्षा करने की अपनी ज़िम्मेदारी भी पूरी नहीं कर पा रही है. देश में अनेक ऐसी घटनाएं हुईं हैं जिनमें मुसलमानों को ‘जय श्रीराम’ का नारा नहीं लगाने के लिए प्रताड़ित किया गया या पीटा गया. परन्तु पुलिस इन्हें सांप्रदायिक अपराध मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं. उत्तरप्रदेश और कर्नाटक में सांप्रदायिक हिंसा में शामिल भाजपा नेताओं पर दर्ज प्रकरणों को वापस लेने की मांग उठती रही है. सन 2019 में, उत्तरप्रदेश सरकार ने मुज्जफरनगर दंगों से सम्बंधित 75 मामले वापस ले लिए. यहाँ यह महत्वपूर्ण कि इन दंगों से सम्बंधित 41 अन्य मामलों में सभी आरोपियों को दोषमुक्त घोषित कर दिया गया है. जाहिर है कि अब न्याय की उम्मीद भी नहीं की जा सकती.

भारत एक नादिरशाही शासन की जकड़न में है जो अपने ही देश की गरीबों और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध युद्ध कर रहा है. सरकारी नीतियाँ संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करने वालीं हैं और उनके निशाने पर हाशियाकृत वर्ग हैं. यह बहिष्करण और भेदभाव और इससे जनित संरचनात्मक हिंसा, भारत की नींव को खोखला कर रही है और उसे एक अनिश्चित और असुरक्षित भविष्य की ओर धकेल रही है.

- इरफ़ान इंजीनियर, नेहा दाभाड़े, सूरज नायर

 (अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

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