आज गणतंत्र दिवस है। अपने बचपन में 15 अगस्त और 26 जनवरी साठ के दशक में जिस जोश से मनाया करते थे हम, जिस तरह कागज पर रंग से तिरंगा बनाकर डंडे पर टांगकर जुलूस में शामिल हो जाया करते थे, सत्तर के दशक से वह जोश कहीं नहीं दिखता।
साठ के दशक से ही मोहभंग का सिलसिला शुरू हो गया। आज शिक्षा, रोज़गार और बुनियादी जरूरतों सेवाओं से वंचित युवाजनों में किसानों से भी ज्यादा आत्महत्या की घटनाएं सामने आ रही हैं। हम प्रेरणा अंशु के फरवरी अंक में इस पर चर्चा करने वाले हैं।
गणतंत्र को सत्ता वर्ग ने सबसे बड़ा मजाक बना दिया है। आम लोगों के लिए न कानून का राज है, न संविधान कहीं लागू हैं, न आजादी है, न गणतंत्र, न मानवाधिकार।
सत्तर के दशक में छात्रों और युवाजनों ने पहलीबार देश के सामंती और पूंजीवादी चरित्र और ढांचे को बदलने के लिए राजनीतिक लड़ाई की शुरुआत की थी। पत्रकारिता, लघुपत्रिका आंदोलन और साहित्य संस्कृति के क्षेत्र में हमारी पीढ़ी बहुत ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ इस आंदोलन में सक्रिय रही है।
किसानों के आंदोलन औपनिवेशिक काल से आदिवासियों की अगुवाई में लगतार दो सौ सालों से जारी थी बुनियादी परिवर्तन के लिए, सामन्तवाद और पूंजीवाद के अंत के लिए। मजदूर आंदोलन उन्नीसवीं सदी में तेज से तेज होती रही।
इस सबके बावजूद अस्सी के दशक से इंदिरा गाँधी के राजकाज के दौरान संघ परिवार की जुगलबंदी से देश का हिन्दुत्वकरण शुरू हो गया, जिसकी आड़ में यह गणतंत्र भारत मुकम्मल कारपोरेट हिन्दू राष्ट्र बना दिया गया, जहां आज का सच नरसंहारी मुक्तबाजार है। ग्लोबीकरण, उदारीकरण और निनिकर्ण, कारपोरेट राज के
नागरिकता कानून, शर्म कानून और आधार कानून बुनियादी आर्थिक सुधार हैं, जिन्हें हम हिंदुत्व का एजेंडा (Hindutva agenda) मान रहे हैं। कारपोरेट एजेंडा (Corporate agenda) मानने की समझ अभी बनी नहीं है। हम हिंदुत्व का विरोध (Opposition to Hindutva) कर रहे हैं और इसी से हिंदुत्व मजबूत हो रहा है।
हम कारपोरेट, सामंती, पूंजीवादी सत्ता वर्ग और नरसंहारी राष्ट्र के खिलाफ न बोल पा रहे हैं, न लिख पा रहे हैं। प्रतिरोध का सवाल तो उठा ही नहीं है। इससे हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र और उसकी याद में कारपोरेट कुलीन एकाधिकार लगातार मजबूत और निरंकुश हो रहा है, जो असल में फासीवाद है।
मुसलमान औरतों के शाहीन बाग आंदोलन से ये हालात नहीं बदलने वाले हैं। जब तक न हम धर्मांध हर नागरिक को गणतंत्र के पक्ष में खड़ा नहीं कर सके। उन्हें न संविधान, न कानून, न राजकाज और न ही विटी निर्माण और अर्थ व्यवस्था के बारे में कुछ मालूम है।
इस लड़ाई में किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों और हिन्दू आम लोगों और औरतों की भागीदारी के बिना हम हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र को ही हिन्दुत्व के विरोध के नाम पर मजबूत कर रहे हैं। यह राजनीतिक बदलाव कतई नहीं, अंततः हिंदुत्व की ही राजनीति है और हिंदुत्व की राजनीति से हम हिन्दुत्व का प्रतिरोध नहीं कर सकते, जो मुक्तबाजार और कारपोरेट दोनों हैं।
पलाश विश्वास