सुप्रीम कोर्ट को अर्णब गोस्वामी की रक्षा (Defense of Arnab Goswami) में सामने आने में एक क्षण नहीं लगा है। उसे उनके अपराधी कृत्यों के लिये तत्काल अभय दे दिया गया है। जबकि अन्य तमाम मामलों में यही सुप्रीम कोर्ट त्रिशंकु की तरह अधर में चमगादड़ों की तरह औंधे लटका हुआ दिखाई देता है।
कश्मीर से लेकर देश भर में मानव अधिकारों, नागरिक के मूलभूत और ज़िंदा रहने के अधिकारों के विषयों पर विचार को उसने अनंत काल के लिए टाल कर रख दिया है। इनमें शासक दल के नेताओं के अपराधी कृत्यों के मामले भी शामिल है।
उसकी यह अधर में लटकी हुई, शूली पर हवा में लटके आदमी की तस्वीर से लगता है जैसे क़ानून की अपनी आंतरिक ज़रूरतों और उस पर पड़ रहे बेजा बाहरी दबावों से कोई ट्यूमर फटने की अंतिम स्थिति में पहुँच चुका है। यह क़ानून की सीमा और राष्ट्र
सुप्रीम कोर्ट के कथित विद्वान न्यायाधीशों को लगता है अभी तक न्याय का यह न्यूनतम बोध हासिल करना बाक़ी है कि शासन के प्रति किसी भी प्रकार का व्यामोह व्यक्ति के खुद के विवेक के क्षरण का ही कारण बनता है।
अरुण माहेश्वरी