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The Supreme Court is more concerned about the discomfort of the government than the constitutionality of the laws, this situation is sad for the judiciary.

अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आईपीएस अफसर विजय शंकर सिंह का लेख

यह एक नया ट्रेंड चला है कि जब-जब सरकार निर्विकल्प होने और संकट में धंसने लगती है तो वह सर्वोच्च न्यायालय की ओर देखने लगती है। बिल्कुल ग़ज़ ग्राह वाली स्थिति है। दिल्ली की सीमा पर जब तक लाखों किसान बैठे रहे, सत्तर किसान मौसम और तनाव से जान गंवा बैठे, सरकार बातचीत का सिलसिला बनाये रखे। सरकार के किसी मंत्री या प्रधानमंत्री ने भी दिवंगत किसानों के प्रति औपचारिक शोक तक व्यक्त नहीं किया। सत्तारूढ़ दल के लोग उन्हें खालिस्तानी और विभाजनकारी लगातार बताते रहे। सरकार ने इस पर भी कोई ऐतराज नही किया। पहले ही दिन से किसान अपने स्टैंड पर अडिग हैं कि, वे इन कानूनों के निरस्तीकरण से कम पर राजी नहीं है, फिर भी 9 दौर की बातचीत हो चुकी है और अगली दौर की वार्ता अब 15 जनवरी को तय है।

इसी बीच सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक याचिका पर 11 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने कृषि कानूनों पर स्टे देने का संकेत दिया और कहा कि वह एक कमेटी का गठन कर सकती है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से खुद भी यह कहा

कि वह चाहे तो खुद ही इन कानूनों के क्रियान्वयन को रोक दे। पर सरकार ने ऐसा कुछ करने का कोई संकेत नहीं दिया।

12 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने तीनों कृषि कानूनों को स्टे कर दिया और एक कमेटी का गठन किया कि वह इन कानूनों की पड़ताल करे। कमेटी के जो सदस्य बनाये गए हैं, एक नज़र उनके प्रोफाइल और पृष्ठभूमि पर भी डाल लेते हैं। जो कमेटी गठित हुयी है उसमें वे ही लोग हैं जो इन कानूनों के लाये जाने की वकालत पहले से ही कर रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित कमेटी के सभी सदस्य, कृषि कानूनों के बारे सरकार के पक्ष में पहले से ही हैं, और अब भी वे खुल कर हैं।

कमेटी के सदस्य हैं,

1. भूपिंदर सिंह मान, प्रेसिडेंट,

2. अशोक गुलाटी कृषि अर्थशास्त्री,

3. डॉ. प्रमोद कुमार जोशी, इंटरनेशनल पॉलिसी हेड, और

4. अनिल धनवत, शेतकरी संगठन, महाराष्ट्र को शामिल किया गया है.

कौन हैं भूपिंदर सिंह मान

भूपिंदर सिंह मान राज्यसभा के सदस्य रहे हैं। हाल ही में यह एक शिष्टमंडल के साथ, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को इन कानूनों को बनाये रखने के पक्ष में एक ज्ञापन दे चुके हैं। यह भारतीय किसान यूनियन मान गुट से जुड़े हैं। इन्हीं के बारे में सरकार कहती है कि उसे कृषि कानून समर्थक किसानों के बारे में भी सोचना होगा।

कौन हैं अशोक गुलाटी

अशोक गुलाटी, कृषि विशेषज्ञ हैं और कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट के पक्षधर हैं। हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में इन्होंने एक लिखा था, जिसका एक अंश मैं यहां उद्धृत कर रहा हूँ।

 "इन कानूनों से किसानों को अपने उत्पाद बेचने के मामले में और खरीदारों को खरीदने और भंडारण करने के मामले में ज्यादा विकल्प और आजादी हासिल होगी. इस तरह खेतिहर उत्पादों की बाजार-व्यवस्था के भीतर प्रतिस्पर्धा कायम होगी. इस प्रतिस्पर्धा से खेतिहर उत्पादों के मामले में ज्यादा कारगर मूल्य-ऋंखला (वैल्यू चेन) तैयार करने में मदद मिलेगी क्योंकि मार्केटिंग की लागत कम होगी, उपज को बेहतर कीमत पर बेचने के अवसर होंगे, उपज पर किसानों का औसत लाभ बढ़ेगा और साथ ही उपभोक्ता के लिए भी सहूलियत होगी, उसे कम कीमत अदा करनी पड़ेगी. इससे भंडारण के मामले में निजी निवेश को भी बढ़ावा मिलेगा तो कृषि-उपज की बरबादी कम होगी और समय-समय पर कीमतों में जो उतार-चढ़ाव होते रहता है, उसपर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी।"

यह अंश इन कानूनों के बारे में इनकी राय स्प्ष्ट रूप से बता दे रहा है। अशोक गुलाटी अपने लेख में यह कह चुके हैं कि नए कृषि कानूनों को लेकर विपक्ष दिग्भ्रमित है। यह सही दिशा में उठाया गया कदम है।

कौन हैं डॉ प्रमोद कुमार जोशी

डॉ प्रमोद कुमार जोशी, सार्क एग्रीकल्चर सेंटर्स गवर्निंग बोर्ड के अध्यक्ष रहे हैं। वे वर्ल्ड बैंक के इंटरनेशनल असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चर साइंस के सदस्य रहे हैं। डॉ जोशी पहले ही यह बता चुके हैं कि नए कानून को अगर कमजोर किया गया तो भारत कृषि क्षेत्र में विश्वशक्ति बनने से रह जाएगा। उनका यह लेख फाइनेंशियल एक्सप्रेस में छप चुका है।

कौन हैं अनिल धनवत

अनिल धनवत, शेतकरी संगठन, महाराष्ट्र से हैं और यह संगठन पहले से ही कृषि कानूनों के पक्ष में हैं। वे इन बिलो को बड़ा सुधार बता चुके ओर कह रहे हैं कि इससे किसानों को वित्तीय आजादी मिलेगी। द हिन्दू बिजनेसलाइन डॉट कॉम में लिखे एक लेख में वे सरकार से खुलकर यह अपील कर चुके हैं कि, सरकार को नए कानून रद्द नहीं करना चाहिए। शेतकरी संगठन आज से नहीं कई दशकों से कृषि क्षेत्र में खुले बाज़ार की वकालत करता रहा है।

अब सवाल उठता है कमेटी की कानूनी स्थिति पर और यह करेगी क्या ?

यदि यह कमेटी मौजूदा तीनों कृषि कानून की खामियों खूबियों की पड़ताल के लिए गठित की गयी है तो, यह कसरत सरकार और कमेटी के बीच है। अब निम्न बिंदुओं को पढ़िये।

यदि यह कमेटी किसान संगठनों को समझाने और कानूनों पर राय बनाने के लिये गठित की गयी है, तो सरकार के तीन मंत्री पिछले 50 दिन से इन कानूनों पर किसानों को समझा ही तो रहे हैं। अभी भी वार्ता की अगली तारीख 15 जनवरी पड़ी ही है।

यह कमेटी सरकारी वार्ताकारों से न तो कानूनी रूप से अधिक सक्षम है और न ही समर्थ।

कानूनी रूप से इस कमेटी की कोई हैसियत नहीं है। कानून को वापस लेने में केवल सरकार ही समर्थ और सक्षम है, और उसकी संवैधानिक स्थिति पर विचार करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय खुद शक्ति सम्पन्न है।

यह कमेटी न तो इस कानून में कोई रद्दोबदल करने के लिये अधिकृत है, न ही सरकार को कोई बाध्यकारी सुझाव देने के लिये भी सक्षम है।

यह कमेटी सर्वोच्च न्यायालय का एक प्रयास है जिसके माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय क्या जानना चाहता है, यह तो सर्वोच्च न्यायालय जाने, पर ऐसी किसी कमेटी की मांग न तो किसान संगठनों ने किया था, और न ही सरकार ने कोई ऐसा प्रस्ताव दिया था। आंदोलन करने वाले किसान संगठन तो सर्वोच्च न्यायालय में दायर इस याचिका के कोई पार्टी भी नहीं है।

फिलहाल, जो मंत्रीगण, किसान संगठन से बातचीत कर रहे हैं वे इस कमेटी के सदस्यों की तुलना में, इस समस्या के समाधान हेतु अधिक सक्षम, और समर्थ हैं।

अंत में सभी संभावित विचार विमर्श के बाद, यह कमेटी अपनी रिपोर्ट किसे देगी ? सरकार को या सर्वोच्च न्यायालय को ?

क्या कमेटी कानून की संवैधानिक स्थिति पर कोई टिप्पणी करने के लिये सक्षम है ?

बिल्कुल नहीं।

कमेटी फिर कानून के लाभ गिनायेगी, क्योंकि कमेटी में वे ही लोग हैं जो इन कानूनों के पक्ष में लंबे समय से लेख लिख रहे थे, और सरकार के साथ थे। फिर ऐसे लोगों से किसान संगठन क्या उम्मीद करें।

सर्वोच्च न्यायालय ने इन कानूनों को स्टे कर दिया है। इस निषेधाज्ञा पर भी सवाल उठ रहे हैं और यह सवाल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पिछले कुछ सालों से उसके द्वारा दिये गए फैसलों के काऱण उठ रहे है। अब कुछ महत्वपूर्ण संशयों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट स्टे हुआ, फिर दस दिन में रोक हट गयी।

ऐसे तमाशे यह बताते हैं कि स्टे की क्या मियाद होती है और स्टे कैसे अचानक हटा दिया जाता है। सरकार के दबाव में हटाया गया या विधिसम्मत सुनवाई करके ?

सर्वोच्च न्यायालय को यह नाम किसने दिए हैं ? जाहिर है, किसी ने यह नाम सुझाये ही होंगे। अदालत उभय पक्ष से ही नाम, विकल्प और कानून सुझाने के लिये कहती है। यदि यह नाम सरकार ने सुझाये हैं तो सर्वोच्च न्यायालय ने आंदोलनकारी किसानों से क्यों नही इन पर उनकी राय मांगी ?

ज़ाहिर है, रोक लगाने के साथ एक मनमाफिक कमेटी के गठन के लिये यह सारी कवायद की गयी है। इन सबसे सर्वोच्च न्यायालय के बारे में यह शक और पुख्ता हुआ कि वह कहीं न कहीं से दबाव में है। यह स्थिति न्यायपालिका के लिये दुःखद है।

कमेटी किस एजेंडे पर बात करेगी ?

वह एजेंडा किसने तय किया है, सर्वोच्च न्यायालय ने या सरकार ने ?

तीन मंत्री तो पचास दिन से किसानों से बात कर ही रहे हैं तो फिर अविशेषज्ञों की कमेटी क्या मंत्रीगण से अधिक शक्तिशाली है ?

क्या कमेटी क्या संसद से ऊपर है ?

यह अपनी रिपोर्ट किसे देगी ?

इस कमेटी के रिपोर्ट की क्या वैधानिकता रहेगी।

अगर यह सब स्पष्ट नहीं है तो यह सारी कसरत इस किसान आंदोलन जो येन केन प्रकारेण खत्म कराने की ही है।

कानून यह कह कर लाया जा रहा है कि इससे किसानों की आय बढ़ेगी और वह खुशहाल होंगे। पर कंपनियां कॉरपोरेट की बढ़ रही हैं। खुशहाल कॉरपोरेट हो रहे हैं। कानून एग्रीकल्चर ट्रेड पर बन रहा है। नाम किसानों और कृषि सुधार का लिया जा रहा है ! सरकार कह रही है कि यह आंदोलन, पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के किसानों का है। कमेटी में आंदोलनरत किसान संगठनों से जुड़े और इन राज्यों से कितने लोग हैं ?

पिछली सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय ने एक नाम सुझाया था, पी साईंनाथ का। क्या इस बार यह नाम सर्वोच्च न्यायालय की प्रस्तावित कमेटी में है ? जी नहीं

ऐसी कमेटी में पी साईनाथ और डॉ देवेंद्र शर्मा का नाम तो कम से कम होना ही चाहिए था। यह दोनों अपने अपने विषय के एक्सपर्ट हैं। उनके नाम का उल्लेख करने के बावजूद पी साईंनाथ का नाम क्यों नहीं कमेटी में रखा गया ?

अब यह शक और पुख्ता होता जा रहा है कि, अंतत: सर्वोच्च न्यायालय ने वही किया जो सरकार चाहती है। नए कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगाने का अर्थ है कि एक न एक दिन रोक हटा ली जाएगी। अदालत ने यह कहा भी है कि, यह रोक अनंतकाल के लिए नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय के हाल के कुछ फैसले जिनसे यह संदेह उपजता है कि अदालत का रुख सरकार की तरफ नरम है।

सेंट्रल विस्टा पर रोक तो लगी, पर भूमिपूजन को अनुमति दी गयी। फिर अचानक, सेंट्रल विस्टा के निर्माण पर भी अनुमति दे दी गयी। हालांकि एक जज ने बेच के अलग डिसेंटिंग दृष्टिकोण दिया था। लेकिन दिल्ली का पर्यावरण, लैंडस्केप, स्वरूप बदलने वाले इस हेरिटेज विरोधी योजना पर न तो पर्याप्त विचार विमर्श किया गया, न स्वरूप के बदलाव पर जनता या अन्य एक्सपर्ट से कोई राय बात की गयी। यह सब पेचीदगियां, सर्वोच्च न्यायालय को या तो दिखी नहीं, या उन्होंने देखा नहीं या इन सब के विस्तार में जाने की उन्होंने ज़रूरत ही नहीं समझी।

नोटबंदी पर याचिका अब तक लंबित है। लगभग 150 लोग मर गए। उनके खून के छींटे किनके दामन पर चस्पा किए जाएं, यह सब अभी तय नहीं।

नागरिकता सीएए कानून की संवैधानिकता पर भी अभी तक सर्वोच्च न्यायालय ने कोई निर्णय नहीं दिया। अब तक कितनी मंथर गति से सुनवाई चल रही है यह कभी-कभी अखबारों में आ जाता है तो लगता है, अरे यह भी एक मुकदमा है।

अनुच्छेद 370 पर हुए संविधान संशोधन को भी अदालत में चुनौती दी गयी है। उसकी संवैधानिकता पर भी सवाल उठा है। सुनवाई अभी भी लंबित है।

जम्मू कश्मीर में नेट सुविधा, लगातार कर्फ्यू और निषेधाज्ञा के चलते महत्वपूर्ण अखबार भी सर्वोच्च न्यायालय में अपनी बात लेकर गए। अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात भी उठी। पर आज तक कई मौसम बदल गए पर सुनवाई में कोई प्रगति नहीं। आज भी जम्मू कश्मीर में 2 जी नेट की सुविधा ही है।

लंबे समय तक वहां के नेता जेलों में निरूद्ध रहे। उनकी भी याचिकायें लंबित रही। अर्णब गोस्वामी के मामले में निजी आज़ादी के प्रति सचेत और सजगता पर सुभषित सुनाने वाली सुप्रीम अदालत ने इन याचिकाओं पर खामोशी अख्तियार कर रखा है।

सुबूत के बावजूद, जज लोया की संदिग्ध मृत्यु की जांच का आदेश न देना और बिना किसी जांच पड़ताल या विवेचना के ही केवल कुछ साथी जजों के बयान पर यह कह देना कि, जज झूठ नहीं बोल सकते हैं और किसी जांच की आवश्यकता नहीं है, यह अब तक का सबसे अनोखा फैसला होगा। बिना जांच के ही अपराध के निष्कर्ष पर पहुंच जाना एक घातक नजीर भी हो सकती है।

राफेल घोटाला में, सौदे की शर्तों को बदलने, ऑफसेट ठेके में फेरबदल करने, एचएएल को बाहर करने, अनिल अम्बानी जो लन्दन में दिवालिया और एसबीआई के रिकॉर्ड में फ्रॉड घोषित हैं को ठेका दिलाने, राफेल सौदे में सॉवरेन गारंटी का उल्लेख तक नहीं करने, 128 जहाज से 32 जहाज पर आ जाने, और इन सब सुबूतों को जब सीबीआई प्रमुख को सौंपा गया तो आनन फानन में सीबीआई प्रमुख को ही बदल देने के तमाम पुष्ट अपुष्ट आरोपों के बावजूद किसी भी तरह की जांच से इनकार कर देने से यह संदेह स्वाभाविक रूप से सर्वोच्च न्यायालय की तरफ उठता है कि आखिर वह इन सब की प्रारंभिक जांच तक कराने के लिये अदालत राजी क्यों नहीं हुयी ?

लॉक डाउन में सड़क पर घिसटते प्रवासी मज़दूर सर्वोच्च न्यायालय को तब दिखे, जब सोशल मीडिया पर शोर मचा।

सरकार ने कहा कि, सड़क पर कोई नहीं है और अदालत ने इसे मान भी लिया। इस दुःखद कुप्रबंधन पर न तो सरकार ने कुछ किया और न ही सर्वोच्च न्यायालय ने।

उपरोक्त सारे उदाहरण आज जब किसान आंदोलन के इस मोड़ पर जब सर्वोच्च न्यायालय ने एक कमेटी के गठन का निर्णय दिया है तो बरबस याद आ जाते हैं। संस्थाएं अपने स्थापत्य की उत्तुंगता के प्रभुत्व और फैसले के शब्दजाल या संस्थान में बैठे हुए महानुभावों के बौद्धिक क्षमता से महान नहीं बनती हैं। संस्थाएं, महान बनती हैं जनहित में उनके द्वारा उठाये गए कदमों से और किसी भी विवाद पर न्यायपूर्ण आदेश से। सरकार की मजबूरी हो सकती है कि वह कुछ फैसलों को अपनी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित होकर ले ले, क्योंकि पर एक विचारधारा की वाहक होती है, पर संविधान के अनुच्छेद 142 में प्रदत्त अधिकारों से असीम शक्ति सम्पन्न सर्वोच्च न्यायालय की ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती है। मानवीय कमज़ोरियों की बात मैं नहीं कर रहा हूँ।

सरकार को चाहिए कि सरकार एक अध्यादेश ला कर यह कानून निरस्त करे। कृषि सुधार के लिये अलग से कानून लाये और किसान संगठन तथा आम जनता और कृषि विशेषज्ञों से राय मांगे और फिर स्टैंडिंग कमेटी में उसके परीक्षण के बाद संसद में बहस हो और तब कानून बने।

सरकार को चाहिए था कि सर्वदलीय बैठक, राज्यो के मुख्यमंत्री और किसान संगठन के नेताओं से बात कर के इस जटिल समस्या को हल करे।

विजय शंकर सिंह (Vijay Shanker Singh) लेखक अवकाशप्राप्त आईपीएस अफसर हैं
विजय शंकर सिंह (Vijay Shanker Singh) लेखक अवकाशप्राप्त आईपीएस अफसर हैं

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