संप्रभु-लोकतांत्रिक भारतीय गणतंत्र 26 जनवरी, 1950 को एक ऐतिहासिक संविधान के साथ अस्तित्व में आया, जिसकी प्रस्तावना में दृढ़ प्रतिबद्धता के साथ यह घोषणा की गई थी कि “न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा, उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाले बंधुत्व को बढ़ाने…" के लिए गणतंत्र काम करेगा।
इस गणतंत्र की 5 अगस्त, 2020 को अयोध्या में बड़े धूमधाम के साथ सार्वजनिक रूप से बलि दी जा रही है। यह मुद्दा उस जगह पर एक भव्य राम मंदिर
अयोध्या में मंदिर के निर्माण की यह जल्दबाज़ी भारतीय लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए एक गंभीर चुनौती है, बल्कि 5 अगस्त को अयोध्या में और अधिक ख़तरनाक तमाशा होगा, जब मुख्य अतिथि के रूप में आरएसएस के प्रमुख
अयोध्या समारोह को भारतीय गणराज्य का ‘वध’ समारोह (एक ब्राह्मणवादी अनुष्ठान) कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, जैसा कि निम्नलिखित तथ्यों से सामने आनेवाला है। जब प्रधानमंत्री मोदी अयोध्या में आरएसएस प्रमुख भागवत की मौजूदगी में भूमि पूजन करेंगे, तो वे जानबूझकर आख़िरी बार 2019 में पद ग्रहण करते हुए ली गई शपथ का उल्लंघन कर रहे होंगे, क्योंकि आरएसएस भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष ढांचे का पैदाईशी दुश्मन है। 2014 और 2019 में प्रधानमंत्री के रूप में पद संभालने के लिए मोदी ने संविधान में निर्धारित यह शपथ ली थी:
“मैं नरेन्द्र भाई मोदी भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा। मैं भारत की संप्रभुता एवं अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा। मैं श्रद्धापूर्वक एवं शुद्ध अंतरण से अपने पद के दायित्वों का निर्वहन करूंगा। मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूंगा।"
इस प्रकार प्रधानमंत्री देश के प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं जिसकी कई बार व्याख्या करते हुए सर्वोच्च अदालत ने निम्नलिखित तत्व गिनवाए हैं : संप्रभुता, लोकतांत्रिक और राजनीति का धर्मनिरपेक्ष चरित्र, क़ानून का शासन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, नागरिकों के मौलिक अधिकार। अदालत ने इन्हें संविधान का 'बुनियादी ढांचा' बताया है। प्रधानमंत्री मोदी की इस प्रतिबद्धता की तुलना आरएसएस के सदस्य की शपथ के साथ की जानी चाहिए जहाँ प्रत्येक आरएसएस सदस्य जो केवल ‘हिंदू धर्म, हिंदू समाज और हिंदू संस्कृति’के लिए काम करने के लिए प्रतिबद्ध है, आरएसएस में ली जाने वाली शपथ के अनुसार:
"सर्वशक्तिमान् श्री परमेश्वर तथा अपने पूर्वजों का स्मरण कर मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि अपने पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू समाज का संरक्षण कर हिन्दू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए मैं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का घटक बना हूं। संघ का कार्य मैं प्रामाणिकता से, निःस्वार्थ बुद्धि से तथा तन, मन, धन पूर्वक करूंगा और इस व्रत का मैं आजन्म पालन करूंगा। भारत माता की जय।"
भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर, 1949 को भारत के संविधान को अंतिम रूप दिया, तो आरएसएस खुश नहीं था। इसके मुखपत्र ‘आर्गनाइज़र’ ने, 30 नवंबर, 1949 को अपने एक संपादकीय में शिकायत की:
“हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’ में उल्लिखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम-पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।”
“हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों में से लिए गए विभिन्न अनुच्छेदों का एक भारी-भरकम तथा बेमेल अंशों का संग्रह मात्र है। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जिसको कि हम अपना कह सकें। उसके निर्देशक सिद्धान्तों में क्या एक भी शब्द इस संदर्भ में दिया है कि हमारा राष्ट्रीय-जीवनोद्देश्य तथा हमारे जीवन का मूल स्वर क्या है? नहीं।”
जब भारत ने आज़ादी का सफ़र एक लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के तौर पर करने का फैसला किया तो सावरकर के नक़्शेक़दम पर चलते हुए आरएसएस इस विचार को ही पूरे तौर पर ख़ारिज कर दिया कि हिंदू और मुस्लिम और अन्य धार्मिक समुदायों ने मिलकर एक राष्ट्र का गठन किया है।
“राष्ट्रत्व की छद्म धारणाओं से गुमराह होने से हमें बचना चाहिए। बहुत सारे दिमाग़ी भ्रम और वर्तमान एवं भविष्य की परेशानियों को दूर किया जा सकता है अगर हम इस आसान तथ्य को स्वीकारें कि हिंदुस्थान में सिर्फ हिंदू ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं और राष्ट्र का ढांचा उसी सुरक्षित और उपयुक्त बुनियाद पर खड़ा किया जाना चाहिए...स्वयं राष्ट्र को हिंदुओं द्वारा हिंदू परम्पराओं, संस्कृति, विचारों और आकांक्षाओं के आधार पर ही गठित किया जाना चाहिए।”
इसी अंक में आरएसएस के मुखपत्र ने राष्ट्रीय ध्वज (जिसे प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सम्मान दिया जाता है) की निम्न शब्दों में भर्त्सना की:
"वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेय होगा।"
लोकतंत्र के सिद्धाँतों के विपरीत, आरएसएस लगातार भारत को एक अधिनायकवादी शासन के तहत करने की माँग कर रहा है। गोलवलकर ने 1940 में आरएसएस के 1350 शीर्ष स्तर के कैडरों के सामने आरएसएस मुख्यालय में भाषण देते हुए घोषणा की,
"एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्जवलित कर रहा है।"
स्वतंत्र भारत के इतिहास में देश के किसी प्रधान मंत्री ने आरएसएस के साथ मिलकर ऐसा घिनौना कृत्य कभी नहीं किया। अयोध्या में मंदिर, जो बज़ाहिर, मुस्लिमों द्वारा पुराने समय में की गई ‘ग़लती’ को सुधारने के रूप में मनाया जा रहा है (यहाँ यह याद रखना मुनासिब होगा कि गोस्वामी तुलसीदास-1522-1623, जिन्हों ने रामचरितमानस अवधी में लिखकर राम को भगवन के रूप में घर घर पहुँचा दिया, उन्हों ने भी अपनी इस यादगार कृति में जो उन्हों ने 1575-1576 में लिखी, कहीं भी इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि 1538-1539 में बनी बाबरी मस्जिद को राम जन्मभूमि पर किसी मंदिर को तोड़ कर बनाया गया था), लेकिन वास्तविकता यह है कि ‘हिंदू राष्ट्रवादी’इस अवसर का उपयोग भारतीय गणराज्य को मौत के घाट उतारने के लिए कर रहे हैं।
शम्सुल इस्लाम
अगस्त 5, 2020