इस वर्ष अक्तूबर में बिहार विधान सभा का चुनाव होगा। कई दल और “फ्रंट” अपने-अपने लुभावने वादे, घोषणा पत्र, आदि लेकर आपके सामने आयेंगे और आने लगे हैं. बहुत सारे “जरूरी”, बे-मानी वायदे किये जायेंगे, सपने दिखाएँ जायेंगे, जो कभी भी पूरे नहीं हो सकते। विकास, देश, पाकिस्तान, चीन, धर्म, जाति, व्यक्ति विशेष, क्षेत्र, लिंग, विश्व गुरू, आदि-आदि के नाम से आपका वोट माँगेंगे। भाजपा के तरफ से तो अमित शाह का “वर्चुअल रैली” हुआ, जिसमें लाखों करोड़ों खर्च हुए, जब कि प्रवासी मजदूरों, खासकर जो बिहार लौट चुके हैं और दयनीय स्थिति में हैं, के लिए कोई भी मदद, सरकार की तरफ से, सामने नहीं आया है।
सत्ता में कोई भी आये, हमेशा से धोखा मेहनतकश आवाम को ही मिलता है। चुनाव के दौरान निम्नतम स्तर का भाषा, व्यवहार, नारा, आपराधिक काम तक होते हैं, जो इस बार दिल्ली के चुनाव में दिखा। अरबों-खरबों रुपये पानी की तरह “निवेश” किये जाते हैं। चुनाव ख़त्म होते ही, अगर कोई एक पार्टी बहुमत में ना हो तो “कानून बनाने वालों” की खरीद फरोख्त तो आलू-प्याज या मछली के खरीद फरोख्त से भी भद्दे स्तर का होता है। यह बात हमें पिछले महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में भी दिखा। इसके पहले बिहार, गोवा और अब मध्य प्रदेश के उदाहरण सामने हैं। यानी हमारे वोट का मतलब सत्ता और पैसे के लालची, धोखेबाज, मौकापरस्त और बड़े पूंजीपतियों के “मैनेजर” एमएलए, एमपी शून्य कर देते हैं।
कोरोना वायरस महामारी और फिर बिना किसी योजना के और देर से लॉकडाउन जनता के ऊपर थोप दिया
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और सरकार ने प्रवासी मजदूरों को वापस लेने से इनकार कर दिया था। पर जब कोई चारा नहीं बचा तो उन्हें क्वारंटाइन किया, जहाँ बदइन्तजामी हर जगह दिख रही है। सामाजिक दूरी (सोशल डिसटेंसिंग) का मजाक ही बना दिया गया। टेस्टिंग और इलाज की तो बात ही नहीं करें, डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मचारियों के पास भी ढंग के सामान नहीं हैं।
बेरोजगारी करीब 30% तक पहुँच चुकी है, जो स्वतंत्रता के बाद सबसे ज्यादा है। जीडीपी 3.4% तक गिर चुकी है, जो कि अगर पिछले पैमाने से गणना करें तो आधा ही रह जायेगी, जो 1.7% होगी। ध्यान रखें, इस गणना में अनौपचारिक क्षेत्र शामिल नहीं है, जिसमें जीडीपी का 25-40% तक होता है। अगर इसे जोड़ा जाए तो जीडीपी 0% या इससे भी नीचे चले जायेगी। यानी हम आर्थिक मंदी में हैं!
एक सर्वेक्षण और अनुमान के आधार पर, विश्व बैंक ने दावा किया है कि भारत की अर्थ व्यवस्था 10% तक संकुचित हो सकती है।
औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र को नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद जबरदस्त झटका लगा था और इसमें तक़रीबन 3 करोड़ मजदूर बेरोजगार हो गए थे, जो अब 22 करोड़ से ज्यादा हो गया है, जिन्हें पुनः स्थापित करने की कोई चर्चा नहीं है। 20 लाख करोड़ की कहानी को दुहराने की जरूरत नहीं है, इसके बन्दर बाँट की कहानी पाठकों को पता होगा।
देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, क़ानूनी स्थिति बहुत ही ख़राब है। इस सब में मेहनतकश स्त्रियाँ, चाहे किसी भी धर्म या जाति के हों, घर में या फिर घर से बाहर काम करने वाली हों, के हालत बदतर हैं। पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता कानून (कई रूपों में: NRC, CAA, NPR), और बढ़ते आर्थिक कठिनाइयों के खिलाफ जबरदस्त आन्दोलन चल रहे थे, जिसमें महिलाएं आगे बढ़ कर भाग ले रही थीं। शाहीन बाग के तर्ज पर देश भर में 500 से अधिक केंद्र सक्रिय थे और एक विशाल जन सवग्या आन्दोलन का रूप ले चुका था। पर अब ये आन्दोलन स्थगित किये गए हैं, पर ट्रेड यूनियन और वाम पंथी दलों द्वारा आन्दोलन, सीमित संख्या में ही हो, जन आक्रोश को संगठित करने की कोशिश कर रहे हैं। बिहार इसमें अग्रणी है; 1975-77 आन्दोलन में तो बिहार अग्रणी था।
मेहनतकश और प्रताड़ित जनता की आवाज को कोई भी सुनने को तैयार नहीं है, चाहे वह सरकार हो, या मीडिया और न्यायालय हो। पुलिस और राज्य प्रायोजित हिंसा भी बढ़ रहा है। विरोध के स्वर को पाकिस्तानी या फिर देश द्रोही कह कर दबाया जा रहा है। कोरोना वायरस का जिम्मा तब्लीगी जमात पर थोप दिया गया। पुलिस द्वारा अकारण छात्रों और महिलाओं तक को बेरहमी से मारा जा रहा है। विरोधियों के खिलाफ “राष्ट्रीय सुरक्षा कानून” तो ऐसे लगाया जा रहा है, जैसे चोर-सिपाही का खेल चल रहा हो और पकड़े जाने पर “जेल” में डाल दिया जाता है। पर यहाँ का जेल वास्तविक है, जहाँ हर मानवीय सुविधाएँ और संवेदनाएं समाप्त हो जाती हैं और 2 साल तक बिना किसी सुनवाई के अन्दर रहना पड़ सकता है। कोर्ट भी जमानत देने के नाम पर आनाकानी कर रहे हैं, जबकि आरएसएस के सदस्यों को खुलेआम गुंडागर्दी करने और भड़काऊ भाषण देने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, और यदि हुआ भी तो जमानत शीघ्र ही मिल जाता है, और ऍफ़आईआर तक को ख़ारिज कर दिया जाता है।
यह तो स्पष्ट है कि चुनाव के द्वारा हम इस तानाशाही या संघवाद का खात्मा नहीं कर सकते हैं, जिसका इलाज सिर्फ और सिर्फ जन क्रांति ही है। पर क्या हम जन क्रांति के आगमन का इन्तजार करें (तैयारी तो हर क्रान्तिकारी दल करते ही हैं और हम भी कर रहे हैं)? या फिर, जो भी संभावनाएं बनती हों, हम उसका उपयोग करें और शामिल हों? यह सब को सोचना होगा, खासकर प्रगतिशील, धर्म निरपेक्ष, फासीवाद विरोधी और क्रन्तिकारी शक्तियों को। चुनाव एक अवसर है, हमारे लिए एकता और संघर्ष को आगे बढ़ने के लिए, प्रतिरोध को तीव्र करने के लिए।
बिहार चुनाव एक अवसर है, बिहारवासियों के लिए, उनके विचार जानने का और एक संवाद स्थापित करने का। बिहार के मजदूर वर्ग और छोटे, मझोले और गरीब किसानों के साथ काम करने का। क्या हम उस बिहार के तर्ज पर काम कर सकते हैं, जो हमें 1975-77 के आन्दोलन में दिखा था और हमने कांग्रेस और इमरजेंसी को ध्वस्त कर दिया था? इस प्रदेश में, आन्दोलन और परिवर्तन करने का इतिहास रहा है और यहाँ के विद्यार्थी, युवक और युवतियां, मजदूर और किसान, मेहनतकश औरतें आधुनिक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से शिक्षित हैं। पिछले कई विधान सभा के चुनाव में हमने संघवाद को हराया है।
हमारी तैयारी अभी से शुरू हो चुकी है। अधिक से अधिक संख्या में जुड़कर इस मुहिम को तेज करें। सांप्रदायिक, तानाशाही ताकतों को ध्वस्त करें। अल्पसंख्यक और महिला विरोधी, विज्ञान विरोधी, जनता विरोधी ताकतों को ध्वस्त करें। बिहार में भाजपा, जेडीयु की सरकार को ख़ारिज करें। यह अवसर है बिहारवासियों के लिए, फासीवाद को ध्वस्त करें और मार्ग दर्शन का काम करें पूरे देश के लिए!
एनआरसी, सीएए, एनपीआर ख़ारिज करो!
विस्थापित मजदूरों को 100% रोजगार मुहैया करो!
अंध विश्वास फैलाना बंद करो!
महिला सुरक्षा कानून अमल करो!
Gp Capt Krishna Kant