बंगाल और ओडिशा के हर जिले में आता जाता रहा हूँ। वैसे भी ओडिशा के बालेश्वर जिले के बारीपदा में मेरा ननिहाल है। बंगाल में 27 साल रहा तो झारखंड में चार साल। झारखण्ड में भी गांव-गांव, जंगल-जंगल जाना होता था। खासकर कोयला खान इलाकों में। झारखण्ड और बंगाल की कोयला खानों से मैं हमेशा के लिए आदिवासी बन गया।
इस पूरे भूगोल और सीमा पार बांग्लादेश और आंध्र में रहने वाले तमाम लोगों, जिनमें असंख्य मेरे परिचित और आत्मीय हैं, को कोरोना काल में आने वाले सुपर साइक्लोन अम्फान की वजह से होने बाली दिक्कतों के लिए बहुत फिक्र हो रही है।
1999 के सुपर साइक्लोन से प्रभावित पारादीप और केंद्रपाड़ा के गांवों को भी देखा है, जहां नोआखाली के दंगापीड़ितों को बसाया गया और 2003 के नागरिकता कानून के तहत जिन लोगों को सबसे पहले घुसपैठिया कहकर डिपोर्ट किया जा रहा था।
शरणार्थी गांव भितरकनिका महारण्य के महाकाल पाड़ा आदिवासी इलाके में 1950 से पहले बसाया गया था। इन्हीं लोगों के साथ बसंतीपुर के लोग कटक के रिफ्यूजी कैम्प में थे। जहां से 1952 में पंडित गोविन्दबल्लभ पन्त जी ने उन्हें तराई के जंगल में बसाया।
महाकाल पाड़ा एकदम समुद्र की गोद में है, समझिए।
इसी तरह चिल्का, बालेश्वर, पुरी, भद्रक जिले भी समुद्र की गोद में हैं, जहां शरणार्थी बसाए गए हैं।
पूर्व और पश्चिम मेदिनीपुर और पूरा जंगलमहल, दीघा, कांथी के साथ उत्तर और दक्षिण 24 परगना के सागर द्वीप गंगासागर, मरीचझांपी, नाखाना, बक्खाली, फ्रेजरगंज, गॉसाबा, झड़खाली, सन्देशखाली, हास्नाबद जैसे सैकड़ो द्वीपों के लाखों लोगों को जानमाल का खतरा है।
इस बार कोलकाता को भी खतरा है जो हमेशा हर तूफान से सिर्फ इसलिए बच जाता है कि सुंदरवन तूफान को या बांग्लादेश, या आंध्र ओडिशा की तरफ मोड़ देता है। वहां भारी तबाही होती है और कोलकाता बच जाता है।
कोलकाता में 1973 में हाईस्कूल फर्स्ट डिवीजन पास
1980 में धनबाद पहुँचने पर कोलकाता से जो रिश्ता बना, शायद वह 2017 में टूट गया। लेकिन अपने लोगों को तकलीफ में देखकर कौन दुखी हुए बिना रह सकता है।
करीब 40 साल उत्तराखण्ड से बाहर रहने के दौरान यहां के लोगों के सुख दुख के हर पल में शामिल रहा हूँ। भूकम्प, भूस्खलन, बाढ़ और हर आपदा में दिलोदिमाग लहूलुहान होता रहा है।
कोलकाता छोड़ा तो क्या दर्द का रिश्ता तो बना ही हुआ है। इसी तरह मुंबई, पुणे, नागपुर और महाराष्ट्र के हर जिले, छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों, गुजरात के कच्छ, कर्नाटक के गांवों, त्रिपुरा, असम, बिहार के हर इलाके से जुड़े होने की वजह से बार-बार लहूलुहान होता हूँ।
अभी देश में आपदा प्रबंधन और आपदा चेतना नाम की कोई चीज नहीं है।
प्रकृति और पर्यावरण की ऐसी-तैसी कर दी गयी।
सुंदरवन हो या हिमालय, जंगल कटते रहे।
पहाड़ बार-बार इसकी कीमत चुकाता रहा है।
इस बार शायद कोलकाता को सबसे बड़ी कीमत चुकानी पड़े।
यह तो अम्फान की बात है। फिर अम्फान के बाद भी सायक्लोन और सुपर साइक्लोन आते रहेंगे। भूकम्प और महामारियों की भी वापसी होती रहेगी। बाढ़, सूखा, अकाल, भूस्खलन का सिलसिला जारी रहेगा।
हम रहें या न रहें, इस देश के सारे प्राकृतिक संसाधन निजी हाथों में मुनाफे और दोहन के लिए देने के बाद कितना बचा रहेगा हिमालय, कितने बच पाएंगे आदिवासी, उनका इतिहास और भूगोल, उनके साथ देश भर में बसाए गए शरणार्थी?
ये सवाल मुझे परेशान करते हैं
और आपको?
पलाश विश्वास