भारत विकास की कैसी राह पर चल पड़ा है, इसकी व्याख्या इस एक वाक्य से की जा सकती है कि देश का पेट भरने वाले अन्नदाता किसान सोमवार को एक दिन के उपवास पर रहे। 2014 में सत्ता संभालने से पहले जब यूपीए सरकार की नीतियों (UPA Government Policies) को महापाप की तरह भाजपा प्रचारित करती थी, तब मोदीजी ने कठोर तंज कसा था कि जय जवान, जय किसान की जगह यूपीए सरकार में मर जवान, मर किसान का नारा बन गया है। आज उनकी सरकार के छह बरसों में देश के जवान और किसान दोनों के हालात कुछ ऐसे ही हैं। दोनों के नाम पर राजनैतिक लाभ लेने की कोशिश भाजपा ने भरपूर की। उसके राष्ट्रवाद को पोषण जवानों की वीरता और किसानों की मेहनत के बूते मिलता रहा। लेकिन बदले में सरकार ने न अपने जवानों की कद्र की, न किसानों का सम्मान रखा।
दिल्ली की सीमाओं पर कड़कती ठंड में पिछले 19 दिनों से
बेहतर होता अगर प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री देश के बड़े उद्योगपतियों, व्यापारियों के बीच ऐसा दावा करने की जगह किसानों के बीच पहुंचकर यह कहने की हिम्मत दिखाते कि हमने जो कानून बनाए हैं, वो आपके हित में हैं। वैसे भी किसान कोई अबोध बालक तो नहीं हैं, जिन्हें उनका अच्छा-बुरा कोई और बतलाए। कड़ी धूप से लेकर भारी वर्षा और ठिठुराती सर्दी में जो दिन-रात खेतों में गुजारते हैं, उसे ज्यादा जीवन का पाठ कोई और नहीं जानता है। लेकिन सर्वशक्तिमान होने का दंभ भरने वाली सरकार इन किसानों को सबक सिखाने पर उतर आई है।
देश के अनेक प्राकृतिक संसाधन, सार्वजनिक निकाय, दूरसंचार, रेलवे, विमानन, कोयला, तेल, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य, हर जगह तो कार्पोरेट को मुनाफा कमाने के भरपूर अवसर इस सरकार ने दे दिए। इसलिए कुछ उद्योगपतियों की आमदनी छह सालों में कई गुना बढ़ गई और वे फोर्ब्स की सूची में छाने लगे। बस खेती में मनमानी कमाई के मौके नहीं मिल पा रहे थे, तो इस सरकार ने यह सुविधा भी उद्योगपतियों के लिए मुहैया करा दी। न्यूनतम समर्थन मूल्य- Minimum Support Price (एमएसपी) या कर्ज माफी या सब्सिडी की मांग तो किसानों ने कई मौकों पर उठाई है, कई बार इन मुद्दों पर आंदोलन भी हुए हैं। लेकिन इस बार लड़ाई किसानों और सरकार की नहीं बल्कि भारत के लोकतंत्र और पूंजीवाद के बीच है। सरकार मंडी व्यवस्था को दोषपूर्ण बताते हुए इसे खत्म करने पर तुली है। सरकार भूल गई है कि घर की छत से अगर पानी टपकता हो तो उस खामी को नए उपायों से दुरुस्त किया जाता है, न कि छत हटा दी जाती है।
गौरतलब है कि कृषि उपज मंडियों का सबसे जरूरी काम होता है कृषि उपज का दाम तय करना (Fixing the price of agricultural produce) और इस बात की निगरानी करना कि कृषि सामग्री का तय दामों में ही व्यापार हो। मंडियों का संचालन किसानों के चुने हुए प्रतिनिधि ही करते हैं, हालांकि इसमें अक्सर जाति और धन से वर्चस्व वाले लोग ही चुने जाते हैं, लेकिन वे ज्यादातर स्थानीय होते हैं और अपने क्षेत्र के किसानों के हितों की रक्षा करने में समर्थ होते हैं। कई बार वे छोटे किसानों को आर्थिक सहायता करते हैं, किसानों और व्यापारियों के बीच किसी किस्म का विवाद या झगड़ा हो तो उसे वहीं सुलझाने के लिए आगे आते हैं। इस तरह मंडियां गांवों के लिए केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक-राजनीतिक शक्ति-केंद्र के रूप में विकसित हुई हैं।
नए कानूनों से मोदी सरकार अपनी ही बनाई ई-नाम योजना पर भी कैंची चला रही है। ज्ञात हो कि यह योजना देश की सारी मंडियों को डिजिटली जोड़ने की थी, ताकि किसान ऑनलाइन व्यापार कर सकें।
देश की कुल 7000 एपीएमसी मंडियों में से 1000 को मई 2020 तक 21 राज्यों में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से जोड़ा गया। मोदी सरकार का दावा था कि डिजिटल कनेक्टिविटी से मंडियों के लेन-देन 65 प्रतिशत बढ़े हैं। लेकिन जब एपीएमसी ही खत्म हो रहे हैं, ई-नाम योजना का क्या होगा? औद्योगिक घराने तो अपने ई-ट्रेडिंग प्लेटफार्म चला सकते हैं लेकिन आम किसानों के पास कौन सा साझा ई-ट्रेडिंग प्लेटफार्म होगा जिसके जरिए वे देश भर के संभावित खरीददारों से संपर्क कर सकेंगे?
मोदी सरकार के दावों और योजनाओं का खोखलापन लगातार सामने आ रहा है। नोटबंदी से लेकर जीएसटी और अब नए कृषि कानूनों तक सरकार को बार-बार सफाई देना पड़ता है कि कैसे वह जनता के लिए काम करती है। जबकि हकीकत क्या है ये लगातार होते आंदोलन दिखला रहे हैं। किसानों के उपवास पर जिस सरकार को शर्मिंदगी न महसूस हो, वो कैसे काम कर रही है, यह समझना कठिन नहीं है।