मथुरा के इतिहास की चर्चा चौबों के बिना संभव नहीं है। ऐतिहासिक तौर पर इस जाति ने यहां के माहौल, परंपरा, इतिहास, संस्कृति आदि के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
पैदाइशी चौबे कैसे होते हैं ॽ ऐतिहासिक तौर पर उनकी क्या भूमिका रही है, इसके बारे में तथ्यों को खासतौर पर समझने की कोशिश की जानी चाहिए।
आमतौर पर चौबे का जो अर्थ लिया जाता है उससे भिन्न अर्थ में उनको देखने की जरूरत है। मसलन् धर्मनिरपेक्ष परंपराओं और साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रतीक के रूप में इस जाति की भूमिका को नए सिरे से व्याख्यायित करने की जरूरत है।
यह सच है कि आजकल चौबों में एक बहुत छोटा वर्ग है जो पंडागिरी- पुरोहिताई करता है। जबकि बृहत्तर चौबे समाज विभिन्न किस्म के पेशों में कार्यरत है। इनमें चार्टर्ड एकाउंटेंट ले लेकर परिवहन क्षेत्र, कारखानेदार से लेकर दुबई में काम करने वाले सैंकड़ों चतुर्वेदी मजदूर तक शामिल हैं। इस जाति में बड़ी संख्या में लेखक-बुद्धिजीवी-शिक्षक आदि भी हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि चौबों की जब भी बात होती है उनकी पंडा-पुरोहित की इमेज ही हमेशा सामने रखकर बातें की जाती हैं। इससे उनके बारे में सही समझ नहीं बन जाती।
विगत 70 सालों में चतुर्वेदी जाति का बहुत बड़ा अंश इस पंडा-पुरोहित पेशे को छोड़कर अन्य पेशों में जा चुका है। अब अधिकांश चौबे पंडागिरी नहीं करते।
कहने का आशय
मैं खासतौर पर मध्यकाल में चौबों की धर्मनिरपेक्ष भूमिका के बारे में कुछ पहलुओं का जिक्र करना चाहूँगा। ये ऐसे तथ्य हैं जो इन दिनों मुसलमानों और मुसलिम शासकों के खिलाफ चल रहे असत्य प्रचार अभियान की पोल खोलते हैं। इस प्रसंग में सबसे पहले शंकराचार्य का जिक्र करना समीचीन होगा।
श्रीजगदगुरू शंकराचार्य जब मथुरा पधारे तो वे मथुरा में डिब्बारामजी चौबे द्वारा आयोजित व्यवस्था में रहे, उस समय उत्तम पांडेजी को उन्होंने अपना तीर्थ पुरोहित माना और विधि-विधान के साथ तीर्थाटन किया और उन पर हाथरस से लेख लिखा। इस प्रसंग को उन्होंने संवत 1951 भाद्रपद महीने के शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को लिखा। यह पत्र 16 पृष्ठों में है और इसमें डिब्बारामजी को पूर्ण सम्मानित के रूप में सम्बोधित किया गया है।
मथुरा के चौबे शंकराचार्य के काल में भी बड़े ज्ञानी थे। इसके बारे में पारसी सम्प्रदाय के मान्यग्रन्थ ‘शातिर’ में उल्लेख मिलता है। यह ग्रंथ विक्रम संवत पूर्व 414 का है, जब फारस में जरथुस्त्र (Zarathustra) नाम का धर्म प्रचारक अपना मत प्रचार करने लगा तब वलख के लोगों ने उससे शास्त्रार्थ करने के लिए हिन्दुस्तान से एक सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाया, लिखा ‘एकन् विरेमने व्यास नाम अजहिन्द आगद, दानाकिइल्मोहुनरमंद चुना अस्त, चूँ व्यास हिन्दी-वलख आमक, गश्ताश्प जरस्तरख रव्वा नन्द’-अर्थात् एक ब्राह्मण व्यास नाम वाला यहाँ हिन्द देश से आया है, वह बड़ा ज्ञान और बुद्धि का समुद्र है, क्योंकि यह महात्मा व्यास हिन्द देश से वलख में आया है- फारस के बादशाह गश्तास्प ने तब अपने प्रधान पण्डित जरथुस्त्र को उसके सामने बुलाया।
व्यास ने जरथुस्त्र से कहा -‘मन मरदे अम हिन्दी निजाद मैं हिन्दू देश का उत्पन्न हुआ परूष हिन्दू हूँ।
शास्त्रार्थ लंबा चला और महात्मा व्यास देव जरथुस्त्र को परास्त कर हिन्दुस्तान लौट आए। इस किस्से का जिक्र स्वामी करपात्रीजी महाराज ने ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिन्दू धर्म’ नामक किताब में जिक्र किया है।
नोट- ज़रथुश्त्र, ज़रथुष्ट्र, ज़राथुस्ट्र प्राचीन ईरान के जोरोएस्ट्रिनिइजम पंथ के संस्थापक माने जाते हैं जो प्राचीन ग्रीस के निवासियों तथा पाश्चात्य लेखकों को इसके ग्रीक रूप जारोस्टर के नाम से ज्ञात है। फारसी में जरदुश्त्र: गुजराती तथा अन्य भारतीय भाषाओं में जरथुश्त (विकिपीडिया)।