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नई दिल्ली, 21 जुलाई। सुप्रसिद्ध वामपंथी और झारखंड (Jharkhand) को लालखंड (Lalkhand) बनाने का सपना देखने वाले कोलियरी कामगार यूनियन (Colliery Workers Union) के नेता कामरेड एके राय (Comrade AK Roy) का निधन हो गया है। यह सूचना फेसबुक पर स्वतंत्र पत्रकार विशद कुमार ने दी है। विशद कुमार ने लिखा है – “अंततः कामरेड एके राय ने हमारा साथ छोड़ ही दिया। उन्हें कोटिशः क्रांतिकारी सलाम।

कामरेड एके राय को श्रद्धांजलि देते हुए हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार पलाश विश्वास का पिछले वर्ष प्रकाशित आलेख का पुनर्प्रकाशन -

महाश्वेता देवी के धनबाद के दो घनिष्ठ लोगः कामरेड एके राय और मैं

पलाश विश्वास

सत्ताइस साल कोलकाता और बंगाल में बिताने के बाद मैं उत्तराखंड (Uttarakhand) की तराई के दिनेशपुर रूद्रपुर इलाके में अपने गांव वापस जा रहा हूं। ऐसे में हमेशा के लिए बंगाल छोड़ जाने का दुःख के साथ आखिरकार अपने गांव अपने लोगों के बीच जा पाने की खुशी दोनों एकाकार है। अब मैं यहां का डेरा समेटने में लगा हूं तो ऐसे में धनबाद से कामरेड एके राय के गंभीर रुप से बीमार पड़ने की खबर मिली है।

दैनिक हिंदुस्तान के संपादकीय पेज पर मेरे चर्चित उपन्यास अमेरिका से सावधान पर लिखते हुए अपने लेख में महाश्वेता दी ने धनबाद में कामरेड एके राय और मेरे साथ घनिष्ठ संपर्क होने की बात लिखी थी। महाश्वेता दी कई बरस हुए, नहीं हैं।

अभी-अभी कामरेड अशोक मित्र का भी अवसान हो गया। नवारुणदा महाश्वेता देवी से पहले कैंसर से हार कर चल दिए।

कोलकाता का बंधन इस तरह लगातार टूटता जा रहा था। 1984 में मैंने धनबाद छोड़ और तबसे लेकर अबतक धनबाद से कोई रिश्ता बचा हुआ था तो वह कामरेड एके राय के कारण ही।

यूं तो 1970 में ही आठवीं पास करने से पहले तराई से जगन्नाथ मिश्र के बाद शायद पहले पत्रकार गोपाल विश्वास संपादित अखबार तराई टाइम्स में मैं छपने

लगा था।

हालांकि चूंकि मेरे पिता सामाजिक कार्यकर्ता और किसानों और शरणार्थियों के नेता पुलिन बाबू की मदद के लिए देश भर के शरणार्थियों और किसानों की समस्याओं पर कक्षा दो से ही मुझे नियमित लिखना पढ़ता था, क्योंकि पिताजी हिंदी में बेहतर लिख नहीं पाते थे।

1973 में जीआईसी नैनीताल पहुंचने के बाद गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी की प्रेरणा से मेरा हिंदी पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में नियमित लेखन शुरू हो गया। लेकिन जनसरोकार और वैज्ञानिक सोच के साथ लेखन का सिलसिला नैनीताल समाचार से शुरू हुआ।

राजीव लोचन शाह, गिरदा और शेखर पाठक, नैनीताल समाचार, पहाड़ और उत्तराखंड संघर्षवाहिनी के तमाम साथी मेरे थोक भाव से लगातार अब तक लिखते रहने की बुरी आदत के लिए जिम्मेदार हैं। इनमें भी गिरदा, विपिन त्रिपाठी, निर्मल जोशी, भगतदाज्यू जैसे आधे से ज्यादा लोग अब नहीं है।

एक तो बांग्लाभाषी, फिर अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी के इस तरह आजीवन हिंदी साहित्य न सही, हिंदी पत्रकारिता में खप जाने के पीछे इन सभी लोगों का अवदान है।

एमए पास करने के बाद कालेजों में नौकरी करने का विकल्प मेरे पास खुला था लेकिन मैं डीएसबी नैनीताल में पढ़ाना चाहता था और इसके लिए पीएचडी जरूरी थी। इसी जिद की वजह से मैं नैनीताल छोड़ने को मजबूर हुआ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंच गया।

इलाहाबाद में शैलेश मटियानी और शेखर जोशी के मार्फत पूरी साहित्यिक बिरादरी से आत्मीयता हो गयी, लेकिन वीरेनदा और मंगलेश दा के सुझाव मानकर मैं उर्मिलेश के साथ जेएनयू पहुंच गया। वहीं मैंने महाश्वेता दी का उपन्यास जंगल के दावेदार हिंदी में पढ़ा।

इसी दरम्यान उर्मिलेश, कामरेड एके राय से मिलने धनबाद चले गये, जहां दैनिक आवाज में मदन कश्यप थे।

मैं बसंतीपुर गया तो एक आयोजन में झगड़े की वजह से सार्वजनिक तौर पर पिताजी ने मेरा तिरस्कार किया। अगले ही दिन उर्मिलेश का पत्र आया कि धनबाद में आवाज में मेरी जरूरत है।

वे दरअसल उर्मिलेश को चाहते थे लेकिन तब उर्मिलेश जेएनयू में शोध कर रहे थे और पत्रकारिता करना नहीं चाहते थे। उन्होंने मुझे पत्रकारिता में झोंक दिया, हांलाकि बाद में वे भी आखिरकार पत्रकार बन गये।

शायद दिलोदिमाग में बिरसा मुंडा के विद्रोह और कामरेड एके राय के आंदोलन का गहरा असर रहा होगा कि पिताजी के खिलाफ गुस्से के बहाने शोध, विश्वविद्यालय, वगैरह अकादमिक मेरी महत्वाकांक्षाएं एक झटके के साथ खत्म हो गयीं और मैं धनबाद पहुंच गया।

अप्रैल, 1980 में दैनिक आवाज में काम के साथ आदिवासियों और मजदूरों के आंदोलनों के साथ मेरा नाम जुड़ गया और बहुत जल्दी ए के राय,शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो से घनिष्ठता हो गयी। वहीं मनमोहन पाठक, मदन कश्यप, बीबी शर्मा, वीरभारत तलवार और कुल्टी में संजीव थे, तो एक टीम बन गयी और हम झारखंड आंदोलन के साथ हो गये, जिसके नेता कामरेड एके राय थे जो धनबाद के सांसद भी थे।

एके राय का जीवन परिचय

एके राय झारखंड को लालखंड बनाना चाहते थे और उनकी सबसे बड़ी ताकत कोलियरी कामगार यूनियन थी। वे अविवाहित थे और सांसद होने के बावजूद एक होल टाइमर की तरह पुराना बाजार में यूनियन के दफ्तर में रहते थे। अब भी शायद वहीं हों।

कोलियरी कामगार यूनियन ने धनबाद में प्रेमचंद जयंती पर महाश्वेता देवी को मुख्य अतिथि बनाकर बुलाया। वक्ताओं में मैं भी था। महाश्वेता दी के साथ कामरेड एके राय और मेरी घनिष्ठता की वह शुरुआत थी।

यहीं से मेरे लेखन में किसानों और शरणार्थियों के साथ साथ आदिवासी और मजदूरों की समस्याएं प्रमुखता से छा गयीं तो नैनीताल समाचार और पहाड़ की वजह से पिछले करीब चालीस साल तक पहाड़ से बाहर होने के बावजूद हिमालय और उत्तराखंड से मैं कभी दूर नहीं रह सका।

महाश्वेता दी मुझे कुमायूंनी बंगाली लिखा कहा करती थी।

कामरेड एके राय एकदम अलग किस्म के मार्क्सवादी थे। जो हमेशा जमीन से जुड़े थे और विचारधारा से उनका कभी विचलन नहीं हुआ। बल्कि शिबू सोरेन और सूरजमंडल की जोड़ी ने कामरेड एके राय को झारखंड आंदोलन से उन्हें दीकू बताते हुए अलग-थलग कर दिया तो झारखंड आंदोलन का ही विचलन और विघटन हो गया।

कामरेड राय लगातार अंग्रेजी दैनिकों में लिखते रहे हैं और उनका लेखन भी अद्भुत है।

भारतीय वामपंथी नेतृत्व ने कामरेड ए के राय और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नेता, आर्थिक सुधारों के पहले शहीद शंकर गुहा नियोगी का नोटिस नहीं लिया, जो सीधे जमीन से जुड़े हुए थे और भारतीय सामाजिक यथार्थ के समझदार थे।

वामपंथ से महाश्वेता दी के अलगाव की कथा भी हैरतअंगेज है। यह कथा फिर कभी।

अशोक मित्र, ऋत्विक घटक, सोमनाथ होड़, देवव्रत विश्वास जैसे भारतीय यथार्थ के प्रति प्रतिबद्ध लोगों को भी वामपंथ का वर्चस्ववादी कुलीन नेतृत्व बर्दाश्त नहीं कर सका। आज भारतीय राजनीति में हाशिये पर चले गये वामपंथियों को इस सच का सामना करना ही चाहिए।