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हिटलर के यहूदी यातनागृह की तर्ज पर असम के विभाजन पीड़ित हिंदुओं के  लिए डिटेंशन कैंप, 15 हजार हिंदुओं को असम छोड़ने का अल्टीमेटम!

पलाश विश्वास

पूर्वी भारत के साथ पूर्वोत्तर भारत हिंदुत्व का नया वधस्थल बन रहा है। असम  गुजरात के बाद हिंदुत्व की घोषित दूसरे चरण के भगवाकरण भूकंप का एपीसेंटर है, जो अपने तेज झटकों से बाकी देश में तबाही मचाने की तैयारी में हैं।

शरणार्थी समस्या दुनिया भर में अब सत्ता का सबसे खतरनाक खेल बन गया है। जाति, धर्म, रंग नस्ल के विविध आयाम के साथ उग्र दक्षिणपंथी फासिस्ट राजकाज और मजहबी सियासत से पूरी दुनिया का नक्शा शरणार्थी सैलाब से सरोबार है तो आइलान की लाश मृत मनुष्यता का ज्वलंत प्रतीक है और नस्ली घृणा तेलकुँओं की आग है।

तीसरा विश्वयुद्ध शुरू है और राष्ट्रों के भीतर बाहर बहुत कुछ टूट बिखर रहा है सोवियत संघ की तरह।

ट्रंप की ताजपोशी के साथ ग्लोबल हिंदुत्व की जायनी विश्व व्यवस्था में सोवियत संघ का इतिहास हिंदुत्व के नाम नस्ली गृहयुद्ध की उल्फाई आग भड़काकर वैदिकी हिंसा की तर्ज पर धर्म कर्म राजकाज के नाम राम के नाम दोहराने का बेहद राष्ट्रविरोधी खेल, मनुष्यता और प्रकृति के खिलाफ खेल रहा है संघ परिवार और दांव पर लगा दी है एकबार फिर विभाजनपीड़ितों की जान माल जिंदगी और नागरिकता।

हमारे लिए यह बहुत मुश्किल समय है। बंगाल से बाहर देश भर में और सीमा के आर पार विभाजनपीड़ितों की दुनिया में हमारी जिंदगी गूंथी हुई है।

हम अपनी ही जनता, अपने ही स्वजनों की व्यथा कथा को नजरअंदाज करके राजनीतिक विशुद्धता , मत मतांतर और विचाधारा के बहाने शरणार्थी आंदोलन से अलग हो नहीं सकते।

अब तक चूंकि शरणार्थी और उनके नेता उम्मीद लगाये बैठे थे कि नागरिकता कानून बदलकर बंगाली हिंदू विभाजनपीड़ितों की नागरिकता छीनकर उन्हें विदेशी घुसपैठिया करार देकर खदेड़ने का अभियान चलाने वाली भाजपा फिर उनकी नागरिकता बहाल करेगी। हमने अपनी राय

सार्वजनिक करके उनके आंदोलन की दिशा को प्रभावित करने से बचना चाहा है और नेतृत्व से मतभेद के बावजूद अपना मत सार्वजनिक नहीं किया है। लेकिन जब भी शरणार्थी आंदोलन के मंच से बोलने का मौका लगा है हमने हर बार-बार उन्हें खुले शब्दों में संघ परिवार के खतरनाक खेल के बारे में चेतावनी जरूर दी है।

हमारे लोग असहाय हैं और सत्ता पर भरोसा का विकल्प उनके पास कुछ भी नहीं है। संघ परिवार पर उनके भरोसे या भारतीय बहुसंख्य जनता की हिंदुत्व में परंपरागत अटूट आस्था या लोक संस्कृति की वजह से हिंदुत्व के एजंडे के तहत इस्तेमाल की चीज बन जाने की उनकी नियति की वजह से हम उन्हें अपना स्वजन मानने से इंकार करने वाले क्रांतिकारी नहीं बन सकते। हम उनके विवेक पर भरोसा बनाये रखकर बदलाव की कोशिश में जरुर लगे हुए हैं।

अगर भाजपा की सरकार देश भर में नागरिकता, आरक्षण,  मातृभाषा से वंचित शरणार्थियों की नागरिकता और उनके हक हकूक को बहाल करती तो यह हमारे लिए राहत की बात होती। इसलिए हमने अब तक हर हाल में अपने को हाशिये पर रखते हुए शरणार्थी आंदोलन और शरणार्थी नेताओं का समर्थन किया है।

अब जो हालात बन रहे हैं वे इतने भयंकर हैं और सर्वव्यापी तबाही का मंजर है कि उनसे शरणार्थी, विभाजनपीड़ित हिंदू और मुसलमान के अलावा देश के हर हिस्से में भारत के लोग और सीमापार के लोग भी संघ परिवार के इस खतरनाक खेल में मारे जायेंगे तो शरणार्थी आंदोलन और शरणार्थी नेताओं को अपना बिना शर्त समर्थन जारी रखते हुए सच का सार्वजनिक खुलासा करना ही होगा।

हम यह नहीं जानते कि इस सार्वजनिक खुलासे के बाद हिंदुत्व की पहचान से नत्थी विभाजनपीड़ितों की राय हमारे बारे में कितनी बदलेगी।

फिर भी वक्त का तकाजा है और चूंकि अब शरणार्थियों और शरणार्थी नेताओं को पता चल जाना चाहिए कि उनके हक हकूक दिलाने और कम से कम उनकी नागरिकता बहाल करने में संघ परिवार की कोई दिलचस्पी नहीं है। उनका रवैया वही है जो बंगाल,  पंजाब,  कश्मीर और सिंध के विबादजन पीड़ितों के प्रति विभाजन से पहले, विभाजन के दौरान रहा है, यह खुलासा अनिवार्य है.इससे जिनकी भावनाओं को ठेस पहुंचने वाली है, वे हमें माफ करें।

गैर असमिया भारतीय नागरिकों के लिए असम मध्य एशिया के मंजर में तब्दील है और भारत विभाजन के शिकार शरणार्थियों के नस्ली कत्लेआम अब हिंदुत्व का एजंडा है। तो बाकी लोग भी इस नरसंहार संस्कृति से जिंदा बच जायेंगे , ऐसे आसार बेहद कम हैं।

अहमिया सत्ता वर्ग अपने अलावा असम में किसी को मूलनिवासी मानता नहीं है जबकि ग्यारहवीं सदी में म्यांमार से आने के बाद उनका हिंदुत्वकरण हुआ है।

असम और पूर्वोत्तर के मूलनिवासी आदिवासी भी इस अल्फाई आतंकवाद के निशाने पर हैं। गैरअसमिया भारत के हर राज्य के नागरिक अब असम में विदेशी घुसपैठिया है। केसरिया हो रहे भूगोल के हर हिस्से में अब हर दूसरा नागरिक अवांछित शत्रु है जैसा अमेरिका में ट्रंप के राजकाज में हो रहा है और यूरोपीय समुदाय के विखंडन के बाद इंग्लैंड समेत समूचे यूरोप के मध्य एशिया में तब्दील होने पर होते रहने का अंदेशा है।

मनुष्यता और प्रकृति, मौसम, जलवायु और पर्यावरण लहूलुहान हैं।

अस्सी के दशक में असम और त्रिपुरा में जो खून खराबा हुआ, आने वाले वक्त में उससे भयंकर खून खराबे का अंदेशा है। गुजरात और पंजाब से भी भयंकर हालात असम में अल्फाई संघ परिवार के राजकाज में बन रहे हैं।

हम तीसरे विश्वयुद्ध में फंस गये हैं और चप्पे चप्पे पर गृहयुद्ध है। इसी गृहयुद्ध का नजारा असम, बंगाल और सारा पूर्वोत्तर है।

हिंदुत्व के नाम मुसलमानों के खिलाफ निरंतर घृणा अभियान की आड़ में असम में साठ के दशक से लगातार यह हिंसा जारी है। राम के नाम सौगंध और सिख नरसंहार, गुजरात नरसंहार तो इस मुकाबले ताजा वारदात हैं। बाकी देश में हिंसा के बीड रह रहकर अंतराल है तो असम घटनाओं की घनघटा है और हिंसा की सिलसिला अंतहीन। वही असम अब संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडा का भगवा नक्शा है।

ताजा खबर यह है कि जिन हिंदू बंगाल शरणार्थी वोट बैंक के एक मुश्त समर्थन से संघ परिवार असम में अल्फाई राजकाज चला रहा है, उसके अंतर्गत अल्फाई उग्रवादियों ने पंद्रह हजार बंगाली हिंदुओं को विदेशी घुसपैठिया बताकर उन्हें असम छोड़ने का अल्टीमेटम दिया है तो असम सरकार विदेशी घुसपैठिया होने के आरोप में हिटलर के यहूदी यातनागृह की तर्ज पर बंगाली हिंदू शरणार्थी परिवारों को बच्चों और स्त्रियों समेत थोक पैमाने पर डिटेंशन कैंप में बंद कर रही है।

बंगाल में जितने बंगाली हैं, उनसे काफी ज्यादा बंगाली भारत भर में छितराये हुए हैं।

पूर्वी बंगाल के दलित और ओबीसी जन समुदायों में, जिनमें ज्यादातर बंगाल और भारतभर में आजादी से पहले हरिचांद ठाकुर, गुरुचांद ठाकुर, जोगेंद्र नाथ मंडल और बैरिस्टर मुकुंद बिहारी मल्लिक की अगुवाई में बहुजन आंदोलन का नेतृत्व सन्यासी विद्रोह, नील विद्रोह से लेकर तेभागा आंदोलन तक करने वाले नमोशूद्र समुदाय के लोग हैं। इन्होंने ही पूर्वी बंगाल से गुरुचांद ठाकुर के पोते  प्रमथ नाथ ठाकुर के साथ डा.बीआर अंबेडकर को संविधान सभा में चुनकर भेजा था।

पूर्वी बंगाल की दलित और ओबीसी जनसंख्या को भारत विभाजन के जरिये बंगाल से खदेड़ दिया गया, जो भारत भर में केंद्र और राज्यसराकरों द्वारा पुनर्वासित किये गये हैं। पाकिस्तान के बंटवारे के बाद बड़ी संख्या में जो हिंदू शरणार्थी बांग्लादेश में निरंतर अल्पसंख्यक उत्पीड़न और हिंदू होने की वजह से भारत समर्थक और आवामी लीग समर्थक माने जाने के कारण राजनीतिक अस्थिरता और उथल पुथल की वजह से भारत में आकर बसे, उनमें से ज्यादातर बंगाल से बाहर हैं, जिन्हें आज तक नागरिकता, आरक्षण, पुनर्वास से लेकर मातृभाषा का अधिकार भी नहीं मिले हैं।

अंडमान निकोबार से लेकर उत्तर, दक्षिण, मध्य, पश्चिम भारत के अलावा वे बहुत बड़ी तादाद में बांग्लादेश से सटे असम और त्रिपुरा में बस गये हैं। ये लोग ही हिंदुत्व के एजंडे के नस्ली नरसंहार के मुताबिक चांदमारी के निशाने पर हैं।

दूसरी ओर, शरणार्थी पूर्वी बंगाल के जनपदों की तरह किसी भी जनपद में एक साथ बसे नहीं है। एकमात्र त्रिपुरा को छोड़कर सर्वत्र उनकी संख्या भी इतनी नहीं है कि वे अपने एमएलए, एमपी, मंत्री वगैरह चुन सके। शरणार्थी सत्तापक्ष के बंधुआ वोटबैंक हैं और इस अपराध के लिए उन्हें निहत्था मरने को छोड़ने की विचारधारा हमारी नही है।  

जाहिर है कि असम, त्रिपुरा, दंडकारण्य प्रोजेक्ट के अंतर्गत महाराष्ट्र,  ओड़ीशा,  मध्यप्रदेश,  छत्तीसगढ़, ओड़ीशा और आंध्र के अलावा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में भारी संख्या में विभाजनपीड़ितों के पुनर्वास के बावजूद विभाजनपीड़ितों का राजनैतिक प्रतिनिधित्व नहीं है। उनकी विधानसभाओं या संसद में कोई आवाज नहीं है। इसलिए वे सत्तापक्ष के सहारे जीने को अभ्यस्त है चाहे इसका नतीजा कुछ भी हो। अब वे राराज्य में वानर सेना है और रामभरोसे हैं तो हम इनका क्या कर सकते हैं।

समझ लीजिये कि उन्हें बंधुआ बनाने की तकनीक कितनी भयानक है। उत्तराखंड, ओड़ीशा और छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्यों में जहां किसी विधानसभा इलाके में बंगाली या सिख पंजाबी शरणार्थी बहुस्ंख्य है, उन विधानसभा क्षेत्रों को टुकड़ा टुकड़ा बांटकर उन्हें फिर अल्पमत बना दिया गया है।

कुल मिलाकर हलात यह है कि सत्तादल और स्थानीय जनता के समर्थन के बगैर कहीं भी विभाजनपीड़ितों के जिंदा रहने के हालात नहीं है।

नतीजतन हमेशा शरणार्थी जीतने वाली पार्टी के साथ अपने गहरे असुरक्षाबोध की वजह से मुसलमानों की तरह एकमुश्त वोट करते हैं। इसी वजह से महाराष्ट्र,  छत्तीसगढ़,  मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में इसी वजह से हिंदू शरणार्थी संघ परिवार का वोटबैंक है। बंगाल में भी हालत वहीं बन रही है जो असम में बन चुकी है।

चूंकि पंजाब और बंगाल के विभाजन पीड़ितों में विभाजन के बाद से विभाजन के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग को जिम्मेदार ठहराने की मानसिकता कभी बदली नहीं है तो हिंदू हितों की दलीलों और हिंदुत्व एजंडा की वजह से पंजाब के अकालियों की तरह बंगाल में भी शरणार्थियों का सुर से केसरियाकरण हो गया है।

बंगाल से बाहर हिंदू बंगाली शरणार्थी हांलाकि कांग्रेस की जीत के वक्त कांग्रेस के हक में वोट करते हैं, जैसे ऐसा मुसलमान भी करते हैं, लेकिन जनसंघ से लेकर भाजपा जमाने तक हवा बदलते ही वे हिंदुत्व के एजंडे के हक में खड़े हो जाते हैं।

असम में अपनी सुरक्षा के लिए पहले कांग्रेस फिर असम गण परिषद को वोट देते रहने के बाद इस बार पहली बार भारत की नागिकता की उम्मीद में नागरिकता वंचित हिंदू बंगाल शरणार्थियों ने एकमुश्त संघ परिवार को वोट देकर उनकी सत्ता सुनिश्चित की है।

हिंदुओं को नागरिकता देने के झूठे संघी वायदे के फेर में बंगाल में भी शरणार्थी और मतुआ वोट बैंक अब संघ परिवार के साथ हैं। यूपी और उत्तराखंड में कमोबेश समीकरण वही है। शरणार्थी वोटबैंक की वजह से उत्तराखंड की तराई में संघ परिवार को बढ़त है। यूपी में भी पीलीभीत, बहराइच, खीरी जैसे जिलों में यही हालत हैं।

अब जबकि असम में संघ परिवार के अल्फाई राजकाज के निशाने पर बंगाली हिंदू शरणार्थी हैं, तो यूपी और उत्तराखंड के शरणार्थियों को आसन्न विधानसाभा चुनावों में वोट डालने से पहले जरुर सोचना चाहिए कि वे किस हिंदुत्व के एजंडे के हक में वोट डाल रहे हैं। आगे देशभर में संघ परिवार उनका क्या करने वाले हैं।

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में भी संघी राजकाज के अंतर्गत बंगाली भगाओ अभियान चालू है तो उत्तराखंड में भी नयी नागरिकता कानून बनने से पहले उत्तराखंड की पहली भाजपा सरकार नें बंगाली शरणार्थियों को भारतीय नागरिक मानने से इंकार कर दिया था।

तब उत्तराखंड के पहाड़ों और मैदान के सभी वर्गों, मीडिया और गैरभाजपाई दलों के समर्थन में बंगाली शरणार्थियों के आंदोलन की वजह से भाजपा सरकार को पीछे हटना पड़ा था। विडंबना यह है कि बंगाली शरणार्थी वह हादसा भूलकर फिर चुनावी मौसम में केसरिया खेमे में हैं।

इस पर तुर्रा यह कि असम सिर्फ बंगालियों और मुसलमानों के लिए ही नहीं, हिंदी भाषियों,  बिहारियों,  राजस्थानियों के साथ साथ असुरक्षित है। साठ के दशक में असम में बंगाली भगाओ दंगे हुए तो राजस्थानियों और हिंदी भाषियों के खिलाफ भी वहां दंगे होते रहे हैं। कब असम में किस समुदाय के खिलाफ दंगा होना है, इसका फैसला भी मजहबी सियासत करती है और अंजाम देने की जिम्मेदारी उल्फाई उग्रवाद की है।

साठ के दशक के दंगों के दौरान मेरे पिताजी पुलिनबाबू ने दंगापीड़ित असम के हर जिले में शरणार्थियों के साथ थे और उन्होंने असम छोड़ने से उन्हें रोकने में भी कामयाबी पायी। वे तभी से मानते रहे हैं कि असम में इस दंगाई सियासत के पीछे संघ परिवार है। वे मानते रहे हैं कि असम के विदेशी नागरिकों के खिलाफ अस्सी के दशक में आसु और अगप के आंदोलन में संघ परिवार की खास भूमिका रही है। तमाम नामी संघी स्वयंसेवक असम में दंगा भड़काने का काम करते रहे हैं

अस्सी के दशक से ही पुलिनबाबू लगातार देशभर में शरणार्थियों को संघ परिवार के हिंदुत्व के इस एजंडा के खिलाप चेतावनी देते हुए उनकी नागरिकता छिनने की आशंका जताते रहे हैं। लेकिन शरणार्थी जन्मजात नागरिकता की खुशफहमी में उन्हें नजरअंदाज करते रहे।

जून, 2001 में उनकी मृत्यु के तत्काल बाद उत्तराखंड राज्य यूपी से अलग हो गया और वहां पहली सरकार भाजपा की बनते ही 1952 से तराई को आबाद करके तराई में  सिख और पंजाबी शरणार्थियों के साथ पुनर्वासित तमाम बंगाली विभाजनपीड़ित शरणार्थियों को विदेशी घुसपैठिया करार दिया और इसी के साथ केंद्र में बनी पहली हिंदुत्व की सरकार के गृहमंत्री लौह पुरुष रामरथी लालकृष्ण आडवाणी ने 2003 में विदेशी घुसपैठियों के खिलाफ नागरिकता संशोधन विधेयक के तहत जन्मजात नागरिकता खारिज करते हुए देश भारत में बसाये गये बंगाली हिंदू शरणार्थियों की नागरिकता छीन ली।

धोखाधड़ी की हद है कि 1955 के संशोधित कानून नागरिकता संशोधन कानून के प्रावधानों में संसोधन करके हिंदुओं को नागरिकता देने की बात कही जा रही है। जबकि 1955 के कानून में शरणार्थियों की नागरिकता में कोई बाधा थी ही नहीं।  

खासकर दंडकारण्य के खनिज बहुल इलाकों में आदिवासियों को सलवा जुड़ुमे के जरिये बेदखल करने के बाद वहां आदिवासियों के साथ बसाये गये शरणार्थियों की नागरिकता छीनकर पूरा दंडकारण्य देशी विदेशी पूंजी को सौंपने का चाकचौबंद इतंजाम नया नागरिकता कानून है, जो संघ परिवार बदलने वाला नहीं है। इसलिए नया नागरिकता संशोधन विधेयक ऐसे बनाया गया हो जो संसद में पास होना असंभव है। लेकिन इस प्रस्तावित विधेयक के जरिये संघ परिवार को हिंदुओं के ध्रुवीकरण का खतरनाक वीभत्स खेल शुरु करने का मौका मिला है और असम है।

अब मजे की बात यह है कि वही संघ परिवार, वही भाजपा, वही केसरिया सरकार उसी संशोधित नागरिकता कानून में विशेष प्रावधान के तहत हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने के वायदे के साथ असम और दूसरे राज्यों में मुसलमानों के

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