आरटीई फोरम के मुताबिक आम बजट 2022-23 में स्कूलों को फिर से खोलने, सरकारी स्कूल व्यवस्था की मजबूती और शिक्षा अधिकार कानून के क्रियान्वयन एवं विस्तार पर ज़ोर देने के बजाय महज डिजिटल लर्निंग पर ध्यान केन्द्रित करने और ई-विद्या के विस्तार का प्रस्ताव देखना खासा निराशाजनक है। आवश्यक बजट और ठोस रोडमैप के अभाव का सीधा असर समाज के वंचित वर्गों पर होगा और शिक्षा में घोर असमानता बढ़ेगी।
नई दिल्ली, 4 फरवरी, 2022: “केंद्रीय बजट 2022-23 एक बार फिर बेहद निराशाजनक साबित हुआ है। वित्त मंत्री ने महामारी के दर्दनाक प्रभाव को तो स्वीकार किया है, लेकिन वह स्कूलों को फिर से खोलने और उन्हें कोविड के असर के संदर्भ में तैयारी करने की तत्काल आवश्यकता को स्वीकार करने में विफल रही हैं।“
यह कहना है शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत संगठन राइट टू एजुकेशन फोरम का।
आज यहां जारी एक विज्ञप्ति में आरटीई फोरम के समन्वयक मित्ररंजन ने कहा कि, असर 2021 के एक सर्वेक्षण के मुताबिक सरकारी स्कूलों में नामांकन बढ़ा है और निजी स्कूलों के नामांकन में 8.1% की गिरावट देखी गई। आर्थिक सर्वेक्षण ने भी इस जनसांख्यिकीय बदलाव को संभालने के लिए सरकारी स्कूलों को बुनयादी सुविधाओं से लैस करने की सिफारिश की है (recommended equipping government schools) लेकिन बजट इस बारे में मौन है। शोध से पता चलता है कि महामारी के दौरान ग्रामीण इलाकों में केवल 8% बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन अध्ययन कर रहे थे (8% of rural children), इन परिस्थितियों में सीखने के नुकसान को दूर करने के लिए मंत्रालय के पूरक शिक्षण के लिए डिजिटल समाधान की राह पकड़ने ऐसे क्रियाकलापों
उन्होंने कहा कि यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि 6-13 वर्ष आयु वर्ग के 42% बच्चों ने स्कूल बंद होने के दौरान किसी भी प्रकार के दूरस्थ शिक्षा का उपयोग नहीं किया । रिपोर्ट के अनुसार 14-18 वर्ष की आयु के 80% (80% of children) बच्चों के ऑनलाइन सीखने का स्तर स्कूल में शारीरिक रूप से उपस्थिति के दौरान सीखने की तुलना में काफी नीचे रहा, इसके बावजूद वित्त मंत्री ने अपने भाषण में सीखने के नुकसान को स्वीकार करते हुए ई-विद्या कार्यक्रम को 12 से बढ़ाकर 200 चैनलों तक विस्तारित करने की घोषणा कर के अपना दायित्व पूरा कर लिया और स्कूलों के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने और उन्हें फिर से खोलने की तत्काल और मूलभूत आवश्यकता को स्वीकार करने में विफल रहीं।
विज्ञप्ति में कहा गया है कि डिजिटल माध्यम से सीखने-पढ़ने पर अधिक ध्यान के बावजूद डिजिटल बुनियादी ढांचे के विस्तार पर कोई वास्तविक आवंटन (Allocation on expansion of digital infrastructure in the budget) नहीं है, जिसका मतलब है कि सरकार डिजिटल शिक्षा को भी आगे बढ़ाने के लिए निजी निवेश और पीपीपी के बारे में सोच रही है, जबकि यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि ऑनलाइन शिक्षा के कारण बढ़ती असमानता ने 80 प्रतिशत गांवों में रहने वाले तथा शहरों के गरीब बच्चे, जिनमें लड़कियों की संख्या बहुतायत है, के सामने कम्प्यूटर, लैपटॉप, स्मार्ट फोन तथा उचित संसाधनों के अभाव के कारण शिक्षा के दायरे से हमेशा के लिए बाहर हो जाने का खतरा पैदा कर दिया है।
मित्ररंजन ने कहा कि सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था और औपचारिक स्कूली शिक्षा को मजबूत करने के लिए वित्त पोषण में कमी और शिक्षा अधिकार कानून के क्रियान्वयन और विस्तार के लिए ठोस रोडमैप के अभाव का सीधा असर समाज के वंचित वर्गों की शिक्षा पर पड़ेगा जो शिक्षा के क्षेत्र में असमानता को और बढ़ाएगा और एसडीजी के तहत अंगीकार किए गए शिक्षा के सार्वभौमीकरण के लक्ष्य को भी बुरी तरह से बाधित करेगा।
समग्र शिक्षा अभियान पर आवंटन में 6333 करोड़ की थोड़ी वृद्धि तो हुई है (2021-22 में आवंटित 31050 करोड़ के मुक़ाबले 2022-23 में 37383 करोड़), लेकिन यह 38860 करोड़ रुपये (2020-21) के महामारी के पहले वाले स्तर से भी कम ही है जबकि शिक्षा के लिए बजट का आवंटन पहले से ही चिंताजनक कमी का शिकार है। महामारी के दौरान स्कूलों में नाश्ता उपलब्ध कराने और बच्चों के स्वास्थ्य के मुद्दों के लिए नीतिगत प्रतिबद्धता के बावजूद, इस साल मिड डे मील योजना (एमडीएम) का आवंटन भी कम हो गया है। अब प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण योजना (Pradhanmantri Poshan Shakti Nirman Yojana) के नए नामकरण के साथ आयी इस योजना में विगत वर्ष के आवंटन 11,500 करोड़ रुपये (2020-21 बीई) को भी घटाकर 10233.75 करोड़ कर दिया गया है जबकि बच्चों के स्वास्थ्य एवं गुणवत्तापूर्ण पोषण के लिहाज से यह योजना निरंतर पैसों की कमी से जूझती रही है। ऐसी स्थिति तब है जब देश बाल कुपोषण की समस्या (child malnutrition problem) से बुरी तरह ग्रस्त है।
कोविड-19 महामारी ने हाशिए के समुदायों के बच्चों, विशेषकर लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। ऐसे में हैरत की बात है कि माध्यमिक स्कूलों में पढ़नेवाली लड़कियों को प्रोत्साहन के लिए राष्ट्रीय योजना (नेशनल स्कीम फॉर इंसेंटिव टू गर्ल्स फॉर सेकेंडरी एजुकेशन- National Scheme for Incentive to Girls for Secondary Education) को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है। गौरतलब है कि विगत वर्ष 2021-22 में भी इस योजना के तहत दी जानेवाली राशि 2020-21 के 110 करोड़ रुपये से घटाकर 1 करोड़ रुपये कर दी गई थी, पर अब वह योजना समाप्त हो गई है। नई राष्ट्रीय शिक्षा (एनईपी) में किए गए वादे के मुताबिक लैंगिक समावेशन निधि (जेंडर इंक्लूजन फंड) का कोई जिक्र ही नहीं है। वहीं, दलितों और आदिवासियों के लिए छात्रवृत्ति योजनाओं में वृद्धि की बहुप्रतीक्षित योजना का भी कोई नामो-निशान नहीं है।
विज्ञप्ति में कहा गया है कि कुल मिलाकर, पहले की तमाम नीतियों और नवीनतम राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में दुहराने के बावजूद ये बजट शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6 फीसदी निवेश से काफी नीचे रहा है। काश ! बजट ने सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को मजबूत करने और मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून के जमीनी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने (हाल ही में संसद के मानसून सत्र में उठे सवाल के जवाब और यू डाइस डेटा के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर आरटीई प्रावधानों का अनुपालन कानून लागू होने के 11 सालों बाद अभी भी महज 25.5% है) के साथ ही इसका विस्तार पूर्व प्राथमिक से उच्च माध्यमिक तक करने के लिए एक रोडमैप दिया होता।
आरटीई फोरम का मानना है कि यह बजट पिछले दो साल की अवधि में खोई हुई स्कूली शिक्षा से प्रभावित बच्चों की पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करने के आसपास भी नहीं है। यह भारत की सबसे बड़ी संपत्ति और धरोहर यानी अपने बच्चों की आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल है, उनके अधिकारों की पूरी तरह से अनदेखी है और इससे भारत को मिल सकने वाले स्वाभाविक जनसांख्यिकीय लाभांश के बर्बाद होने का जोखिम है।