उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश के चार जिलों हरिद्वार, देहरादून, पोढ़ी गढ़वाल व सहारनपुर में करीब 820 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैला राजाजी उद्यान लगातार आग से धधक कर राख हो गया। इस आग को बारिश से प्रकृति ही बुझाने में कामयाब हुयी, वरना इसे बुझाने के लिये जिम्मेदार वनविभाग व पार्क प्रशासन तो बुरी तरह से असफल ही साबित हुये।
‘‘यह आग तो पिछले दस वर्षो से लगातार लगती चली आ रही है, हम लोग इसके बारे में कई बार शिकायत कर चुके है लेकिन हमारी कही नहीं सुनी गई। इस बार भी जब आग लगी तो रेंजर साहब हमारे से सहयोग मांगने आए तब जा कर आग बुझी। लेकिन अब नेशनल पार्क के अंदर सारे पेड़ जलकर खाक हो चुके हैं’’
ज्ञात हो कि ऐलिफेन्ट प्रोजेक्ट के तहत बनाये गये वन्य जीवों के इस विहार में इन दिनों जंगल, वन्य-जन्तु व मानव जीवन बुरी तरह से आग की चपेट में आकर ख़तरे से जूझ रहा है।
आज से 6 पहले भी इसी पार्क में भीषण आग लगी थी व लेखिका ने इस पर एक लेख लिखा था। उस समय आम समाज का इस भीषण आग की ओर ध्यान तब केन्द्रित हुआ, जब इसकी लपटों ने कुम्भ मेले के दौरान तीर्थ स्थान हरिद्वार के चंडीदेवी मन्दिर को भी अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया और इस आग का निरीक्षण करने गये एक मंत्री का कुर्ता भी इस आग में झुलस गया।
आखिरकार इस आग के लिये असली जिम्मेदार कौन है, प्राकृतिक आपदा या फिर सरकारी नीतियां? पर्यावरण बचाने की
राजाजी जंगल क्षेत्र में बसे वनसमुदायों के बीच पिछले लगभग 20 वर्षों से काम करने के कारण यहां के जंगलों से भी मेरा एक अलग तरह का नाता रहा है, लेकिन कभी भी इस तरह की भीषण आग का नज़ारा देखने को नहीं मिला, जबकि गर्मी का प्रकोप हर वर्ष रहता ही है। पिछले वर्ष भी यह आग पार्क के अन्दरूनी हिस्सों में लगी थी। लेकिन इस बात को दबा दिया गया। लेकिन इस बार की आग ने खुद को जंगलों का असली रखवाला समझने वाले वनविभाग व स्थानीय प्रशासन द्वारा जंगलों में आग प्रबंधन व नियंत्रण के लिये अपनाये जाने वाले सारे नियम कायदों की पोल पट्टी खोल कर रख दी है। जबकि इस काम के लिये वनविभाग के पास हर वर्ष करोड़ों रूपये का बजट आता है, जिसे आग नियंत्रण के नाम पर इस विभाग के लोगों द्वारा पूरी तरह से हड़प लिया जाता है।
गौरतलब है कि वनसमुदाय जिनका वनों के साथ एक अटूट प्राकृतिक रिश्ता है व जो वनों के इकोसिस्टम के विज्ञान (Science of forest ecosystem) को अच्छी तरह से समझते हैं, उन्हें इस मामले में लगातार नज़रअन्दाज़ किया जा रहा है। जबकि ये लोग ही ज़्यादा जानते हैं, कि इस आग पर कैसे काबू पाया जा सकता है। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि वनों में आग अक्समात ही नहीं लगती और अगर लगती भी है तो उसे बुझाने में इतनी देरी नहीं लग सकती। ऐसी स्थिति में आग बुझाने में लगने वाली यह देरी बहुत से सवाल खड़े कर देती है।
हालांकि आमतौर पर देखा जाये तो वनों में आग लगना कोई नयी बात नहीं है। आदिकाल से ही यह हर बार गर्मी के मौसम में लग जाया करती है। आग पर काबू पाने की क्रिया को हम मानव विकास की प्रक्रिया का भी एक अहम हिस्सा मान सकते हैं। अगर हम मानव जाति के विकास के इतिहास पर गौर करें तो पायेंगे कि पाषाण युग में आग की खोज व उसका नियंत्रण ही इस विकास का आधार बने थे। उस समय मानवजाति जंगलों में घुमन्तु जीवन व्यतीत करते हुये रहती थी, जो आग के इस्तेमाल और नियंत्रण के सभी नियमों से भली-भांति परिचित थी। वनों के साथ कायम हुये इस रिश्ते के चलते ही इंसान ने आग पर काबू पाना प्राकृतिक रूप से सीखा। फिर आज इस आग का इतना विकराल रूप क्यों?
वास्तव में आग पर जो समुदाय नियंत्रण रखते थे, उन्हें वनों का दोहन करने वाली ताकतों के द्वारा लम्बे समय से चलायी जा रही ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत जंगलों से दूर करके लगातार बेदख़ल किया गया और उपनिवेशिक काल के दौरान वनों को राजस्व वसूली के साधन के रूप में इस्तेमाल करने वाली संस्था वनविभाग को इन वनों का रखवाला घोषित कर दिया गया। जिनके पास जंगल की आग बुझाने की कोई भी कारगर वैज्ञानिक तरीका नहीं रहा। पूर्व में वनों में जब भी आग लगती थी, उसे वनविभाग द्वारा स्थानीय समुदायों की मदद से ही बुझाया जाता था। लेकिन जैसे-जैसे वनों में स्थानीय समुदायों का दखल कम कर उनके सारे अधिकार समाप्त किये जाते रहे, वैसे-वैसे वनों में लगी आग बुझाने को लेकर इनमें बसे समुदाय के लोगों की रूचि भी कम होती चली गयी। चूंकि इन वर्षो में उनको वनों से सरकारी तौर पर अतिक्रमणकारी घोषित करते हुये अलग कर दिया गया ।
इस राजस्व को एकत्रित करने में सबसे बड़ी बाधा जंगलों में लगी आग को ही माना जाता था। शुरुआत के समय में इस आग पर काबू पाने के लिये स्थानीय लोगों की मदद पाने के लिये उन्हें काफी प्रोत्साहन भी दिया जाता था। आग बुझाने के एवज़ में उनके जंगलों में कुछ विशेष प्रकार के हकों को बहाल किया जाता था, जो कि आज भी अंग्रेज़ों द्वारा बनायी गयी कार्ययोजनाओं में दर्ज हैं।
समुदायों द्वारा गर्मी का मौसम शुरू होते ही फायर लाईनों की सफाई की जाती थी ताकि आग को पूरे जंगल में फैलने से रोका जा सके। इन फायर लाईनों के रखरखाव के लिये इन लोगों को मेहनताना भी दिया जाता था। लेकिन विडम्बना है कि वन समुदायों के साथ आज़ाद भारत की सरकारों का रवैया अंग्रेज़ों से भी बदतर साबित हुआ। जिसके चलते अंग्रेज़ों के समय में बनाई इन फायर लाईनों की सफाई के सारे नियमों को लगभग समाप्त ही कर दिया गया।
इन जंगलों में बड़े पैमाने पर बसे वनगुजर समुदाय के लोगों का कहना है कि आज भी जहां-जहां हम लोग बसे हुये हैं, वहां आग नहीं है। उनके अनुसार शिवालिक वनों में फायर लाईन तीन तरह की हुआ करती थी, एक बीस फुटी लाईन जो कि पहाड़ों पर हुआ करती थी, उसे फरवरी-मार्च के महीनों में ही साफ कर दिया जाता था। ताकि आग ऊपर की ओर न फैल सके। इस बीस फुट लाईन के नीचे मैदानी क्षेत्र में सौ फुट लाईन बनाई जाती थी। जिसमें नीचे की आग ऊपर की ओर नहीं फैल सकती थी। फिर उसके बाद इसी तरह की एक और लाईन बनाई जाती थी। इसमें बहुत कुछ अलग-अलग तरह की प्रकृति के जंगल पर भी निर्भर करता था, कि किस तरह की फायर लाईनें बनाकर सफायी की जाये।
सन् 1982 में राजाजी पार्क बनने की घोषणा के समय से ही इसमें बसे लोगों के हक हकूक समाप्त कर दिये गये। भाभड़ घास जो कि जंगल की आग में बारूद का काम करती है, व जिसका इस्तेमाल यहां के लोग पारंपरिक रूप से रस्सी बना कर अपनी आजीविका के लिये करते आ रहे थे, उन पर इस घास को लेने पर रोक लगा दी गयी। दूसरी ओर तभी से वनविभाग द्वारा फायर लाईनों का रखरखाव भी बंद कर दिया गया। लेकिन इसके बावज़ूद यहां बसे वनगुजर समुदाय के लोगों ने अपने गर्मियां शुरु होते ही फायर लाईनों की सफाई करना नहीं छोड़ा। क्योंकि उनके अपने व अपने जानवरों की सुरक्षा के लिहाज से इस आग को नियंत्रित करना जरूरी था। उनके द्वारा स्वतः अपनायी जाने वाली इस प्रक्रिया से भी आग इस तरह से नहीं फैलती थी। लेकिन पार्क प्रशासन द्वारा धीरे-धीरे वनगुजरों को भी बिना उनके अधिकारों को बहाल किये पार्कक्षेत्र से बेदखल करना शुरू कर दिया गया।
इस समय राजाजी के जंगलक्षेत्र में धौलखंड़, रानीपुर , श्यामपुर, रावली, छिड़क, झाबरावाला तथा कांसरों रेंज के इलाकों में आग लगी है। ये वही इलाके हैं जिनसे वनगुजरों को पूरी तरह से खदेड़ दिया गया है। जबकि इसी जंगल में चिल्लावाली, कुनाउ व रामगढ़ रेंज जहां पर वनगुजर वनाधिकार कानून 2006 से मिली ताक़त का सहारा लेकर अभी भी रह रहे हैं, वहां पर आग नहीं है।
देखा जाये तो राजाजी के चारों ओर फैले शहरी क्षेत्रों के लिये भी यह एक गंभीर संकट है। क्यूंकि अगर इस आग पर काबू नहीं पाया जा सका तो पर्यावरण के साथ-साथ आने वाले दिनों में इन बड़े शहरों में लगी तमाम औद्योगिक ईकाईयां भी इस आग की चपेट में आ जायेंगी। देखना यह भी ज़रूरी होगा कि आखि़रकार इस आग के कारण नुकसान में आने वाले कौन हैं, और इस विनाश के बावज़ूद फायदे में कौन रहेगा।
दरअसल वनविभाग, जो कि इस विध्वंसकारी आग को भी बड़ी चतुराई के साथ अपने फायदे में बदलने के लिये महारत हासिल किये हुये है, वो कभी नहीं चाहता कि यह आग किसी तरह से नियंत्रित कर ली जाये। चूंकि इस आग के लगने में उसे दोहरा फायदा है। एक यही वो दिन होते हैं जिनमें जंगलों में पेड़ों का अवैध कटान भी ज़ोरों पर चलता है।
वनगुजरों के अनुसार यह आग दरअसल वनविभाग द्वारा ही लगाई जाती है जिससे इस अवैध कटान पर पर्दा पड़ सके। इस आग में पेड़ों के तमाम कटे ठूंठ काले पड़ जाते हैं। और दूसरा फायदा है इसी आग को बुझाने के नाम पर आने वाला करोड़ों रूपये का देशी-विदेशी फण्ड। इनका कहना है कि पहले अगर जंगल में कहीं आग लगती भी थी, तो सबसे पहले उन्हीं को पता चलता था। इससे पहले कि वनविभाग हरकत में आता तब तक हम लोग ही आग पर काबू पा लेते थे। अब जंगलों में स्थानीय समुदाय न होने की वजह से वनविभाग को दो दिन बाद आग की खबर मिल पाती है, तब तक आग विकराल रूप धारण करके अपना काम कर चुकी होती है।
इस आग से सबसे ज़्यादा नुकसान उनको है, जंगल से जिनका जीवन सीधे तौर पर जुड़ा है, वन्य प्राणी, जीव जन्तु, पशु पक्षी तथा स्थानीय समुदाय। एक तरफ सरकार द्वारा इसी राजाजी पार्क में हाथियों को बचाने के लिये करोड़ों रूपये की योजना को अमल में लाते हुये, वनविभाग के माध्यम से हाथियों के लिये जल स्रोतों के निर्माण की बात की जा रही है, वहीं दूसरी ओर आज लगभग एक पखवाड़े से लगी इस आग की चपेट में आने के कारण सबसे बड़ा खतरा यहां के हाथियों के लिये बना हुआ है, जिनकी सुध लेने वाला आज कोई नहीं है। जंगलों में लगी इस आग से पहले से बह रहे जल स्रोतों को भी खतरा पैदा हो चुका है, जो अगर इस मौसम में सूख गये तो बारिश आने पहले इनके पनपने की कोई संभावना नहीं होगी। पानी के न मिलने पर इस क्षेत्र के हाथियों का तांडव आस-पास के गांवों में शुरू हो जायेगा।
यहां रह रहे 60 वर्षीय वनगुजर मरहूम नूरआलम का साफ-साफ कहना था कि
‘हाथियों के लिये बनाये जा रहे स्रोतों से तो वनविभाग को ही फायदा होने वाला है, न कि हाथियों को‘।
फिलहाल राजा जी पार्क में इन जलस्रोतों का निर्माण नहीं हो रहा है। जहां कुछ निर्माण हुआ भी है, तो वहां केवल खाना पूर्ति भर ही की गयी है। ऐसी योजनाओं के तहत वनविभाग द्वारा हर बार नदियों में ही कुछ खड्डे खोद दिये जाते हैं जो कि बारिश के बाद फिर बालू से भर जाते हैं।
दुर्लभ होते वन्य-जन्तुओं के लगातार लुप्त हो जाने का ढिंढोरा पीट-पीट कर रोने वाले लोग आखिर इस तथ्य से क्यूं अंजान बने हुये हैं कि इसी आग के चलते दुर्लभ वन्य प्राणी लुप्त होते जा रहे हैं और जिसे लेकर उनका चहेता वनविभाग जानबूझ कर लापरवाह बना हुआ है।
इन वनों में इस समय बाघ और शेर विलुप्त हो चुके हैं, इनके विलुप्त होने का भी एक बड़ा कारण आग को माना जा सकता है। चूंकि गर्मी के दिनों में बाघ वनों में ठंडी जगह पर रहते हैं। इन दिनों में इनका असली ठिकाना कोई गुफा, खोह या पहाड़ी के नीचे के वे गड्ढे आदि होते हैं, जो कि वनों में लगने वाली आग से घिर जाते हैं, अपने स्थानों से न निकल पाने के कारण वे वहीं जल कर खाक हो जाते हैं। आग के लगने से यहां के अन्य जंगली जानवरों जैसे पाढ़ा, सांभर, हिरण व खरगोश आदि का बदहवास होकर शहरों की ओर रुख करना भी इनके लिये ख़तरे से खाली नहीं रहता।
पर्यावरण के नाम पर दुनिया भर में बहस का मुद्दा बने वनों व वन्य जन्तुओं को बचाने के लिये भी सबसे ज्यादा जरूरी है, कि वनों से प्राकृतिक रूप से जुड़े स्थानीय वनसमुदायों का सहयोग लिया जाये। जिनकी भागीदारी के बिना जंगलों व जंगली जानवरों के आस्तित्व को सुरक्षित नहीं किया जा सकता और न ही आग पर काबू पाया जा सकता है। वनाधिकार कानून का प्रभावी क्रियान्वन इसके लिये एक कारगर हथियार साबित हो सकता है। इस विशिष्ट कानून की प्रस्तावना में वनों में रहने वाले समुदायों के साथ हुये ऐतिहासिक अन्यायों का प्रमुखता के साथ उल्लेख किया गया है।
वास्तव में ये ऐतिहासिक अन्याय केवल मानव समुदायों के साथ ही नहीं हुये, बल्कि देश के जंगलों व इनमें रहने वाले वन्य जन्तुओं के साथ भी किये गये हैं और जिन्हें अन्जाम देने वाली ताकतों में सबसे बड़ा बुनियादी कारक वनविभाग है। किसी भी सरकार के कायदे कानूनों को न मानने वाली यही सरकारी संस्था मध्य भारत में फैली माओवादी हिंसा का भी सबसे बड़ा कारण है। इसलिये राजाजी पार्क एवं उत्तराखंड के अंदर की आग का मस्अला हकीकत में पर्यावरणीय न्याय का व सामजिक न्याय का मस्अला है, जिसको अगर गंभीरता से नहीं लिया गया तो आने वाले दिनों में मानव समाज को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
रोमा,
लेखिका प्रसिद्ध पर्यावरण व वनाधिकार कार्यकर्ता हैं।