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अपनी भाषा, संस्कृति और सिनेमा, इतिहास को लेकर हम कितने संवेदनशील है?

भारतीय साहित्य में विभूति भूषण बंदोपाध्याय का गांव पर लिखा उपन्यास पथेर पांचाली (Vibhuti Bhushan Bandopadhyay's novel Pather Panchali written on the village) क्लासिक रचना है। विभूति भूषण का साहित्य बिहार, झारखण्ड और बंगाल के गांवों पर, वहां के आम लोगों और उनकी जीवनचर्या पर केंद्रित है।

विश्वप्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजीत रे ने इस उपन्यास पर फ़िल्म Pather Panchali (पथेर पांचाली) बनाई जो भारतीय सिनेमा के लिए रेनेसां जैसा है और विश्व सिनेमा के लिए क्लासिक। साहित्य और सिनेमा के पाठकों को यह उपन्यास जरूर पढ़ना चाहिए और फ़िल्म भी देखनी चाहिए।

यह चित्र कोलकाता से एक किशोर, रीत ने भेजा है, जिसका परिवार हमारे पड़ोस में है। उसके पिता और ताऊ डॉक्टर हैं और उसके दादा बांग्लादेश में संस्कृत के महोउपाध्याय थे,  जिन्होंने अपनी जमींदारी जनता की सेवा में अर्पित की। उनके निधन पर बांग्लादेश में राष्ट्रीय शोक मनाया गया।

जन्म के बाद यह बच्चा हमारे पास पला बढ़ा। बंगला में ताई को जेठीमा कहा जाता है (Tai in the bungalow is called Jethima)। रीत तुतलाते जुबान में सविता जी को जेम्मा कहा करता था और पूरे सोदपुर की वह जेम्मा बन गयी।

कोरोना और तूफान के बारे में हालचाल जानने के लिए रीत को मैंने व्हाट्सएप्प किया था। जवाब में कुशल समाचार के साथ उसने यह चित्र भेजा।

हुआ यह कि अमेरिका में कोरोनाकाल में टाइमपास के लिए सत्यजीत रे की इस क्लासिक ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म को रंगीन बना दिया।

फिर क्या था? बंगाली समाज में अम्फान के बाद फिर तूफान आ गया, अपनी सांस्कृतिक विरासत से छेड़छाड़ के खिलाफ।

हिंदी की पुरानी क्लासिक फिल्मों को रंगीन बनाने या उसका रिमेक बनाने का कभी ऐसा विरोध हुआ हो कि नहीं जानता।

बंगाल की आम राय है कि अगर किसी को अपनी मातृभाषा, संस्कृति और इतिहास से समझ नहीं है, चाहे वह कितनी बड़ी टॉप हो,

मनुष्य नहीं है।

हम क्या हैं?

पलाश विश्वास