वर्चुअल हिन्दू राष्ट्रवाद (Virtual Hindu nationalism) फुसलाता कम है लेकिन अनुकरण करने पर ज्यादा जोर देता है। इसकी मूल विशेषता (Basic feature of virtual Hindu nationalism) है बहलाना-फुसलाना-बरगलाना। वर्चुअल हिंदू राष्ट्रवाद की एक चौकी फेसबुक और सोशल मीडिया भी है। यहां पर आपको आसानी से इनके राष्ट्रवादी अंधभक्त मिल जाएंगे।
हम सब लोकतंत्र में मगन हैं और इस भ्रम में हैं कि हम सब समान हैं। हमें यह भी भ्रम है कि सत्ता जनता की सेवा के लिए है। फलतः हमें अन्ना जैसों की हुंकार अच्छी लगती है। लोकतंत्र का समानता से कम असमानता और गुलामी से गहरा रिश्ता है। भारत जितना शक्तिशाली हो रहा है जनता में असमान और असहाय लोगों की संख्या उतनी ही बढ़ रही है।
आमलोग कहते हैं लोकतंत्र संकटग्रस्त है। जी नहीं, यह आमलोगों एवं शिक्षितों की चेतना का संकट है। मध्यवर्ग से लेकर अशिक्षितों तक चेतना में संकट छाया हुआ है। लोकतंत्र संकट मुक्त तब तक नहीं होगा जब तक हम सचेतन लोकतांत्रिकबोध पैदा नहीं करते। लोकतांत्रिक चेतना और मजबूत लोकतांत्रिक संरचनाओं के अभाव का आरएसएस और आतंकी संगठन सबसे अधिक दुरुपयोग कर रहे हैं।
इस प्रसंग में शहरयार की एक कविता याद आ रही है जो आरएसएस-मोदी पर सटीक घटती है-
जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे / शहरयार
जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे
वक़्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे।
जिनको वह्शत से इलाक़ा नहीं वे क्या जानें
बेकराँ दश्त मेरे हिस्से में आया कैसे।
कोई इक-आध सबब होता तो बतला देता
प्यास से टूट गया पानी का रिश्ता कैसे।
हाफ़िज़े में मेरे बस एक खंडहर-सा कुछ है
मैं बनाऊँ तो किसी शह्र का नक़्शा कैसे।
बारहा पूछना चाहा कभी हिम्मत न हुई
दोस्तो रास तुम्हें आई यह दुनिया कैसे।
ज़िन्दगी में कभी एक पल ही सही ग़ौर करो
ख़त्म हो जाता है जीने का तमाशा कैसे।
जगदीश्वर चतुर्वेदी