अब यह पूरी तरह साफ हो गया है और दिनोंदिन स्पष्ट होता जा रहा है कि हमारी सरकारें कोरोना की बढ़ती संक्रमण से उबरने, जूझने, निपटने में नाकाम एवं असफल सिद्ध हो चुकी हैं। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की खामियों को दूर करने और उसमें सुधार करने के बजाय अब तो सरकारें कोरोना संक्रमण के आंकड़ों को लेकर ही आपस में लड़ने लगीं हैं। इसका फायदा मीडिया और प्राइवेट हास्पीटल उठा रहे हैं, जिससे आम जनमानस में दहशत, भय का माहौल बढ़ने लगा है। दिन-प्रतिदिन संक्रमण एवं मौत के बढ़ते आंकड़ें सरकारों की पोल खोलने लगे हैं, इससे स्थितियां और भयावह होने, लगने लगी हैं।
इस समय जिम्मेदार मीडिया, जनप्रतिनिधि, नौकरशाह, अधिकारी, कर्मचारी सब एक दूसरे को आपस में उलझाये रखने, गुमराह करने में लगे हुए हैं। समूचा शासन-प्रशासन तंत्र कोरोना से निपटने के लिए पुख्ता इंतजाम एवं उपाय करने, सरकारी एवं निजी स्वास्थ्य सुविधाओं एवं व्यवस्थाओं को दुरूस्त करने और व्यवस्थागत खामियों एवं त्रुटियों को दूर करने में पूरी तरह असफल हो चुका है। प्रशासनिक कसावट से कोरोना की अफरातफरी को रोकने में सरकारें नाकाम हो चुकी हैं। सरकारें लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ा रहे हैं, और जनता खामोश तमाशा देखने में व्यस्त है। अब जनता पूरी तरह जान या मान चुकी है कि सरकारें इसी तरह चलतीं हैं, और इसी व्यवस्था में रहना, जीना-मरना है।
इस कड़ी में अब
कोरोना के मुफ्त टीके के वादे तो दूर की बात है, चुनावों में कोविड गाईड-लाईन तक की धज्जियां उड़ रहीं हैं, लेकिन इस मसले को उठाने वाला कोई नहीं है। चुनाव में कोरोना कोई मुद्दा ही नहीं है। चुनावों में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, विकास आदि रोजी-रोटी एवं इसके साधन, महंगाई भी मुद्दे नहीं हैं। अब देश की राष्ट्रीय राजनीति का एकमात्र मुद्दा येन-केन-प्रकारेण किसी भी तरह से चुनाव जीतना है, सरकार बनाना है।
इधर तमाम कोशिशों एवं प्रयासों के बावजूद कोविड-19 का संकट रूकने का नाम नहीं ले रहा है। दुनियाभर के डॉक्टरों, वैज्ञानिकों, अनुसंधानकर्ताओं से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन तक के अनुमान, दावे, घोषणाएं, यहां तक की शोध परक ठोस जानकारियां सब कुछ कयास मात्र साबित हो रहे हैं। अब यह साफ होने लगा है कि कोरोना वायरस के बारे में किसी के पास कोई ठोस या पुख्ता जानकारी नहीं है, जिससे यह पता चल सके कि कोरोना वायरस का मूल कारण क्या है ? कोरोना वायरस के फैलने, पनपने की मूल वजहें क्या हैं ? कोरोना वायरस के उद्गम का मूल स्रोत क्या है ? कोरोना वायरस के रोकथाम के क्या उपाय हैं या होने चाहिए ? कोरोना वायरस पर नियंत्रण कैसे एवं कब तक संभव है ? कोरोना वायरस की गति, फैलाव, प्रसार, विकरालता एवं भयावहता कब रूकेगी ? कैसे रूकेगी ?
एक बार फिर यह बात कही जाने लगी है कि कोरोना का भ्रम दुनिया की तमाम विकसित अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान पहुंचाने के लिए फैलाया गया है ? इस समय इस तरह की सैकड़ों शंकाएं, आशंकाएं, सवाल, डर, भय, चिंताएं लोगों के मन में चल रहे हैं। लोगों के रोजगार, कामधंधे, विकास, प्रगति सब कुछ एक बार फिर ठप पड़ने लगे हैं। क्या हमारी राजनीतिक पार्टियां और राजनीतिक व्यवस्था हमारे समाज की आंतरिक संरचनाओं के गुणात्मक सुधार के लिए प्रयास करने के बजाय जनमानस को इसी तरह उलझा कर वोट लेते रहेंगे ? और क्यों न लें ? जब उन्हें, लोगों को इसी तरह विवेकशून्य, चेतनाहीन बनाए रख कर ही वोट, सत्ता मिलती रहेगी।
क्या हमारा जनमानस इस पर गंभीरतापूर्वक विचार कर सोचने के लायक है कि क्या हमारी सरकारें सिर्फ हमारा वोट लेकर हम पर शासन एवं नियंत्रण करने मात्र के लिए बनती, बनायी जाती हैं ? आजादी के सात दशक में हमने क्या किया जब लोग अपने जीवन की चिंता नहीं कर पा रहे हैं ? बाजारों में, चुनावों में, सार्वजनिक जगहों पर जानवरों की तरह टूट पड़ रहें हैं। अपनी स्वयं की चिंता भी नहीं है कि इस तरह के बर्ताव से स्वयं अपने ही जान को जाखिम में डाल रहे हैं। आखिर कब तक हम जाहिल समाज की तरह अपनी मूर्खताओं को नई पीढ़ियों में हस्तांतरित करते रहेंगे ? इस तरह के सवालों पर विमर्श की जरूरत है।
मुफ्त कोविड टीका अब चुनावी घोषणा पत्र का मुख्य मुद्दा नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, विकास आदि रोजी-रोटी के मुद्दे भी हमारी सरकारों के चुनावी मुद्दे नहीं हैं। भारत सरकार अपने देश के नागरिकों को टीका दे नहीं पा रही है, लेकिन मानवता की दुहाई देकर विदेशों में मुफ्त टीका भेज रही है। लोग स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के चलते दम तोड़ रहे हैं, और सरकारें निजी अस्पतालों पर नियंत्रण करने के बजाय लूट-खसोट में उन्हीं का साथ दे रहें हैं। आज स्थिति यह हो गई है कि जो अस्पताल गया यानि उसकी जीवनभर की सारी कमाई खत्म।
Is it democracy?
सरकारी अस्पतालों में लापरवाही और निजी अस्पतालों में लूट, आखिर जनता कहां जायेगी ? क्या यही लोकतंत्र है, क्या यही लोकशाही है, जहां जनप्रतिनिधि एवं नौकरशाह शाही अंदाज में ठाठबाट से ऐश कर रहे हैं, और जनता मुफ्त टीके के लिए बेमौत मर रही है ? सरकारें सिर्फ अपनी सरकारें बचाने की चिंता में लगीं हैं, यही हकीकत है। यकीनन यदि इसी तरह लोकतंत्र में सरकारें बनती रहीं तो आने वाले कई दशकों तक भारत विकसित देशों की सूची में आ ही नहीं पायेगा।
डॉ. लखन चौधरी
(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)