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When Babu Jagjivan Ram could not become PM due to being a Dalit

आज स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाबू जगजीवनराम की जयंती है। एक समय ऐसा आया जब दलित होने के कारण बाबू जगजीवनराम प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, क्योंकि आरएसएस मोरारजी देसाई के साथ खड़ा हो गया था।

दरअसल जनता पार्टी की राजनीति में जेपी के अनुयायी और डॉ. लोहिया के अनन्य सहयोगी कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया, बाबू जगजीवन राम व रामधन को आगे बढ़ा रहे थे। इस गुट में हेमवती नंदन बहुगुणा भी जुड़ गए थे, जो आरएसएस के घनघोर विरोधी थे, अब ये बात अलग है कि बहुगुणा की संतानें आजकल आरएसएस की सेवा कर रही हैं।

जेएनयू में प्रोफेसर और समाजवादी चिंतक आनंद कुमार ने इस लेखक को कुछ दिन पहले एक बातचीत में बताया था कि कमांडर साहब चूंकि दलितों को राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए काम करते रहते थे इसलिए उनका सोचना था कि मोरारजी का विकल्प बन रहे चौधरी चरण सिंह के मुकाबले बाबू जगजीवनराम बेहतर साबित होंगे क्योंकि उनके अंदर जो दोष थे, वह आपातकाल का विरोध करके खतम हो चुके। रामधन तो आपातकाल में जेल भी गए थे।

अगर कमांडर साहब की चली होती तो देश को पहला दलित प्रधानमंत्री मिलता

प्रो. आनंद कुमार ने बताया कि उनको जगजीवनराम को लेकर कमांडर साहब से बात करने का लंबा मौका मिला क्योंकि उन दिनों वह एक संसदीय समिति के सदस्य के रूप में संभवतः पेरिस से लोटते समय लंदन में रुके थे। उस समय आनंद कुमार रिसर्च के लिए शिकागो से लंदन आ गए थे। एक तरह से वहां वह ही उनके ऑफीसर ऑन स्पेशल ड्यूटी बने। वहां गोरे साहब राजदूत थे, उन्होंने दूतावास में कमांडर साहब का इंतजाम किया था। लेकिन कमांडर साहब ने कहा कि हमें तुमसे जरूरी बातें करनी हैं इसलिए

हमको वाईएमसीए में ठहरना है। उनके साथ कल्पनाथ राय भी थे, वह कांग्रेस में थे और उसी डेलीगेशन का हिस्सा थे।

प्रो. आनंद कुमार ने बताया कि, “लंदन दिखाने के बहाने कमांडर साहब से तीन-चार दिन खूब बात हुई। वह यही मानते थे कि जनता पार्टी की राजनीति का अगला अध्याय अब जयप्रकाश जी की सहमति से यही होगा कि अब मोरारजी से नहीं संभल रहा है और चरण सिंह चलने नहीं दे रहे हैं, राजनारायण बाहर हैं। कुछ मुस्लिम साथियों से भी बात हुई है कि जब मैं लौटूंगा तो हम लोग आरएसएस के चंगुल में फंस चुके मोरारजी से देश को बचाने के लिए जगजीवन बाबू को प्रधानमंत्री बनवाएंगे।“

अगर कमांडर साहब की सही समय पर चलती तो सौ फीसदी जगजीवनराम प्रधानमंत्री बन गए होते।

कमांडर साहब कहते थे कि हमने तो मोरारजी को मौका दे दिया, भरसक सहयोग भी किया, लेकिन मोरारजी भाई खांटी कांग्रेसी अंदाज़ में सरकार चला रहे हैं। समाजवादियों की अनदेखी करते हैं, तो हम लोग क्यों न मोरारजी भाई की जगह जगजीवन बाबू को प्रधानमंत्री बनाएं।

प्रो. आनंद कुमार ने बताया कि, माता जी (सरला भदौरिया, कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया की पत्नी) जयप्रकाश जी के पास गईं और जय प्रकाशजी ने बाबू जगजीवन बाबू के समर्थन में एक पत्र लिखा। उन्होंने चिट्ठी में लिखा कि जो समस्याएं चल रही हैं, मेरी राय में उनके समाधान के लिए अब बाबू जगजीवनराम को प्रधानमंत्री बनाया जाए। और उस चिट्ठी की बड़ी चर्चा हुई। क्योंकि माताजी को न करना कमांडर साहब को बहुत मुश्किल था। और वह (जेपी) बहुत क्षुब्ध थे, मोरारजी को उन्होंने एक पत्र भी लिखा था। उस पत्र को लाने या तैयार कराने में माताजी और कमांडर साहब की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी।

सवाल है कि अगर बाबू जगजीनवराम उस समय प्रधानमंत्री बन गए होते तो आज की राजनीति की दिशा कुछ अलग होती ?

अमलेन्दु उपाध्याय (Amalendu Upadhyaya) लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक व टीवी पैनलिस्ट हैं। वह हस्तक्षेप के संपादक हैं। अमलेन्दु उपाध्याय (Amalendu Upadhyaya) लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक व टीवी पैनलिस्ट हैं। वह हस्तक्षेप के संपादक हैं।

प्रो. आनंद कुमार के मुताबिक अगर बाबू जगजीवन राम उस समय प्रधानमंत्री बन गए होते तो बाद में कांशीराम के जरिए जो दलित अस्मिता का एक क्षेत्रीय उभार हुआ, उसको एक राष्ट्रीय अभिव्यक्ति मिलती। देश के पैमाने पर जाति के सवाल पर समाजवादियों का अपनी एक साफ समझ थी। गांधी की एक विरासत थी और अंबेडकर की राजनीति का भी एक योगदान था। हरित क्रांति के बाद मध्यम जातियां बहुत आक्रामक होने लगीं। उनका झगड़ा बड़ी जातियों से नहीं था। बड़ी जातियों ने तो सरकारी नौकरियां, शहरी नौकरियां यह सब कर लिया था। फंसे थे भूमिहीन मजदूर के रूप में दलित, और रोज-रोज की खेती के रूप में मध्यम जातियां। उस प्रश्न का भी एक ठोस समाधान होता अगर जगजीवन बाबू उस समय प्रधानमंत्री बन जाते। जो दबंगों की राजनीति चली देहाती भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान मे उसका कोई समाधान होता, क्योंकि जगजीनवराम को अपने दलित आधार के लिए न्याय करना था और बाकी लोगों को भी समेट कर चलना था। वो कांशीरामजी की तरह दलित केंद्रित राजनीति के तो नायक थे नहीं, इसका उनको अभ्यास भी था। कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने बिहार जैसे राज्य से अपना अस्तित्व बनाए रखा, तो वह कुछ कर लेते।

बाबू जगजीनव राम आजादी के आंदोलन से निकले थे, उन्होंने अंबेडकर साहब के समानांतर अपनी राजनीति की थी। और जब दलितों और कांग्रेस के बीच बहस चली तो उन्होंने पूरे देश में दलितों के सम्मेलन कराए। 15 साल से सत्ता में थे, उस समय दलित अस्मिता के सबसे बड़े प्रतीक थे। अंबेडकरवादी भी उनसे नाराज़ नहीं रहते थे, क्योंकि काम तो आखिर उन्हीं से होता था। उनके अंदर सूझ-बूझ थी, वह कुछ सही समाधान कर लेते।

प्रो. आनंद कुमार कहते हैं कि लेकिन वह इतिहास का अब एक ऐसा अध्याय है जिसके बारे में हम और आप अब केवल अनुमान ही लगा सकते हैं।

अमलेन्दु उपाध्याय

 

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