यह एक पहेली रही है कि दूध में उपस्थित एक शर्करा (Milk sugar) Lactose (लैक्टोज़) को पचाने की क्षमता सभी मनुष्यों में नहीं पाई जाती। जिन लोगों में यह क्षमता नहीं होती उन्हें दूध नहीं सुहाता। इसके अलावा, एक बात यह भी है कि आम तौर पर लैक्टोस को पचाने की क्षमता (Lactose digestibility) बचपन में पाई जाती है और बड़े होने के साथ समाप्त हो जाती है। प्रश्न यह है कि यह मनुष्य में लैक्टोस को पचाने की क्षमता कब आई और कैसे फैली।
This #WorldMilkDay we honour the visionary leadership of Pt. Nehru, Sardar Patel, Lal Bahadur Shastri & Indira Gandhi, which forged the path for India to grow from a milk powder importer to the largest milk-producing nation, through the White Revolution. pic.twitter.com/NoJLERaOU8
— Congress (@INCIndia) June 1, 2020
यूएस सरकार के नेशनल सेंटर फॉर बायोटैक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन (National Center for Biotechnology Information) पर उपलब्ध एक दस्तावेज के मुताबिक मनुष्यों और घरेलू पशुओं के दूध में प्रचुर मात्रा में होने के कारण Lactose (लैक्टोज़) एक बहुत ही महत्वपूर्ण शर्करा है। लैक्टोज एक मूल्यवान पोषक तत्व के रूप में एक मूल्यवान संपत्ति है और किण्वन प्रक्रियाओं में मुख्य सब्सट्रेट है जो कि दही और केफिर (yogurt and kefir) जैसे किण्वित दूध उत्पादों (fermented milk products) के उत्पादन का कारण बना।
World Milk Day - 1st June
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Theme 2020: "20th Anniversary of World Milk Day"#WorldMilkDay pic.twitter.com/OSsRVvLnvQ— Navneet kr yadav (@navneetroyal2) June 1, 2020
लैक्टोज के संश्लेषण और आत्मसात करने के लिए अग्रणी जैव रासायनिक प्रतिक्रियाओं के अध्ययन (study of the biochemical reactions) ने बायोसिंथेटिक और कैटोबोलिक प्रक्रियाओं की समझ के लिए मूल्यवान मॉडल प्रदान किए हैं। लैक्टोज-हाइड्रोलाइजिंग एंजाइम संरचनात्मक और phylogenetically विभिन्न प्रकार के बीटा-गैलेक्टोसिडेसिस और बैक्टीरिया सेल्योज के एंजाइमैटेरियन क्षरण में शामिल हैं।
लैक्टोज के बायोट्रांसफॉर्म (Biotransformation of lactose,), या तो एंजाइमैटिक या किण्वक प्रक्रियाओं द्वारा, डेयरी और फार्मास्युटिकल उद्योगों में विभिन्न प्रकार के औद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए महत्वपूर्ण है।
देशबन्धु में प्रकासित एक लेख के मुताबिक
आज से लगभग 5500 साल पहले युरोप में मवेशियों, भेड़-बकरियों को पालने की शुरुआत हो रही थी, लगभग उसी समय पूर्वी अफ्रीका में भी पशुपालन का काम ज़ोर पकड़ रहा था।
पूर्व में हुए पुरातात्विक शोध के अनुसार पूर्वी अफ्रीका में प्रथम चरवाहे लगभग 5000 साल पूर्व आए थे। आनुवंशिक अध्ययन बताते हैं कि ये निकट-पूर्व और आजकल के सूडान के निवासियों के मिले-जुले वंशज थे। ये चरवाहे वहां के शिकारी-संग्रहकर्ता मानवों के साथ तो घुल-मिल गए; ठीक उसी तरह जैसे पशुपालन (Animal husbandry) को एशिया से यूरोप लाने वाले यामनाया चरवाहों ने वहां के स्थानीय किसानों और शिकारियों के साथ प्रजनन सम्बंध बनाए थे। अलबत्ता, लगभग 1000 साल बाद भी पूर्वी अफ्रीका के चरवाहे स्वयं को आनुवंशिक रूप से अलग रख सके यानी उनके साथ संतानोत्पत्ति के सम्बंध नहीं बनाए और वहां के अन्य स्थानीय लोगों से अलग ही रहे।
अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्राचीन समय के लगभग 41 उन लोगों के डीएनए का विश्लेषण किया जो वर्तमान के केन्या और तंज़ानिया के निवासी थे। उन्होंने पाया कि आजकल के चरवाहों के विपरीत इन लोगों में लैक्टोस को पचाने की क्षमता नहीं थी। सिर्फ एक व्यक्ति जो लगभग 2000 वर्ष पूर्व तंज़ानिया की गिसीमंगेडा गुफा में रहता था, में लैक्टोस को पचाने वाला जीन (Lactose digestive gene) मिला है जो इस ओर इशारा करता है कि इस इलाके में लैक्टोस के पचाने का गुण (Lactose digestive properties) किस समय विकसित होना शुरू हुआ था। इस व्यक्ति के पूर्वज चरवाहे और उसके साथी यदि दूध या दूध से बने उत्पादों का सेवन (Intake of milk products) करते होंगे तो वे किण्वन के ज़रिए दही वगैरह बनाकर ही करते होंगे क्योंकि उसमें लैक्टोस लैक्टिक अम्ल में बदल जाता है। मंगोलियन चरवाहे (Mongolian shepherd) लैक्टोस को पचाने के लिए सदियों से यही करते आए हैं।