भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावपूर्ण विशेषता (The most important and influential feature of the Indian economy) इसका कृषि एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था होना है। एक तरफ यह इसकी विशेषता एवं उपलब्धि है, तो दूसरी ओर यह एक बड़ी चिंता एवं चुनौती भी है।
स्वतंत्रता के ढाई-तीन दशक तक कृषि विकास की वृद्धि दर (Agricultural growth rate) हमारी अर्थव्यवस्था के लिए चिंताजनक एवं चुनौतीपूर्णं बनी रही। इसके सुधार, विकास के लिए अभी तक के सभी सरकारों द्वारा लगातार अनेकों प्रकार की नीतियां, योजनाएं, कार्यक्रम लाए जा रहे हैं, लेकिन कृषि एवं ग्रामीण विकास की चिंताएं एवं चुनौतियां कम होने का नाम नहीं ले रहीं हैं।
हरित क्रांति से कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता में अच्छीखासी बढ़ोतरी दर्ज की गई, लेकिन रासायनिक उर्वरकों एवं दवाईयों के अंधाधुंध प्रयोग ने कैंसर जैसी घातक बीमारी के साथ स्वास्थ्य के लिए बड़ी चिंता एवं चुनौती पैदा कर दी है।
इधर सरकारों की उपेक्षा एवं अनदेखी के बावजूद कृषि एवं ग्रामीण विकास आज भी हमारी अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी उम्मीद बनी हुई है, क्योंकि कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्र हमारे देश की विशाल जनसंख्या का न केवल पालन-पोषण कर रहें हैं बल्कि करोड़ों लोगों को रोजगार उपलब्ध कराते हुए विकास की राह दिखा रहे हैं। भारत़ आज भी मूलतः एक कृषि प्रधान राज्य-देश है, जहां की दो-तिहाई यानि 67 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या इस समय गांव में रह रही है, तथा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष तौर पर कृषि पर निर्भर है। इस समय देश की अर्थव्यवस्था में कृषि एवं कृषि सहायक क्षेत्र का योगदान 10-15 प्रतिशत है, एवं देश की दो-तिहाई जनसंख्या की आजीविका प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। स्पष्ट है कि देश की तीन-चैथाई से अधिक जनसंख्या आज भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से रोजगार, खान-पान, रहन-सहन यानि अपनी जीवनचर्या अर्थात् आजीविका के लिए कृषि अथवा खे़ती-किसानी एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आश्रित एवं निर्भर है।
कृषि, किसी भी राज्य-देश की अर्थव्यवस्था का एक अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र होता है जिसके विकास के बगैर अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों का विकास न केवल अधूरा एवं अपूर्णं बल्कि असंभव होता है। कृषि जहां एक ओर अर्द्ध विकसित एवं विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं में राष्ट्रीय आय का सबसे बड़ा स्रोत होती है, इन देशों के लोगों के रोजगार एवं जीवनयापन का मुख्य साधन होती है; वहीं दूसरी ओर विकसित अर्थव्यवस्थाओं में व्यापारिक, वाणिज्यिक एवं औद्योगिक विकास एवं प्रगति का आधार होती है। वास्तव में कृषि, अर्द्ध विकसित एवं विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ तथा विकास की कुंजी होती है, वहीं विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं की आधार एवं नींव होती है, जिसके समग्र, समावेशी एवं सम्पूर्ण विकास के बगैर प्रगति एवं समृद्धि की संकल्पना ही अधूरी एवं निरर्थक है। भारत एवं छत्तीसगढ़ जैसे ग्रामीण पृष्ठभूमि में इसका महत्व और भी बढ़ जाता है, जहां की दो तिहाई से अधिक जनसंख्या गांवों में रहती है।
आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहर लाल नेहरू ने उचित कहा है कि ‘बड़े संयत्रों सहित किसी भी अन्य वस्तु की अपेक्षा कृषि अधिक महत्वपूर्णं है, क्योंकि कृषि उत्पादन सभी प्रकार की आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है, कृषि ही प्रगति के लिए साधन जुटाती है।’ आज जबकि कृषि का महत्व देश की अर्थव्यवस्था में लगातार कम होता जा रहा है इसके बावजूद कृषि क्षेत्र का महत्व न केवल उल्लेखनीय है अपितु महत्वपूर्णं बना हुआ है। आज भी देश की ‘अर्थव्यवस्था में कुल रोजगार का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र से ही उत्पन्न होता है। जनगणना वर्ष 2011 के अनुसार कृषि क्षेत्र से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 70 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिलता है।’ कृषि की महत्ता एवं सार्थकता को रेखांकित करने के लिए यह पर्याप्त है।
देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में कृषि का अत्यंत ही सकारात्मक एवं सार्थक महत्व एवं योगदान है। देश की कुल श्रम शक्ति का आधा हिस्सा कृषि क्षेत्र से संबंधित है। देश के आधा प्रमुख, लघु एवं कुटीर उद्योगधंधों को कच्चा माल कृषि क्षेत्र ही प्राप्त होता है, तथा देश से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में लगभग 15 से 20 प्रतिशत कृषि वस्तुओं का अनुपात होता है। जहां तक देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (जीडीपी यानि सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि क्षेत्र के योगदान की बात है तो उसमें लगातार गिरावट आ रही है, लेकिन इससे कृषि क्षेत्र के महत्व में कोई कमी नहीं आने वाली है।
स्वतंत्रता के समय देश की अर्थव्यवस्था में कृषि एवं कृषि सहायक क्षेत्र का योगदान लगभग दो तिहाई के आसपास हुआ करता था, किन्तु यह स्थिति धीरे धीरे कम होती चली गई। 1950-51 में जिस कृषि क्षेत्र का योगदान देश की अर्थव्यवस्था में 55 प्रतिशत से ऊपर था वह आज घटकर 10-15 प्रतिशत तक रह गया है। यह कृषि क्षेत्र के लिए अत्यंत चिंताजनक एवं चुनौतीजनक स्थिति है।
देश में इस समय कृषि में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक दवाईयों का अंधाधुंध प्रयोग हो रहा है जिसके कारण कृषि भूमि की गुणवत्ता एवं उर्वरता शक्ति दिनोंदिन गिरती जा रही है। कृषि भूमि तेजी से जहरीली होती जा रही है। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक दवाईयों के अंधाधुंध उपयोग के कारण प्रति एकड़ या हैक्टेयर कुल उत्पादकता या पैदावार बढ़ तो रही है, लेकिन ज़मीन की प्राकृतिक उर्वराशक्ति लगातार गिर रही है। जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है जिसके कारण रबी फसल पर इसका प्रभाव पड़ता है, जो कि बेहद चिंता की बात है।
कृषि विकास के लिए जो निवेश हो रहा है वह अधिकांशतया पूंजीपतियों, उद्योगपतियों एवं बड़े किसानों के द्वारा हो रहा है जिससे सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली आर्थिक सहायता (सब्सिडी) इन्हीं वर्ग के लोगों के खाते में जा रही है। सरकार द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता में उर्वरक, सिंचाई, खाद, बीज, कृषि यंत्र एवं उपकरण, विद्युत, और फसल बीमा आदि पर दी जाने वाली आर्थिक सहायता सम्मिलित होती है। लेकिन चिंता की बात यह है कि सरकार द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता से कृषि क्षेत्र का विकास नहीं हो पा रहा है बल्कि इसका दुरूपयोग अधिक हो रहा है। सरकार द्वारा दी जाने वाली इस आर्थिक सहायता का अधिकांश हिस्सा बड़े किसान ले ले रहे हैं और छोटे एवं मध्यम किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। इसलिए सरकार के द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता अपना प्रभाव छोड़ने में असफल रही है। इसलिए इस संबंध में प्रश्न भी उठता है कि कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली सहायता न तो न्याय संगत है और नहीं फलोत्पादक है।
शेनगेन फैन, अशोक गुलाटी एवं सुखदेव थोराट ने 2008 में जो शोध किया उसके अनुसार ‘कृषि सामग्री पर दी जाने वाली सब्सिडी से गरीबी दूर करने अथवा कृषि विकास को गति देने की दिशा में कोई विशेष लाभ नहीं होता। इसके मुकाबले ग्रामीण सड़कों या कृषि शोध एवं विकास या सिंचाई, यहां तक स्वास्थ्य और शिक्षा पर होने वाले निवेश से अधिक लाभ प्राप्त होता है।’
इसका तात्पर्य यह है कि सरकार द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता से कुछेक व्यक्तियों को ही लाभ होता है जबकि सार्वजनिक एवं सामाजिक जन कल्याण नहीं हो पाता है। इस आर्थिक सहायता की रकम को ग्रामीण सामाजिक अधोसंरचना के विकास में खर्च करके धन को समुचित सदुपयोग एवं गांवों का पर्याप्त विकास किया जा सकता है। इस पर सरकारों को गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
कृषि में फसल विविधिकरण या फसल चक्र का अभाव है जिसके भूमि की उर्वरता शक्ति प्रभावित हो रही है। कृषि सहकारिता में भारी भ्रष्टाचार है। राज्य की अधिकांश कृषि खुदकाश्त पद्धति के अंतर्गत आती है, जिसके कारण कृषि में प्रौद्योगिकी का प्रयोग व्यापक रूप से नहीं हो रहा है और प्रति एकड़/हेक्टेयर उत्पादकता बहुत कम है। देश में सिंचाई सुविधाओं का समुचित विकास नहीं हो पाया है। उत्पादों के भंडारण की अपर्याप्त व्यवस्था के कारण इसके खराब होने की समस्या आम है। आज भी कृषि मजदूरों का पलायन एक बहुत बड़ी समस्या है।
उपर उल्लेखित बातों के अतिरिक्त एक सच्चाई यह भी है, और देश का एक बहुत बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग यह भी मानता है कि खेती-किसानी की हालत, दशा एवं दिशा वास्तव में बहुत अच्छी नहीं है। यह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्णं है कि स्वतंत्रता के सात दशक पूरे होने जा रहे हैं लेकिन देश के किसानों, खेती पर पूर्णं रूप से निर्भर रहने वाले लोगों, खेती-किसानी, एवं गांवों की हालत में कोई उल्लेखनीय सुधार या प्रगति नहीं हो पायी है। पिछले 18-19 वर्षों से राज्य में कृषि विकास का ढ़िंढ़ोरा पीटा जा रहा है, किन्तु न तो किसानों की स्थिति सुधरी और न ही गांवों की स्थिति बदली है, यहां तक कि कृषि एवं उसके सहायक कार्य-व्यवसाय पर निर्भर रहने वाले परिवारों एवं छोटे, मझोले, मध्यमवर्गीय किसानों की हालत या दशा में कोई उल्लेखनीय सुधार बिल्कुल भी नहीं हुआ है।
यह बात इससे और भी स्पष्ट एवं पुष्ट हो जाती है कि देश की जानी मानी संस्था ‘नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) के 70 वें दौर के सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार देश के गांवों में 55 से 58 प्रतिशत परिवारों की रोजी, रोटी एवं जिंदगी खेती-किसानी से ही चलती है, एवं इन परिवारों की औसत मासिक आय 6,426 रूपया है तथा देश के 52 प्रतिशत कृषक परिवार कर्ज के बोझ से दबे हैं। देश के 42 प्रतिशत कृषक विकल्प मिलने पर हमेशा के लिए खेती-किसानी छोड़ने को तैयार हैं। देश के 52.9 प्रतिशत किसानों पर आज औसतन 47,000 रूपए का ऋण है।’
संक्षेप में कृषि एवं ग्रामीण विकास की प्रमुख समस्याओं एवं चुनौतियों को इस प्रकार सरलता के साथ गंभीरता से समझा जा सकता है। सरकारी सहायता, अनुदान, छूट, बीमा, कर्जमाफी, सर्मथन मूल्य वृद्धि आदि उपायों के बावजूद किसानों की आमदनी एवं आर्थिक स्थिति में यथोचित सुधार परिलक्षित नहीं हो रहे हैं। किसानों की आत्महत्याएं रूक नहीं रही हैं। खेतिहर-ग्रामीण समुदाय में नशाखोरी एक गंभीर एवं ज्वलंत समस्या और चुनौती है। अधिक आर्थिक सहायता, छूट, अनुदान मिलने के कारण किसान मेहनती, उद्यमी बनने के बजाय आलसी, सुविधाभोगी बनते जा रहे हैं, जो उनकी आगामी पीढ़ियों के लिए ठीक नहीं है। इसके बावजूद कृषि एवं कृषि सहायक क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं।
अब किसानों के शैक्षिक स्तर को बढ़ाने, उनके रहन-सहन के स्तर को सुधारने की दिशा में काम करने और उन्हें उद्यमी बनाने-बनने के लिए स्वस्फूर्त प्रोत्साहित होने की जरूरत है। कृषि में फसल चक्र को अपनाते हुए छोटे एवं मध्यम किसानों तक प्रौद्योगिकी की पहुंच को सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है। राज्य में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को बढ़ावा दिये जाने की अत्यंत दरकार है। तथा समय की मांग के अनुरूप जैविक खेती को प्रोत्साहित किये जाने की आवश्यकता है। यह ठीक है कि नई सरकार नया नारा लेकर आई है, लेकिन इसे धरातल पर प्रभावशील बनाने में बहुत कड़ी निगरानी की जरूरत है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि किसी भी अर्थव्यवस्था के प्रारंभिक विकास में कृषि क्षेत्र के विकास का अत्यंत ही महत्वपूर्णं स्थान होता है। यह तथ्य इस मायने में और महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि किसी भी अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों का विकास कृषि के विकास पर ही निर्भर करता है। यह बात अलग है कि कालान्तर में अर्थव्यवस्था के विकास के साथ अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्व घटता चला जाता है। लेकिन यह कहना कतई ठीक नहीं है कि किसी अर्थव्यवस्था के विकास के किसी समय में कृषि क्षेत्र का योगदान एकदम समाप्त हो जाएगा।
अर्थव्यवस्था के गैर कृषि क्षेत्रों को विभिन्न प्रकार के कच्चे माल की आपूर्ति करना तथा लोगों को खाद्यान्न उपलब्ध करवाना हर समय कृषि क्षेत्र की ही जिम्मेदारी रहेगी। अर्थव्यवस्था के विकास के साथ परिवर्तन केवल यह होता है कि अर्थव्यवस्था के विकास के प्रारंभकर्ता के बजाय औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र का एक सहयोगी एवं सहायक बन जाता है।
महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा है कि ‘भारत गांवों का देश है और कृषि भारत की आत्मा है।’ कोविड कालखण्ड में यह सिद्ध भी हो चुका है।
डॉ. लखन चौधरी
(लेखक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट एवं सामाजिक-आर्थिक विमर्शकार हैं)