Hastakshep.com-देश-Achhe din-achhe-din-FLAT EARTH NEWS-flat-earth-news-Ravish Kumar-ravish-kumar-Y2K IN hINDI-y2k-in-hindi-Y2K-y2k-अच्छे दिन-acche-din-चौथा लॉकडाउन-cauthaa-lonkddaaun-फ्लैट अर्थ न्यूज़-phlaitt-arth-nyuuj-मंकी मैन का संकट-mnkii-main-kaa-snktt-मिलेनिम बग-milenim-bg-रवीश कुमार-rviish-kumaar

Why did Modi remember Y2K, the first global lie of 21st century after 20 years, Ravish Kumar told

नई दिल्ली, 13 मई 2020. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल 12 मई को चौथा लॉकडाउन लागू किए जाने की घोषणा करते हुए राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में Y2K को याद किया। एनडीटीवी के चर्चित एंकर और मैग्सेसे पुरस्कार विजेता रवीश कुमार ने अपने सत्यापित फेसबुक पेज पर एक लंबी पोस्ट लिखकर बताया है कि Y2K21 वीं सदी का पहला ग्लोबल झूठ था।

रवीश कुमार ने “20 साल बाद क्यों याद किया Y2K को मोदी ने, 21 वीं सदी का पहला ग्लोबल झूठ था Y2K” शीर्षक से लंबी पोस्ट लिखी है। पोस्ट निम्नवत् है -

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मई के अपने राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा कि इस सदी की शुरूआत में दुनिया में Y2K संकट आया था, तब भारत के इंजीनियरों ने उसे सुलझाया था। प्रधानमंत्री ने जाने-अनजाने में कोरोना संकट की वैश्विकता की तुलना Y2K जैसे एक बनावटी संकट से कर दी। एक ऐसे संकट से जिसके बारे में बाद में पता चला कि वो था ही नहीं। जिन्होंने इसके बारे में सुना होगा वो इसकी पूरी कहानी भूल चुके होंगे और जो 1 जनवरी 2000 के बाद पैदा हुए, मुमकिन है उन्हें कहानी पता ही न हो। Y2K का मतलब YEAR 2000 है जिसे संक्षेप Y2K लिखा गया।

Y2K इस सदी का पहला ग्लोबल फेक न्यूज़ था जिसे मीडिया के बड़े-बड़े प्लेटफार्म ने गढ़ने में भूमिका निभाई। जिसकी चपेट में आकर सरकारों ने करीब 600 अरब डॉलर से अधिक की रकम लुटा दी। इस राशि को लेकर भी अलग अलग पत्रकारों ने अपने हिसाब से लिखा। किसी ने 800 अरब डॉलर लिखा तो किसी ने 400 अरब डॉलर लिख दिया। तब फेक न्यूज़ कहने का चलन नहीं था। HOAX यानि अफवाह कहा जाता था। Y2K संकट पर ब्रिटेन

के पत्रकार निक डेविस ने एक बेहद अच्छी शोधपरक किताब लिखी है जिसका नाम है फ्लैट अर्थ न्यूज़ (FLAT EARTH NEWS),यह किताब 2008 में आई थी।

Y2K को मिलेनिम बग कहा गया। अफवाहें फैलाई गईं और फैलती चली गईं कि इस मिलेनियम बग के कारण 31 दिसंबर 2000 की रात 12 बजे कंप्यूटर की गणना शून्य में बदल जाएगी और फिर दुनिया में कंप्यूटर से चलने वाली चीज़ें अनियंत्रित हो जाएंगी। अस्पताल में मरीज़ मर जाएंगे। बिजली घर ठप्प हो जाएंगी। परमाणु घर उड़ जाएंगे। आसमान में उड़ते विमानों का एयर ट्रैफिक कंट्रोल से संपर्क टूट जाएगा और दुर्घटनाएं होने लगेंगी। मिसाइलें अपने आप चलने लगेंगी। अमरीका ने तो अपने नागरिकों के लिए ट्रैवल एडवाइज़री जारी कर दी।

इसी के जैसा भारत के हिन्दी चैनलों में एक अफवाह उड़ी थी कि दुनिया 2012 में ख़त्म हो जाएगी। जो कि नहीं बल्कि लोगों में उत्तेजना और चिन्ता पैदा कर चैनलों ने टीआरपी बटोरी और खूब पैसे कमाए। इसकी कीमत पत्रकारिता ने चुकाई और वहां से हिन्दी टीवी पत्रकारिता तेज़ी से दरकने लगी। मंकी मैन का संकट टीवी चैनलों ने गढ़ा। कैराना के कश्मीर बन जाने का झूठ गढ़ा था।

कई सरकारों ने Y2K संकट से लड़ने के लिए टास्क फोर्स का गठन किया। भारत भी उनमें से एक था। आउटलुक पत्रिका में छपा है कि भारत ने 1800 करोड़ खर्च किए थे। Y2K को लेकर कई किताबें आईं और बेस्ट सेलर हुईं। इस संकट से लड़ने के लिए बड़ी बड़ी कंपनियों ने फर्ज़ी कंपनियां बनाईं और सॉफ्टवेयर किट बेच कर पैसे कमाए। बाद में पता चला कि यह संकट तो था ही नहीं, तो फिर समाधान किस चीज़ का हुआ?

भारत की साफ्टवेयर कंपनियों ने इस संकट का समाधान नहीं किया था। बल्कि इस अफवाह से बने बाज़ार में पैसा बनाया था। ये वैसा ही था जैसे दुनिया की कई कंपनियों ने एक झूठी बीमारी की झूठी दवा बेच कर पैसे कमाए थे। जैसे गंडा ताबीज़ बेचकर पैसा बना लेते हैं। बेस्ट सेलर किताबें लिखकर लेखकों ने पैसे कमाए थे और एक ख़बर के आस-पास बनी भीड़ की चपेट में मीडिया भी आता गया और वो उस भीड़ को सत्य की खुराक देने की जगह झूठ का चारा देने लगा ताकि भीड़ उसकी खबरों की चपेट में बनी रहे।

31 दिसंबर 1999 की रात दुनिया सांस रोके कंप्यूटर के नियंत्रण से छुट्टी पाकर बेलगाम होने वाली मशीनों के बहक जाने की ख़बरों का इंतज़ार कर रही थी। 1 जनवरी 2000 की सुबह प्रेसिडेंट क्लिंटन काउंसिल ऑन ईयर 2000 कंवर्ज़न के चेयरमैन जॉन कोस्किनेन एलान करते हैं कि अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं हुआ है। उन तक ऐसी कोई जानकारी नहीं पहुंची है कि Y2K के कारण कहीं सिस्टम ठप्प हुआ हो। Y2K कोई कहानी ही नहीं थी। कोई संकट ही नहीं था। 21 वीं सदी का आगमन झूठ के स्वागत के साथ हुआ था। उस दिन सत्य की हार हुई थी।

पत्रकार निक डेविस ने अपनी किताब में लिखा है कि ठीक है कि पत्रकारिता के नाम पर भांड, दलाल, चाटुकार, तलवे चाटने वाले पत्रकारों ने बेशर्मी से इस कहानी को गढ़ा, उसमें कोई ख़ास बात नहीं है। ख़ास बात ये है कि अच्छे पत्रकार भी इसकी चपेट में आए और Y2K को लेकर बने माहौल के आगे सच कहने का साहस नहीं कर सके।

निक डेविस ने इस संकट के बहाने मीडिया के भीतर जर्जर हो चके ढाँचे और बदलते मालिकाना स्वरूप की भी बेहतरीन चर्चा की है। कैसे एक जगह छपा हुआ कुछ कई जगहों पर उभरने लगता है फिर कॉलम लिखने वालों लेकर पत्रकारों की कलम से धारा प्रवाह बहने लगता है।

Y2K की शुरूआत कनाडा से हुई थी। 1993 के मई महीने में टॉरोंटो शहर के फाइनेंशियल पोस्ट नाम के अखबार के भीतर एक खबर छपी। 20 साल बाद मई महीने में ही भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सदी के पहले ग्लोबल फेक न्यूज़ को याद किया। तब कनाडा के उस अखबार के पेज नंबर 37 पर यह खबर छपी थी। सिंगल कॉलम की ख़बर थी। बहुत छोटी सी। खबर में थी कि कनाटा के एक टेक्नालजी कंसल्टेंट पीटर जेगर ने चेतावनी दी है कि 21 वीं सदी की शुरूआत की आधी रात कई कंप्यूटर सिस्टम बैठ जाएंगे। 1995 तक आते आते यह छोटी सी ख़बर कई रूपों में उत्तरी अमरीका, यूरोप और जापान तक फैल गई। 1997-1998 तक आते आते यह दुनिया की सबसे बड़ी खबर का रुप ले चुकी थी। बड़े-बड़े एक्सपर्ट इसे लेकर चेतावनी देने लगे और एक ग्लोबल संकट की हवा तैयार हो गई।

Y2K ने मीडिया को हमेशा के लिए बदल दिया। फेक न्यूज़ अपने आज के स्वरूप में आने से पहले कई रुपों में आने लगा। मीडिया का इस्तमाल जनमत बनाकर कोरपोरेट अपना खेल खेलने लगा। फेक न्यूज़ के तंत्र ने लाखों लोगों की हत्या करवाई। झूठ के आधार पर इराक युद्ध गढ़ा गया जिसमें 16 लाख लोग मारे गए। तब अधिकांश मीडिया ने इराक से संबंधित प्रोपेगैंडा को पैंटागन और सेना के नाम पर हवा दी थी। मीडिया हत्या के ग्लोबल खेल में शामिल हुआ। इसलिए कहता हूं कि मीडिया से सावधान रहें। वो अब लोक और लोकतंत्र का साथी नहीं है। आपके समझने के लिए एक और उदाहरण देता हूं।

ब्रिटेन की संसद ने एक कमेटी बनाई । सर जॉन चिल्कॉट की अध्यक्षता में। इसका काम था कि 2001 से 2008 के बीच ब्रिटेन की सरकार के उन निर्णयों की समीक्षा करना था जिसके आधार पर इराक युद्ध में शामिल होने का फैसला हुआ था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन पहली बार किसी युद्ध में शामिल हुआ था। इस कमेटी के सामने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की पेशी हुई थी। द इराक इनक्वायरी नाम से यह रिपोर्ट 2016 में आ चुकी है। 6000 पन्नों की है।

इस रिपोर्ट में साफ लिखा है कि इराक के पास रसायनिक हथियार होने के कोई सबूत नहीं थे। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने संसद और देश से झूठ बोला। उस वक्त ब्रिटेन में दस लाख लोगों का प्रदर्शन हुआ था इस युद्ध के खिलाफ। मगर मीडिया सद्दाम हुसैन के खिलाफ हवा बनाने लगा। टोनी ब्लेयर की छवि ईमानदार हुआ करती थी। उनकी इस छवि के आगे कोई विरोध प्रदर्शन टिक नहीं सका। सभी को लगा कि हमारा युवा प्रधानमंत्री ईमानदार है। वो गलत नहीं करेगा। लेकिन उसने अपनी ईमानदारी को धूल की तरह इस्तमाल किया और लोगों की आंखों में झोंक दिया। इराक में लाखों लोग मार दिए गए।

सिर्फ एक अखबार था डेली मिरर जिसने 2003 में टोनी ब्लेयर के ख़ून से सने दोनों हाथों की तस्वीर कवर पर छापी थी। बाकी सारे अखबार गुणगान में लगे थे। जब चिल्काट कमेटी की रिपोर्ट आई तो गुणगान करने वाले अखबारों ने ब्लेयर को हत्यारा लिखा। जिस प्रेस कांफ्रेंस में यह रिपोर्ट जारी हो रही थी, उसमें इराक युदध में शहीद हुए सैनिकों के परिवार वाले भी मौजूद थे। जिन्होंने ब्लेयर को हत्यारा कहा। आप पुलवामा के शहीदों के परिवार वालों को भूल गए होंगे। उन्हें किसी सरकारी आयोजन देखा भी नहीं होगा।

बहरहाल मीडिया का तंत्र अब क़ातिलों के साथ हो गया है। इराक युद्ध के बाद भी लाखों लोगों का अलग अलग तरीके से मारा जाना अब भी जारी है। Y2K का संकट अनजाने में फैल गया। इसने कंप्यूटर सिस्टम को ध्वस्त नहीं किया बल्कि बता दिया कि इस मीडिया का सिस्टम ध्वस्त हो चुका है। आप दर्शक और पाठक मीडिया के बदलते खेल को कम समझते हैं। तब तक नहीं समझेंगे जब तक आप बर्बाद न हो जाएंगे। भारत में अब मीडिया के भीतर फेक न्यूज़ और प्रोपेगैंडा ही उसका सिस्टम है। प्रधानमंत्री मोदी से बेहतर इस सिस्टम को कौन समझ सकता है। आपसे बेहतर गोदी मीडिया को कौन समझ सकता है। दुनिया के लिए Y2K संकट की अफवाह 1 जनवरी 2000 को समाप्त हो गई थी लेकिन मीडिया के लिए खासकर भारतीय मीडिया के लिए Y2K संकट आज भी जारी है आज भी वह झूठ के जाल में आपको फांसे हुए है।

Commemorating the 163rd anniversary of 1857 War of Independence : Let not communal forces undo the great heritage of joint sacrifices

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