दुनिया भर में अब कोरोनावायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 47 लाख से ऊपर पहुँच गयी है और 3.13 लाख लोग मृत हुए हैं. परन्तु जन स्वास्थ्य आपदा (Public health disaster) और महामारी नियंत्रण के प्रयासों के दौरान, श्रमिकों के साथ बर्बर अमानवीयता (Barbaric inhumanity with workers) क्यों हो गयी?
महाराष्ट्र में 8 मई को एक मालगाड़ी के नीचे 16 प्रवासियों के शरीर, सपनों और ’रोटियों’ के कुचले जाने की दिल दहला देने वाली भयानक घटना – हमारे आपदा प्रबंधन (disaster management) पर अनेक सवाल खड़े करती है.
इसके एक दिन पश्चात्, मध्य प्रदेश में 11 के एक समूह में से 5 प्रवासी, एक ट्रक दुर्घटना में कुचल कर मृत हुए. उत्तर प्रदेश में 16 मई को 2 ट्रकों की टक्कर में कम-से-कम 24 प्रवासी श्रमिक मृत और 37 घायल हो गए। यह हृदय-विदारक हादसे न सिर्फ प्रवासी श्रमिक की भायावाही स्थिति का संकेतक हैं बल्कि असफल भीड़ नियंत्रण, असंतोषजनक सुरक्षा और अपने घर वापस जाने की तीव्र बेचैनी का भी प्रमाण हैं.
प्रवासी श्रमिक मात्र आपने घर ही तो जाना चाह रहे थे. अपने गाँव तक पहुँचने के लिए पैदल चलते हुए या किसी यातायात साधन में जगह पा कर इनमें से अनेक मृत हुए. ऐसी घटनाएँ हमारे समाज पर धब्बा हैं और हमारे विकास मॉडल को आइना दिखाती हैं. पूरे देश में सैंकड़ों प्रवासी मजदूर इस संकट की घड़ी में तालाबंदी के कारण लगभग 2 माह से फंसे हुए हैं जो बेहद हताश और परेशान हैं.
कोरोनावायरस रोग के लिए चिन्हित अति-संवेदनशील क्षेत्रों में, जैसे कि, मुंबई, पुणे और ठाणे, में जो प्रवासी श्रमिक फंसे
अन्य देशों की तुलना में जहाँ कोरोनावायरस रोग महामारी बन पहले उभरा, भारत को उनकी सफलता-असफलता से सीख लेने का अवसर मिला जिससे कि महामारी नियंत्रण प्रभावकारी ढंग से हो सके. सारा देश एकजुट था कि भारत में कोरोनावायरस हारेगा. जिस सख्ती से पूरे देश में तालाबंदी हुई उसकी वैश्विक प्रसंसा हुई.
विश्व के प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान जर्नल, द लांसेट ने अपने विशेष सम्पादकीय में भारत के कोरोनावायरस रोकधाम को सराहा. क्या सही हुआ और कहाँ बेहतर हो सकता था इस पर वाद-विवाद हो सकता है परन्तु जो प्रवासी श्रमिकों के साथ हुआ, वह सर्वदा अनुचित, दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक रहा.
इस बात का पूर्वानुमान कर के तालाबंदी के ठीक पहले या तुरंत बाद कुशल प्रबंधन के साथ व्यवस्था करनी चाहिए थी जो हर पैमाने पर खरी रहती. 24 मार्च तक भारत में 536 कोरोनावायरस से संक्रमित लोग और 10 मृत थे. परन्तु आज 17 मई तक देश में 90,000 संक्रमित हो चुके हैं और 2200 से अधिक मृत. 3 मई को मुंबई में 52 कोरोनावायरस संक्रमित लोग मिले थे परन्तु अगले ही दिन 123 मिले. 4 मई तक मुंबई के धारावी मलिन बस्तियों में 632 कोरोनावायरस से संक्रमित लोग चिन्हित हो चुके थे जो 40 दिन पूर्व के पूरे देश में कुल-संक्रमित की संख्या से अधिक था.
अत: अब तालाबंदी के 50 दिन बाद जब प्रवासी श्रमिक अपने घर-गाँव वापस जायेंगे तो वह कोरोनावायरस से संक्रमित होने की 100 गुणा अधिक सम्भावना के साथ जायेंगे. इनमें से अधिकाँश लोग या तो सड़क पर रह रहे थे या फिर मलिन बस्तियों में, जहाँ भौतिक दूरी बना के रहना संभव ही नहीं है. इनमें से अनेक लोग आय का स्त्रोत न होने के कारण भोजन के लिए, सरकारी, स्वयंसेवी संस्था या दयालु नागरिक की सहायता पर निर्भर थे और घर जाने की व्यवस्था होने की राह देख रहे थे. यदि सार्वजनिक यातायात चालू रहते उन्हें 24 मार्च को घर वापिस भेज दिया होता तो जन-समर्थन भी मिलता. और तालाबंदी के समाप्त होने के बाद वह अपने-अपने रोज़गार पर वापिस भी आते.
तालाबंदी-3 के दौरान सरकार ने आखिरकार यह मान भी लिया था कि प्रवासी श्रमिक घर वापिस जा सकते हैं परन्तु जो शर्तें और प्रक्रिया सम्बन्धी अस्पष्टताएँ रहीं वह देर से ही सही पर सही दिशा में प्रयास को भी निरर्थक कर रही थीं.
कुल मिला कर लगभग 5 लाख प्रवासी श्रमिक अपने घर जा सके जब वह सब ज़रूरी दस्तावेज़ और शर्ते पूरी कर सके - और जिनको पूरा करने के लिए उन्हें पुलिस स्टेशन और चिकित्सक के यहाँ पर भारी मात्रा में भीड़ स्वरुप जमा होना पड़ा.
एक ओर तो हम प्रवासी श्रमिकों से यह अपेक्षा करते हैं कि वह अपनी यात्रा का खर्चा भी वहन करें जब कि उनके पास पैसा है ही नहीं. दूसरी ओर हम मार्च में सरकारी खर्च पर विमान भेज कर अनेक नागरिकों को विदेशों से वापस लाते हैं.
इसी तरह अप्रैल में अनेक प्रदेश सरकारों ने सरकारी खर्च पर कोटा में फंसे हुए छात्रों को घर वापस लाने का इंतज़ाम किया. जो लोग विदेश और कोटा से घर वापस आये उनमें से संभवत: अनेक लोग यह खर्च वहन भी कर सकते थे. यह कैसी विडम्बना है कि प्रधानमंत्री हमारे प्रदेशों, उद्योग, व्यापारवर्ग, दानकर्ता और नागरिकों से अपील करते हैं कि वह सब प्रवासी श्रमिक और ज़रुरतमंदों का ख्याल रखें. फिर सरकार ने क्यों प्रवासी श्रमिकों को मजबूर किया कि वह घर जाने का भाड़ा दें? ऐसी दोहरी नीति क्यों? क्या हम लोग हमारे गरीब, मजबूर और विवश लोगों के साथ अनुचित व्यवहार नहीं कर रहे हैं?
जिन प्रदेशों को प्रवासी श्रमिकों को वापिस लेना था उन्होंने भी अनेक शर्ते रख दीं जिनमें कुछ अव्यवहारिक थीं जैसे कि कोरोनावायरस की जांच रिपोर्ट. प्रदेश सरकारों ने ऐसी कोई भी शर्त तब नहीं रखी थी जब कोटा से आईआईटी में प्रवेश परीक्षा की तैयारी वाले छात्रों को घर लाया गया था. परन्तु प्रवासी श्रमिकों को हमने प्रताड़ित किया कि फॉर्म भरो, पैसे भर के अनिवार्य चिकित्सकीय प्रमाणपत्र बनवाओ और प्रेषित करो, और उसके बाद भी, एक अनिश्चितता के साथ इंतज़ार करो कि उनकी बारी कब आएगी और वह घर वापस जा सकें.
यदि यात्रा स्थगित हो जाए तो ताज़ा चिकित्सकीय प्रमाणपत्र बनवाओ, जैसी नीतियां कैसे उचित ठहराई जाएँ? क्लिनिक या अस्पताल, पुलिस स्टेशन, रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन, आदि के बाहर जो अत्यंत लम्बी पंक्तियाँ थी उनमें भौतिक दूरी और साफ़-सफाई रखना संभव ही नहीं था जिसके कारणवश यदि किसी को कोरोनावायरस जैसा संक्रामक रोग हो तो उसके फैलने का पूरा खतरा मंडराता रहा. जब यह नीति थी कि प्रवासी श्रमिक को घर पहुँचने पर 14 दिन के अनिवार्य क्वारंटाइन में रखा जायेगा तब जहाँ से उन्हें यात्रा आरम्भ करनी थी वहां पर प्रक्रिया इतनी बेवजह पेचीदा और जटिल क्यों थी?
सूरत में जब प्रवासी श्रमिकों के बीच अफरा-तफरी या भागदौड़ हुई तब पुलिस ने लाठीचार्ज और आंसू गैस का प्रयोग किया. जिन लोगों ने कड़ी परिश्रम से हमारे शहर और विकास का निर्माण किया है, उनके साथ ऐसा व्यव्हार करने के लिए हमें शर्मिंदगी महसूस होनी चाहिए. इसका सीधा असर कोरोनावायरस रोग की रोकधाम पर भी पड़ेगा और हो सकता है इसकी हमें भारी कीमत चुकानी पड़ें.
डॉ ईश्वर गिलाडा
(डॉ ईश्वर गिलाडा, मुंबई स्थित एचआईवी और संक्रामक रोग विशेषज्ञ हैं, एड्स सोसाइटी ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और इंटरनेशनल एड्स सोसाइटी के सञ्चालन समिति के निर्वाचित सदस्य भी हैं)