विश्व के सभी देशों के शीर्ष नेता आगामी सितंबर 2023 को न्यू यॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासम्मेलन में भाग लेंगे जहां टीबी पर दूसरी संयुक्त राष्ट्र उच्च स्तरीय बैठक भी होगी। टीबी पर प्रथम उच्च स्तरीय बैठक 2018 में हुई थी (जिसमें शामिल होने का सौभाग्य मुझे भी मिला था) जब देशों के शीर्ष नेताओं ने एक "राजनीतिक घोषणापत्र" जारी करके अनेक वायदे किए थे जो 2022 तक पूरे करने थे। पर इन सभी वायदों पर अधिकांश देशों ने असंतोषजनक प्रगति की है। अब आगामी सितंबर में यही नेता टीबी उन्मूलन हेतु एक नया "राजनीतिक घोषणापत्र" (A New "Political Manifesto" for TB Eradication) जारी करेंगे। क्या 2023 का नया घोषणापत्र ज़मीनी असलियत में भी बदलेगा या पुराने घोषणापत्र की तरह काग़ज़ों में ही क़ैद रह जाएगा?
दुनिया में संक्रामक रोगों के कारण होने वाली मृत्यु में, सबसे अधिक मृत्यु टीबी से होती है। टीबी गरीब और विकासशील देशों में आज भी सबसे घातक संक्रामक रोग बना हुआ है।
सरकारी नारा "टीबी से बचाव मुमकिन है और पक्का इलाज मुमकिन है" - जो वैज्ञानिक रूप से तो सत्य है - परंतु भारत में प्रति वर्ष टीबी से जो 30 लाख व्यक्ति ग्रसित होते हैं और 5 लाख से अधिक व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होते हैं , उनके लिए यह खोखला नारा मात्र है। विश्व में टीबी से ग्रसित रोगियों की संख्या (Number of patients suffering from TB in the world) और टीबी से मरने वालों की संख्या (TB death toll
2018 की संयुक्त राष्ट्र की उच्च स्तरीय बैठक (United Nations High Level Meeting 2018) में देश के प्रमुखों ने तय किया था कि 2022 तक 4 करोड़ लोगों को टीबी जाँच और इलाज (TB test and treatment) मिलेगा, जिनमें 35 लाख बच्चे और 15 लाख दवा प्रतिरोधक टीबी से ग्रसित लोग (people with drug-resistant TB) शामिल हैं। परंतु 2021 के अंत तक टीबी का इलाज केवल 2.63 करोड़ (लक्ष्य का 66%) को मिल सका, जिनमें 19 लाख बच्चे (लक्ष्य का 38%) और 6.5 लाख दवा प्रतिरोधक टीबी (लक्ष्य का 43%) से ग्रसित लोग शामिल थे।
2018 के टीबी जाँच के लक्ष्य पर भी प्रगति असंतोषजनक रही - केवल 38% को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रमाणित रैपिड मॉलिक्यूलर जाँच नसीब हुई। टीबी की जाँच नहीं होगी तो इलाज नहीं मिलेगा, और अनावश्यक मानवीय पीड़ा झेलनी पड़ेगी एवं संक्रमण का फैलाव भी नहीं रुकेगा। 62% टीबी से ग्रसित लोगों को यह रैपिड मॉलिक्यूलर जाँच तक नहीं मिली, यह अत्यंत चिंता का विषय है। ज़रा सोचें कि क्या यह मानवाधिकार का मुद्दा नहीं है?
टीबी का बचाव इतना कमज़ोर क्यों? लेटेंट टीबी के टीबी रोग में परिवर्तित होने का ख़तरा किन लोगों में बढ़ जाता है?
2018 के "राजनीतिक घोषणापत्र" में एक लक्ष्य यह भी था कि कम-से-कम 3 करोड़ लोगों तक टीबी से बचाव वाला इलाज पहुँचाना। लेटेंट टीबी (यानी व्यक्ति में टीबी बैकटीरिया तो है पर रोग नहीं उत्पन्न कर रहे हैं) से संक्रमित लोगों में न तो कोई टीबी का लक्षण होता है और न टीबी रोग, और न ही इनसे किसी अन्य को संक्रमण फैल सकता है। परंतु जिन लोगों को लेटेंट टीबी के साथ-साथ एचआईवी, मधुमेह, तम्बाकू सेवन, धूम्रपान या शराब का नशा, कुपोषण, या अन्य ख़तरा बढ़ाने वाले कारण भी होते हैं, उन लोगों में लेटेंट टीबी के टीबी रोग में परिवर्तित होने का ख़तरा बढ़ जाता है।
टीबी का हर नया रोगी, पूर्व में लेटेंट टीबी से संक्रमित हुआ होता है। और हर नया लेटेंट टीबी से संक्रमित रोगी इस बात की पुष्टि करता है कि संक्रमण नियंत्रण निष्फल था जिसके कारणवश टीबी बैक्टीरिया एक टीबी संक्रमित रोगी से एक असंक्रमित व्यक्ति तक फैला।
अब विज्ञान ने ऐसे प्रभावकारी इलाज मुहैया कराये हैं जिनके चलते लेटेंट टीबी से ग्रसित व्यक्ति को टीबी रोग होने का ख़तरा नहीं रहता। टीबी उन्मूलन की दिशा में एक अति आवश्यक कदम लेटेंट टीबी का उन्मूलन (Elimination of Latent TB) है।
इसीलिए 2018 में सरकारों ने लेटेंट टीबी का सर्वोत्तम प्रभावकारी इलाज कम-से-कम तीन करोड़ लोगों को मुहैया करवाने का वायदा किया था जिससे कि इन तीन करोड़ लोगों को (जिनकी लेटेंट टीबी, टीबी रोग में परिवर्तित हो सकती है) टीबी रोग न हो। इन तीन करोड़ लोगों में चालीस लाख पाँच साल से कम आयु के बच्चे, दो करोड़ ऐसे लोग जो टीबी रोगी के घर के सदस्य हों आदि, और 60 लाख एचआईवी के साथ जीवित लोग शामिल थे।
परंतु 2021 के अंत तक, इस लक्ष्य की केवल 42% प्राप्ति हुई थी। तीन करोड़ के बजाय मात्र 1.25 करोड़ लोगों को लेटेंट टीबी का इलाज मिल सका (जिनमें 16 लाख बच्चे (लक्ष्य का 40%), 6 लाख टीबी रोगी के घर-परिवार के सदस्य (लक्ष्य का 3%) और 1.03 करोड़ एचआईवी के साथ जीवित लोग शामिल थे।
2018 में किया गया एक अंतर-सरकारी वायदा यह भी था कि 2022 तक वैश्विक टीबी कार्यक्रम के लिए आवश्यक पूरा निवेश प्रदान किया जाएगा जो अमरीकी डॉलर 13 अरब है। परंतु 2021 के अंत तक केवल 42% धनराशि ही उपलब्ध हो सकी है। जब नवीनतम और प्रभावकारी टीबी जाँच और इलाज दुनिया के सभी गरीब-अमीर देशों के सभी ज़रूरतमंद पात्र लोगों को मुहैया नहीं होगा तो टीबी उन्मूलन कैसे संभव होगा?
वायदा तो किया पर टीबी के शोध पर निवेश क्यों नहीं किया?
इसी तरह टीबी के शोध पर सालाना अमरीकी डॉलर 2 अरब व्यय करने का वायदा भी केवल काग़ज़ी वायदा बन कर ही रह गया क्योंकि 2021 के अंत तक टीबी शोध पर व्यय 1 अरब अमरीकी डॉलर से भी कम रहा। गौर करें कि टीबी की अधिक प्रभावकारी जाँच (जो गरीब और विकासशील देशों में भी मुस्तैदी से हो सके), और इलाज (जो अत्यंत प्रभावकारी, सरल, सहज और अत्यंत कम अवधि के हों और दवा की विषाक्तता भी रोगी को न झेलनी पड़े) के लिए शोध अत्यंत ज़रूरी है। इसमें टीबी वैक्सीन टीका भी शामिल है। मौजूदा टीका 100 साल से पुराना बीसीजी टीका है जो फ़िलहाल दुनिया की एकमात्र टीबी वैक्सीन है - जो अधिकांश लोगों को हर प्रकार की टीबी से बचाने में सफल नहीं है।
नयी प्रभावकारी वैक्सीन, बेहतर जाँच और इलाज के लिए शोध ज़रूरी है, और इससे भी ज़्यादा ज़रूरी यह है कि जब कोई भी नवीन जाँच, इलाज या टीके उपलब्ध हों तो दुनिया के प्रत्येक टीबी रोगी को समानता से बिना-विलंब मिल सकें।
सितंबर 2023 में होने वाली संयुक्त राष्ट्र उच्च स्तरीय बैठक में पारित होने वाला नया "राजनीतिक घोषणापत्र" यदि कमज़ोर हुआ तो निःसंदेह वैश्विक टीबी आंदोलन के लिए एक बड़ा सदमा होगा। इस घोषणापत्र में सरकारें महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखें, निवेश बढ़ायें, जवाबदेही प्रणाली को मज़बूत करें, और मानवाधिकार के सिद्धांतों पर आधारित वैश्विक और ज़मीनी टीबी कार्यक्रम को संचालित करने में अपना योगदान दें।
सुब्रत मोहंती, वैश्विक स्टॉप टीबी पार्टनरशिप के बोर्ड सदस्य हैं और एक लंबे अरसे से टीबी उन्मूलन के लिए प्रयासरत रहे हैं। उनका कहना है कि इस 2023 के राजनीतिक घोषणापत्र में जो वायदे किए जाएँ वे 2018 के राजनीतिक घोषणापत्र से कमज़ोर नहीं हो सकते हैं। यदि टीबी उन्मूलन के सपने को साकार करना है तो 2023 के घोषणापत्र को मज़बूत करना ज़रूरी है जिससे कि वह टीबी से जूझ रहे लोगों की चुनौतियों का समाधान कर सके और वैश्विक टीबी लड़ाई को तेज़ी से आगे बढ़ाये। 2030 आने में केवल 90 महीने रह गये हैं जब विश्व को टीबी मुक्त करने का वायदा सरकारों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में 2015 में किया था।
सुब्रत मोहंती, स्टॉप टीबी पार्टनरशिप, और अनेक टीबी उन्मूलन के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओं की माँग है कि 2023 का राजनीतिक घोषणापत्र कम-से-कम निम्न बिंदुओं पर खरा उतरे:
यदि पिछला इतिहास देखें तो अनेक संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक घोषणापत्र और कानूनी-रूप से बाध्य संधियाँ (United Nations Universal Declaration and Legally-Binding Treaties) मिलेंगी जो पूरी तरह शायद ही कहीं लागू की गई हों। केवल गरीब या विकासशील देश ही नहीं बल्कि अमीर और शक्तिशाली देशों, जैसे कि अमरीका, ने अनेक संयुक्त राष्ट्र संधियों को पारित नहीं किया है - जैसे कि महिला अधिकार की वैश्विक संधि "सीडॉ" या वैश्विक तंबाकू नियंत्रण संधि "एफसीटीसी"।
अब समय आ गया है कि इन संधियों और घोषणापत्रों में जवाबदेही प्रणाली मज़बूत हो जिससे कि कथनी और करनी में अंतर न रहे। जो वैश्विक वायदे हमारी सरकारों ने किए हैं उनको ज़मीनी हक़ीकत में परिवर्तित किए बिना टीबी मुक्त विश्व की कल्पना को वास्तविकता में साकार नहीं किया जा सकता।
शोभा शुक्ला
(लेखिका सीएनएस (सिटीजन न्यूज़ सर्विस) की संस्थापिका-संपादिका हैं, और लखनऊ के लोरेटो कॉन्वेंट कॉलेज की भौतिक विज्ञान की पूर्व वरिष्ठ शिक्षिका हैं)
Why the difference between the words and actions of top leaders of countries?