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क्या दलित मार्क्सवादी कभी यह सत्योपलब्धि करेंगे कि सर्वस्वहाराओं को शक्ति के स्रोतों के वाजिब शेयर दिलाने के लिए : डाइवर्सिटी से बेहतर नहीं है कोई उपाय!

 मित्रों, रूस का पतन देखकर भारत के मार्क्सवादी रह-रहकर गहरे सदमे में आ जाते हैं और समय-समय पर इसकी पड़ताल भी करते हैं, जो बिलकुल स्वाभाविक ही है. किन्तु ऐसा होने के पीछे डाइवर्सिटी की अनदेखी ही अन्यतम प्रधान कारण है, यह सत्योपलब्धि करने में अब तक पूरी तरह व्यर्थ रहे हैं.

सोवियत रूस के पतन का कारण | The reason for the fall of Soviet Russia

वास्तव में शक्ति के स्रोतों (आर्थिक,शैक्षिक, राजनीतिक ,धार्मिक-सांस्कृतिक इत्यादि) में सामाजिक और लैंगिक विविधता की अनदेखी (Ignoring social and gender diversity in power sources) के कारण ही रूस इस कारुणिक स्थिति का सामना करने के लिए ऐतिहासिक कारणों से अभिशप्त रहा. सत्तर के दशक में हम लोग सुनते थे कि रूस और अमेरिका प्रायः समान रूप से शक्तिशाली हैं: महज 19-20 का फर्क है उभय देशों में. किन्तु 15मार्च 1968 को नस्लीय दंगों पर केन्द्रित कर्नर आयोग की रपट प्रकाशित होने के बाद जिस दिन प्रेसिडेंट लिंडन बी. जॉनसन ने यह घोषणा किया कि अमेरिका हर जगह दिखना चाहिए, उसी दिन अमेरिका ने रूस पर बढ़त बना ली और आज दोनों के मध्य जमीं-आसमान का फर्क पैदा हो चुका है.

प्रेसिडेंट जॉनसन के अमेरिका हर जगह दिखने का आशय यह था कि शक्ति के समस्त स्रोतों में वहां की नस्लीय विविधता दिखे. अर्थात आर्थिक, राजनीतिक,शैक्षिक, सांस्कृतिक इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र में विभिन्न नस्लीय समूहों और

उनकी महिलाओं का प्रतिनिधित्व दिखे. यह आइडिया अम्बेडकरी आरक्षण का विस्तार थी.

जॉनसन के उस आह्वान का अनुसरण परवर्तीकाल में रीगन, कार्टर, निक्सन इत्यादि सभी राष्ट्राध्यक्षों ने किया. धीरे-धीरे नस्लीय और लैंगिक विविधता का यह प्रतिबिम्बन सभी प्रकार नौकरियों, सप्लाई, डीलरशिप, फिल्म-टीवी,शासन-प्रशासन होने लगा. इस विविधता नीति से नासा, हार्वर्ड जैसे सर्वोच्च स्तर के संस्थान तक मुक्त नहीं रहे.

शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन से अमेरिका को सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि उसे दुनिया का बेहतरीन मानव संसाधन मिलने का मार्ग प्रशस्त हुआ.

डाइवर्सिटी पॉलिसी के जरिये अमेरिका को वर्षों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत महिलाओं और रेड इंडियंस, हिपैनिक्स, बलैक्स इत्यादि से युक्त 30 प्रतिशत अल्पसंख्यकों के मानव संसाधन के सदुपयोग का अवसर मिला ही, इस पॉलिसी के तहत उपलब्ध अवसरों का सद्व्यवहार करने के लिए दुनिया की सर्वोत्तम प्रतिभाएं भी अमेरिका का रुख कीं. फलस्वरूप आर्थिक -शैक्षिक,साइंस,टेक्नोलॉजी,के साथ खेल-कूद,फिल्म-टीवी, पॉप म्यूजिक इत्यादि हर क्षेत्र में अमेरिका वहां पहुँच गया जहां एक रंग, लाल के विश्वासी रशियन सिर्फ पहुँचने की कल्पना मात्र कर सकते हैं.

इस एक लाल रंग में विश्वास करने कारण ही भारतीय मार्क्सवादी विदेशी मार्क्सवादियों का अनुगमन करते हुए कभी शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने की हिमायत न कर सके. और ऐसा न करने का सबसे खास कारण यह रहा है कि मार्क्सवादी नेतृत्व, जिसमें सवर्णों का एकाधिकार है, जानते हैं इससे हजारों साल से शक्ति के स्रोतों पर सवर्णों का जो 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है, वह ध्वस्त हो जायेगा.

सवर्ण मार्क्सवादियों के अच्छे-बुरे हर कदम का अन्धानुकरण करने वाले बहुजन मार्क्सवादी भी डाइवर्सिटी के समर्थन में आगे नहीं आते. लेकिन बहुजन मार्क्सवादियों को यह बात ठन्डे मन से विचार करना चाहिए कि भारत में जो भीषणतम आर्थिक-सामजिक विषमता है, उसका एकमेव कारण शक्ति के स्रोतों पर हजारों साल के जन्मजात शोषक सवर्णों का 80-85 % वर्चस्व है और डेमोक्रेटिक व्यवस्था में उनके वर्चस्व को तोड़कर सभी समूहों के मध्य शक्ति के न्यायोचित वितरण का सर्वोत्तम उपाय डाइवर्सिटी ही है.इसलिए उन्हें डाइवर्सिटी पर सवर्ण मार्क्सवादियों से भिन्न दृष्टि अपनानी चाहिए.

पर, क्या सवर्ण नेताओं के प्रायः चमचे में तब्दील हुए बहुजन मार्क्सवादी कभी डाइवर्सिटी की हिमायत में उतरने की हिम्मत दिखाएंगे?

क्या इस अप्रिय सच्चाई को स्वीकार करेंगे कि तमाम विद्वानों ने समाजवाद को यूटोपिया साबित कर दिया है? क्या वे यथार्थ को स्वीकार करेंगे कि एक तो समाजवाद यूटोपिया बन चुका है, उपर से यदि यह सुदूर भविष्य मूर्त रूप लेता भी है : लागू भी होता तो नेतृत्व सवर्णों के हाथ में रहेगा और समग्र वर्ग की चेतना से पूरी तरह दरिद्र सवर्ण मार्क्सवादी गैर - सवर्णों की शक्ति के स्रोतों में रत्ती भर शेयर नहीं देंगे.

ऐसे में बहुजन मार्क्सवादी यदि यह सत्योपलब्धि कर लें कि 21 वीं सदी भारत में रूस - क्यूबा जैसे क्रांति की न तो कोई संभावना है और न हीं किसी सूरत में यह घटित होने जा रही है तथा भारत के बहुजनों को इसी डेमोक्रेटिक व्यवस्था में जीना- मरना है, तब वे महसूस करेंगे कि भारतीय सर्वस्वहराओं के मध्य शक्ति के स्रोत वितरित करने तथा राष्ट्र हित में उनके मानव संसाधन का उतमोत्तम सदव्यव्हारा के लिए डाइवर्सिटी से बेहतर कोई विकल्प नहीं है.

एच एल दुसाध

लेखक एच एल दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इन्होंने आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से जुड़ी गंभीर समस्याओं को संबोधित ‘ज्वलंत समस्याएं श्रृंखला’ की पुस्तकों का संपादन, लेखन और प्रकाशन किया है। सेज, आरक्षण पर संघर्ष, मुद्दाविहीन चुनाव, महिला सशक्तिकरण, मुस्लिम समुदाय की बदहाली, जाति जनगणना, नक्सलवाद, ब्राह्मणवाद, जाति उन्मूलन, दलित उत्पीड़न जैसे विषयों पर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हुई हैं।

There is no possibility of a revolution like Russia-Cuba in 21st century India nor is it going to happen in any case

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