गत 14 अप्रैल को सरकार समर्थित देश के सबसे बड़े अखबार में छपी एक खबर ने मोदी सरकार की विनिवेश नीतियों (Disinvestment policies of Modi government) से त्रस्त लोगों को सुखद आश्चर्य में डाल दिया।
‘एयर इंडिया के विनिवेश पर पुनर्विचार की सुगबुगाहट’ शीर्षक से प्रकाशित उस खबर में लिखा था,
’कोरोना वैश्विक महामारी संकट के दौरान देश-विदेश में राहत एवं बचाव कार्यों में असाधारण भूमिका निभाने तथा वैश्विक एयरलाइन उद्योग की मुश्किलें गहराने के कारण सरकार एयर इंडिया का विनिवेश स्थगित कर सकती है। कोरोना संकट में दुनिया भर में फंसे भारतीयों को वापस लाने से लेकर दवाओं और मेडिकल उपकरणों को आपात जरूरतों के लिए पहुंचाने में महाराजा यानी एयर इंडिया ने अपने साहस से सबका दिल जीता है। सूत्रों के अनुसार विमानन मंत्रालय के अधिकारियों ने सरकार को बताया कि कोरोना संकट के कारण एयर इंडिया की खरीद के लिए कोई बोली नहीं आई है। जो बोलिया शुरू में आईं थीं, उन्होंने भी बाद में हाथ खींच लिए। अधिकारियों ने सरकार को यह भी बताया है कि यदि एयर इंडिया उनके नियंत्रण में न होती तो विदेश में फंसे भारतीय आसानी से नहीं आ पाते और न देश- विदेश के विभिन्न भागों में कोरोना- रोधी मेडिकल सामग्री इतनी त्वरित गति से आपूर्ति संभव हो पाती।
असल में एयर इंडिया के कर्मचारियों का भी एक बड़ा तबका यही कहता रहा है कि सरकार टेलिकॉम कंपनी बीएसएनएल के निजीकरण नहीं करने के पीछे जो तर्क देती रही है, वह एयर इंडिया के लिए लागू क्यों नहीं हो सकता है। बीएसएनएल के मामले में सरकार कई बार कह चुकी है कि संकट और आपदा के वक्त यह कंपनी संचार का सबसे प्रमुख साधन बन जाती है। इसलिए सरकार इसका निजीकरण नहीं करेगी। विमानन
कोरोना संकट में ‘एयर इंडिया’ के जरिये सरकारी क्षेत्र की अहमियत का अहसास कराती उपरोक्त रिपोर्ट कोई अपवाद नहीं है।
कोरोना के खिलाफ जंग में जिस तरह सरकारी सेक्टर अपनी भूमिका अदा किया है, उससे उत्साहित होकर आंबेडकर - गांधी और मार्क्सवादियों के साथ राष्ट्रवादी विचारधारा तक से जुड़े ढेरों अखबार और चैनल निजीक्षेत्र को धिक्कृत एवं सरकारी क्षेत्र के जयगान में सामने आए हैं, इसका एक बड़ा प्रमाण सुधीर चौधरी की एक रिपोर्ट (A report by Sudhir Chaudhary) है।
‘जी न्यूज’ के सुधीर चौधरी देश के उन चुनिन्दा एंकरों में से एक हैं, जो मोदी सरकार के हर अच्छे-बुरे काम का समर्थन करने में अग्रिम पंक्ति में रहते हैं, इसलिए मोदी विरोधियों, खासकर सामाजिक न्यायवादी लोगों में उनकी छवि खलनायक जैसी है। उन्हीं सुधीर चौधरी ने जब मार्च के अंतिम सप्ताह में जी न्यूज पर सरकारी क्षेत्र की भूमिका को हाईलाइट किया तो रातों-रात खलनायक से नायक बन गए। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में जो कहा था, उसका लब्बोलुआब यह था कि हम सरकारी सिस्टम को कोसते एवम् सरकारी व्यवस्थाओं का मज़ाक उड़ाते हुये पैदा हुये हैं। सरकारी कर्मचारी ठीक नहीं है, निजी स्कूल-कॉलेज अच्छे होते हैं: सरकारी अस्पतालों से निंजी अस्पताल अच्छे होते हैं, ऐसा कहते हुये हम नहीं थकते। किन्तु जिन निजी अस्पतालों की हम तारीफ करते नहीं थकते, वे कोरोना संकट में कुछ करने के लिए सामने नहीं आए। जिन सरकारी अस्पतालों को अच्छा नहीं मानते वे, जिन सरकारी डॉक्टरों का मज़ाक उड़ाते रहे, वे ही आज भगवान बनकर सामने आए हैं। हमारा सरकारी हेल्थ सिस्टम अच्छा नहीं है, लेकिन कोरोना संकट में यही साथ देने के लिए सामने आया है, इसलिए कहता हूँ आज सरकारी अस्पतालों, सरकारी डॉक्टरों और सरकारी नर्सों को सलाम करने का समय है। आज एयर इंडिया को सलाम करने का दिन है। जिस एयर इंडिया का हम मज़ाक उड़ाते रहे हैं, वही एयर इंडिया आज लाइफ लाइन बनकर सामने आया है। विदेशों से 1400 लोगों को स्वदेश लाने वाला एयर इंडिया है; कोई भी प्राइवेट विमान कंपनी इस संकट में हाथ बटाने के लिए सामने नहीं आई। विदेशों में फंसे लोगों को वापस भारत लाने, कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की पहचान, जांच करने इत्यादि से लेकर संक्रमितों के इलाज में कहीं प्राइवेट सेक्टर दिखाई पड़ता है? कोरोना के खिलाफ सारी जंग सरकारी क्षेत्र के लोग जान जोखिम में डालकर लड़ रहे हैं, इसलिए इन सरकारी कर्मचारियों को सैल्यूट करने का दिन है।‘
काबिले गौर है कि आज कोरोना ने ज्ञान-विज्ञान, राजनीति, धर्मनीति, अर्थनीति इत्यादि सभी चीजों को नए सिरे से देखने के लिए मजबूर कर दिया है। इसने जिन ढ़ेरों चीजों के प्रति नजरिया बदलने के लिए मजबूर किया है, उनमें से एक सरकारी क्षेत्र है।
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कोरोना की महामारी में सरकारी क्षेत्र ने जो भूमिका अदा की है, उससे भारत ही नहीं पूरा विश्व ही सरकारी क्षेत्र, विशेषकर सरकारी अस्पतालों की भूमिका की प्रशंसा में पंचमुख हो उठा है।
सरकारी अस्पताल में इलाज कर कोरोना के खिलाफ जंग जीतने वाले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन ने स्वास्थ्य कर्मियों के प्रति आभार जताते हुये खुली घोषणा किया है,’ ‘नेशनल हेत्थ सिस्टम’ ग्रेट ब्रिटेन की अनमोल धरोहर और कीमती संपत्ति है, जिसे हर हाल में बचाए रखना है। यही वह सिस्टम है जो हमारे देशवासियों की रक्षा कर रहा है।
स्मरण रहे 16 लाख से अधिक लोगों को जॉब मुहैया कराने वाला ब्रिटेन का ‘नेशनल हेल्थ सर्विस सिस्टम’ (Britain's National Health Service System) सरकारी अस्पतालों का समूह है, जो निजी अस्पतालों की तुलना में काफी सस्ता और बेहतर सेवाएँ मुहैया कराता है।
आज दुनिया के हर राष्ट्राध्यक्ष जहां एक ओर ब्रितानी प्रधानमंत्री की भांति अपने-अपने देश के सरकारी अस्पतालों, सरकारी स्वास्थ्य कर्मचारियों, पुलिस इत्यादि की भूमिका को सराह रहे हैं, वहीं दूसरी ओर वे स्पेन के प्रधान की तरह निजी क्षेत्र की तीव्र आलोचना कर रहे हैं। स्मरण रहे स्पेन के पीएम ने कहा है-‘ कोरोना की लड़ाई जीतने के बाद भी निजी अस्पतालों के प्रति सरकार नरमी नहीं बरतेगी क्योंकि वे संकट के समय बिल में घुस गए थे’।
बहरहाल कोरोना की महामारी में जिस तरह पूरी दुनिया में सरकारी सेक्टर की सराहना हो रही है, उससे जागरूक लोगों के मन में यह सवाल उठने लगा है कि जो मोदी लाभजनक सरकारी कंपनियों तक के विनिवेश के साथ चिकित्सा, शिक्षा और परिवहन इत्यादि समस्त व्यवस्था पूरी तरह निजी हाथों में देने में सर्वशक्ति से लगा रहे हैं, क्या वह कोरोना संकट के बाद सरकारी क्षेत्र की ओर लौटने का मन बनाएँगे?
लेकिन यहाँ मोदी सरकार के समक्ष दोहरी समस्या है। पहला यह कि आज़ाद भारत मे संघ प्रशिक्षित मोदी ने जिस उग्र तरीके से वर्ग-संघर्ष छेड़ा है, वह अभूतपूर्व है। वर्ग- संघर्ष में वह अपने वर्ग- शत्रुओं (बहुजनों) को फिनिश करने तथा शक्ति के समस्त स्रोत देश के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथ में सौपने के लिए जिस हद तक आमादा हैं, उससे उनके पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी तक उनके समक्ष बौने हो गए हैं।
वर्ग संघर्ष से प्रेरित होकर ही वाजपेयी ने बाकायदे विनिवेश मंत्रालय खोलकर सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में देने का सिलसिला शुरू किया था, किन्तु वह मोदी की तरह समस्त सरकारी सेक्टर निजी हाथों में देने का प्रयास नहीं किए। हो सकता है, सहयोगी दलों पर निर्भरता उसका कारण रही हो। किन्तु आज मोदी किसी पर निर्भर नहीं हैं, इसलिए वह वाजपेयी से कई गुना वेग से निजीकरण की ओर इसलिए बढ़ रहे हैं। लेकिन सिर्फ जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में शक्ति के समस्त स्रोत सुलभ कराने के लिए ही नहीं, बल्कि हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की दोहरी जरूरतवश भी मोदी के लिए निजीकरण की राह पर दौड़ना जरूरी है।
भारतीय संविधान हिन्दू राष्ट्र निर्माण की राह में इसलिए बाधा है, क्योंकि यह शूद्रातिशूद्रों को उन सभी पेशे/कर्मों में प्रतिभा प्रदर्शन का अवसर प्रदान करता है, जो पेशे/ कर्म हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा सिर्फ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग(मुख-बाहु-जंघा) से उत्पन्न लोगों(ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्यों) के लिए ही आरक्षित रहे हैं।संविधान प्रदत यह अधिकार हिन्दू धर्म की स्थिति हास्यास्पद बना देता है। क्योंकि हिन्दू धर्मशास्त्रों में डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, पुलिस-सैनिक, शासक-प्रशासक बनने तथा शक्ति के समस्त स्रोतों (आर्थिक-राजनैतिक- शैक्षिक- धार्मिक इत्यादि) के भोग का अधिकार सिर्फ मुख-बाहु-जंघे से जन्में लोगों को है और संविधान के रहते वे इस एकाधिकार का भोग नहीं कर सकते हैं। संविधान के रहते हुये भी इन सभी क्षेत्रों पर उनका एकाधिकार तभी कायम हो सकता है जब, उपरोक्त क्षेत्र निजी क्षेत्र में शिफ्ट करा दिये जाएँ।
हिन्दू राष्ट्र का सपना संजोई मोदी सरकार इस बात को भलीभांति जानती है, इसलिए संविधान के रहते देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए सारी चीजें निजी क्षेत्र में देना की मजबूरी है। ऐसे मे वह बोरिस जॉन्सन की भूमिका में अवतरित होकर कोरोना संकट में त्राता के रूप मे उभरे सरकारी क्षेत्र की ओर लौटने का मन बनाएँगे, इसके प्रति खूब आशावादी नहीं हुआ जा सकता ।
एच. एल. दुसाध
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)