आज 18 अप्रैल 2021 को International Day For Monuments and Sites (विश्व धरोहर दिवस) है। आज से करीब चालीस साल पहले वर्ष 1984 में यूनेस्को (UNESCO) ने विरासत या धरोहर को बचाने के लिए प्रतिवर्ष 18 अप्रैल के दिन को विश्व धरोहर दिवस (World Heritage Day in Hindi) पूरी दुनिया में मनाने की नींव डाली। वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरणविद् अरुण तिवारी (Senior journalist and environmentalist Arun Tiwari) का विश्व विरासत दिवस के बारे में यह लेख मूलतः 18 अप्रैल 2017 को हस्तक्षेप पर प्रकाशित हुआ था।
नेपाल में भूकंप (Earthquake in nepal) आया, तो काठमांडू स्थित राजा के दरबार की ऐतिहासिक इमारत व मूर्ति पर भी खतरा बरपा। उत्तराखंड में सैलाब (flood in Uttarakhand) आया, तो बद्री-केदार तक प्रभावित हुए। पूर्वोत्तर भारत (Northeast India) में आये हालिया भूकम्प ने भी जिंदा वर्तमान के साथ-साथ अतीत की विरासतों को लेकर चेतावनी दी।
भारतीय राजनीति में आये दिन आने वाले भूकम्पों ने भी सद्भाव और प्रेम की हमारी विरासत को कम नुकसान नहीं पहुंचाया है। भारत-पाक संबंधों ने कश्मीर को स्वर्ग बताने वाले विरासत वचनों को क्षति पहुंचाई ही है। सबक साफ है कि वह विरासत के अपने निशानों की चिंता करनी शुरु करे; खासकर, विश्व विरासत के निशानों को। उनकी सुरक्षा के तकनीकी उपाय व सावधानियों पर शुरु कर देना जरूरी है; कारण कि वैज्ञानिक आकलनों ने साफ कर दिया है कि प्राकृतिक आपदा (natural calamity) के आगामी अंदेशों से अछूता तो भारत भी नहीं रहने वाला है।
गौर कीजिए कि यूनेस्को की टीम सांस्कृतिक और प्राकृतिक महत्व के जिन संपत्तियों को ’विश्व विरासत’ का दर्जा देती है, वे विश्व विरासत का हिस्सा बन जाती हैं। उन्हें संजोने और उनके प्रति जागृति प्रयासों को अंजाम देने में यूनेस्को, संबंधित देशों के साथ साझा करता है।
यूनेस्को यानी संयुक्त राष्ट्र संघ का शैक्षिक, वैज्ञानिक एवम् सांस्कृतिक संगठन (UNESCO, the educational, scientific and cultural organization of the United Nations.)
यूनेस्को के इस दायित्व की शुरुआत ऐतिहासिक महत्व के स्थानों व इमारतों की एक अंतर्राष्ट्रीय परिषद 'इकोमोस’' द्वारा ट्युनिशिया में आयोजित एक सम्मेलन में आये एक विचार से हुई। 18 अप्रैल, 1982 में इसी सम्मेलन में पहली बार ’विश्व विरासत दिवस’ का विचार पेश किया गया, तो मंतव्य भी बस, इतना ही था। यूनेस्को ने 1983 के अपने 22वें अधिवेशन में इसकी मंजूरी दी। आज तक वह 981 संपत्तियों को विश्व विरासत का दर्जा दे चुका है। संकटग्रस्त विरासतों की संख्या 44 है। सबसे अधिक 49 स्थान/संपत्तियों के साथ इटली, विश्व विरासत की सूची में सबसे आगे और 30 स्थान/ संपत्तियों के साथ भारत सातवें स्थान पर है। अपनी विरासत संपत्तियों का सबसे बेहतर रखरखाव व देखभाल करने का सेहरा जर्मनी के सिर है।
गौरतलब है कि आज भारत के छह प्राकृतिक और 24 सांस्कृतिक महत्व के स्थान/इमारतें विश्व विरासत की सूची में दर्ज हैं। अजंता की गुफाएं (Ajanta Caves) और आगरा फोर्ट ने इस सूची में सबसे पहले 1983 में अपनी जगह बनाई। सबसे ताजा शामिल स्थान राजस्थान के पहाड़ियों पर स्थित रणथम्भौर, अंबर, जैसलमेर और गगरोन किले हैं।
ताजमहल, लालकिला, जंतर-मंतर, कुतुब मीनार, हुमायुं का मकबरा, फतेहपुर सीकरी, अंजता-एलोरा की गुफायें, भीमबेतका की चट्टानी छत, खजुराहो के मंदिर, महाबलीपुरम्, कोणार्क का सूर्यमंदिर, चोल मंदिर, कर्नाटक का हम्पी, गोवा के चर्च, सांची के स्तूप, गया का महाबोधि मंदिर, आदि प्रमुख सांस्कृतिक स्थलियां हैं।
प्राकृतिक स्थानों के तौर पर कांजीपुरम वन्य उद्यान, नंदा देवी की खूबसूरत पहाड़ियों के बीच स्थित फूलों की घाटी और केवलादेव पार्क भी इस सूची में शामिल हैं। पहाड़ी इलाकों में रेलवे को इंजीनियरिंग की नायाब मिसाल मानते हुए तमिलनाडु के नीलगीरि और हिमाचल के शिमला-कालका रेलवे को विश्व विरासत होने का गौरव प्राप्त है।
कभी विक्टोरिया टर्मिनल के रूप में मशहूर रहा मुंबई का रेलवे स्टेशन आज छत्रपति शिवाजी टर्मिनल के रूप में विश्व विरासत का हिस्सा है।
अमृतसर का स्वर्ण मंदिर (Golden Temple of Amritsar), लेह-लद्दाख और सारनाथ के संबंधित बौद्ध स्थल, प. बंगाल का बिशुनपुर, पाटन का रानी का वाव, हैदराबाद का गोलकुण्डा, मुंबई का चर्चगेट, सासाराम स्थित शाह सूरी का मकबरा, कांगङा रेलवे और रेशम उत्पादन वाले प्रमुख भारतीय क्षेत्रों समेत 33 भारतीय संपत्तियां अभी प्रतीक्षा सूची में हैं। यदि पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगित बलास्तिान वाले हिस्से में उपस्थित बाल्तित के किले को भी इसमें शामिल कर लें तो प्रतीक्षा सूची की यह संख्या 34 हो जाती है।
उल्लेखनीय है कि यूनेस्को ने विरासत शहरों की एक अलग श्रेणी और संगठन बनाया है। कनाडा इसका मुख्यालय है। इस संगठन की सदस्यता प्राप्त 233 शहरों में फिलहाल भारत, पाकिस्तान और बांग्ला देश का कोई शहर शामिल नहीं है। आप यह जानकर संतुष्ट अवश्य हो सकते हैं कि एक विरासत शहर के रूप में जहां हड़प्पा सभ्यता के सबसे पुराने निशानों में एक - धौलवीरा और आजादी का सूरज उगने से पहले के प्रमुख निशान के रूप दिल्ली को भी 'विश्व विरासत शहर' का दर्जा देने के बारे में सोचा जा रहा है। किंतु दिल्ली-एनसीआर के इलाके को जिस तरह भूंकप की स्थिति में बेहद असुरक्षित माना जा रहा है, क्या इसे संजोना इतना आसान होगा ?
इन तमाम आंकड़ों से इतर विरासत का वैश्विक पक्ष चाहे जो हो, भारतीय पक्ष यह है कि विरासत सिर्फ कुछ परिसंपत्तियां नहीं होती। बाप-दादाओं के विचार, गुण, हुनर, भाषा, बोली और नैतिकता भी विरासत की श्रेणी में आते हैं। संस्कृति को हम सिर्फ कुछ इमारतों या स्थानों तक सीमित करने की भूल नहीं कर सकते। भारतीय सांस्कृतिक विरासत का मतलब 'अतिथि देवो भवः' और 'वसुधैव कुटुम्बकम' से लेकर 'प्रकृति-माता, गुरु-पिता तक है। गौ, गंगा, गीता और गायत्री आज भी हिंदू संस्कृति के प्रमुख निशान माने जाते हैं। गुरु ग्रंथ साहिब, बाइबिल और कुरान को विरासत के चिन्ह मानकर संजोकर रखने का मतलब किसी पुस्तक को संजोकर रखना नहीं है। इसका मतलब उनमें निहित विचारों को शुद्ध मन व रूप में अगली पीढ़ी को सौंपना है। क्या हम ऐसा कर रहे हैं ? हमारी पारिवारिक जिंदगी और सामाजिक ताने-बाने में बढ़ते तनाव इस बात के संकेत हैं कि हम भारतीय सांस्कृतिक विरासत के असली संस्कारों को संजोकर करने रखने में नाकामयाब साबित हो रहे हैं। हमारा लालच, स्वार्थ, हमारी संवेदनहीनता और रिश्तों के प्रति अनादर हमें भावी बर्बादी के प्रति आंख मूंदने की प्रक्रिया में ले जा चुके हैं। यह सांस्कृतिक विरासत से चूक ही है कि हम कुदरत का अनहद शोषण कर लेने पर उतारू हैं। नतीजा क्या होगा ? सोचिए!
प्रश्न कीजिए कि क्या हमारे हुनरमंद अपना हुनर अगली पीढ़ी को सौंपने को संकल्पित दिखाई देते हैं ? ध्यान, अध्यात्म, वेद, आयुर्वेद और परंपरागत हुनर की बेशकीमती विरासत को आगे बढाने में यूनेस्को की रुचि हो न हो, क्या भारत सरकार की कोई रुचि है ?
भारत की मांग पर विश्व योग दिवस की घोषणा (Announcement of World Yoga Day on the demand of India) को सामने रख हम कह सकते हैं कि हां, भारत सरकार की रुचि है। किंतु दिल पर हाथ रखकर खुद से पूछिए कि क्या गंगा, गौ और भारतीय होने के हमारे गर्व की रक्षा के लिए आज वाकई कोई सरकार, समाज या हम खुद संकल्पित हैं ?
नई पीढ़ी के अनैतिक होने का दोषी कौन ?
नैतिकता की विरासत का हश्र हम हर रोज अपने घरों, सड़कों और चमकते स्क्रीन पर देखते ही हैं। अनैतिक हो जाने के लिए हम नई पीढ़ी पर को दोष भले ही देते हों, किंतु क्या यह सच नहीं कि हम अपने बच्चों पर हमारी गंवई बोली तो दूर, क्षेत्रीय-राष्ट्रीय भाषा व संस्कार की चमक तक का असर डालने में नाकामयाब साबित हुए हैं। सोचिए! गर हम विरासत के मूल्यवान मूल्यों को ही नहीं संजो रहे तो फिर कुछ इमारतें और स्थानों को संजोकर क्या गौरव हासिल होगा ? अपनी विरासत पर सोचने के लिए यह एक गंभीर प्रश्न है।
सावधान होने की बात है कि जो राष्ट्र अपनी विरासत के निशानों को संभाल कर नहीं रख पाता, उसकी अस्मिता और पहचान एक दिन नष्ट हो जाती है। क्या भारत ऐसा चाहेगा ? यदि नहीं तो हमें याद रखना होगा कि गुरुकुलों, मेलों, लोककलाओं, लोककथाओं और संस्कारशालाओं के माध्यम से भारत सदियों तक अपनी सांस्कृतिक विरासत के इन निशानों को संजोये रख सका। माता-पिता और ग्राम गुरु के चरण स्पर्श और नानी-दादी की गोदियों और लोरियों में इसे संजोकर रखने की शक्ति थी। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रियों द्वारा हिंदी में भाषण को जरूरी बताने को मिली मंजूरी से हिंदी की विरासत बचाने को शक्ति मिलेगी ही। अब गंगा-जमुनी संस्कृति की दुर्लभ विरासत भी कहीं हमसे छूट न जाये। भारतीय अस्मिता व विरासत के इन निशानों को संजोना ही होगा। आइये, संजोयें; वरना् कश्मीर में पड़ते पत्थरों से लेकर साप्रंदायिक आग भड़काने वाले प्रयासों से चुनौती देने का कारोबार जारी है ही।
अरुण तिवारी