कफर क़ासिम नरसंहार की 69वीं बरसी: फ़िलिस्तीन दूतावास ने शहीदों को दी श्रद्धांजलि, कहा — "स्मृति ही प्रतिरोध है"
दिल्ली स्थित फिलिस्तीन दूतावास ने कफर क़ासिम नरसंहार की 69वीं बरसी पर शहीदों को श्रद्धांजलि दी। 1956 में हुए इस हत्याकांड में 49 निर्दोष फिलिस्तीनी मारे गए थे।

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नई दिल्ली में फिलिस्तीन दूतावास ने कफर क़ासिम नरसंहार की 69वीं बरसी पर किया श्रद्धांजलि कार्यक्रम
- कफर क़ासिम: 1956 का वह काला दिन जिसने फ़िलिस्तीन के दर्द को अमर कर दिया
- “स्मृति स्वयं प्रतिरोध है” — फिलिस्तीन दूतावास ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से की न्याय की अपील
नई दिल्ली स्थित फिलिस्तीन दूतावास ने कफर क़ासिम नरसंहार की 69वीं बरसी (69th Anniversary of Kafr Qasim Massacre) पर शहीदों को श्रद्धांजलि दी। 1956 में हुए इस हत्याकांड में 49 निर्दोष फिलिस्तीनी मारे गए थे। दूतावास ने कहा, “कफर क़ासिम को याद करना मानवता को याद करना है — स्मृति ही प्रतिरोध है
कफर कासिम नरसंहार की 69वीं बरसी पर श्रद्धांजलि
नई दिल्ली, 1 नवंबर 2025। भारत स्थित फ़िलिस्तीन राज्य के दूतावास (Embassy of the State of Palestine – New Delhi) ने 29 अक्टूबर को गहरी श्रद्धा के साथ कफ़र क़ासिम नरसंहार की 69वीं बरसी (69th anniversary of the Kafr Qasim Massacre) को याद किया। यह उस लम्बे अत्याचार और उत्पीड़न के इतिहास का एक काला अध्याय है जिसे फ़िलिस्तीनी जनता ने सहा है।
कफ़र क़ासिम नरसंहार क्या है ?
29 अक्टूबर 1956 की शाम को, जब पूरी दुनिया का ध्यान स्वेज संकट की ओर था, तब इज़राएली सैन्य बलों ने फ़िलिस्तीन के गाँव कफ़र क़ासिम में अचानक कर्फ्यू लागू कर दिया। उस समय अधिकांश ग्रामीण खेतों में ज़ैतून की फ़सल काटने में व्यस्त थे। जब वे अपने घर लौट रहे थे, तो उन्हें कर्फ्यू की जानकारी नहीं थी। रास्ते में इज़राएली सैनिकों ने उन्हें रोका, कतार में खड़ा किया — और निर्दयता से गोली मार दी। इस नरसंहार में 49 निर्दोष लोग मारे गए, जिनमें 23 बच्चे, 13 महिलाएँ और 13 पुरुष शामिल थे।
तब के इजरायली प्रधानमंत्री डेविड बेन-गुरियन (Israeli Prime Minister David Ben-Gurion) के शासन के दौरान इज़राएली अधिकारियों ने इस अपराध को छिपाने की कोशिश की। केवल जनदबाव के बाद ही मीडिया ने इस घटना की सीमित और अपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित की। बाद में हुआ सैन्य न्यायालय का मुकदमा न्याय दिलाने का प्रयास नहीं था, बल्कि आलोचकों को चुप कराने का माध्यम था।
मामले के प्रमुख अधिकारी को प्रतीकात्मक रूप से सिर्फ़ एक पाइस्टर का जुर्माना लगाया गया, और उसने बाद में हारेट्ज़ अख़बार में स्वीकार किया कि उसने केवल “ऊपर से मिले आदेशों” का पालन किया था — “उन्हें काट गिराने के आदेश।”
कफ़र क़ासिम नरसंहार (the Kafr Qasim Massacre) फिलिस्तीनी त्रासदी के साथ जारी संगठित यहूदीवादी आतंकवाद की स्थायी याद है। यह तरीक़ा दशकों से इज़राइल ने अपनाया हुआ है जो 1948 में इज़राइल की स्थापना से पहले ही शुरू हुआ था और आज तक जारी है।
हगाना, इरगुन और लेही जैसी यहूदीवादी सशस्त्र संगठनों को ब्रिटिश शासनकाल में आतंकी संगठन घोषित किया गया था। इन संगठनों ने देर-यासीन, अल-तनतुरा और अन्य स्थानों पर भयावह हिंसक हमले किए, जिनके कारण लाखों फिलिस्तीनी अपने पुश्तैनी घरों से बेदखल हो गए।
दशकों से फिलिस्तीनियों को अपनी कहानी स्वयं कहने का अधिकार नहीं मिला है। फिलिस्तीन के संघर्ष से जुड़ी वैश्विक कथा को संगठित रूप से तोड़ा-मरोड़ा गया, या सच कहें तो यहूदी रंग में रंग दिया गया है — मीडिया, वित्तीय संस्थानों और इस्लामोफ़ोबिया के दुरुपयोग के माध्यम से। इसका उद्देश्य फ़िलिस्तीन के इतिहास को मिटाना, क़ब्ज़े को न्यायोचित ठहराना और हमारे दुख को अमान्य घोषित करना रहा है।
कफ़र क़ासिम को याद करना मात्र शोक मनाना नहीं है — यह एक नैतिक और ऐतिहासिक दायित्व है। स्मृति स्वयं प्रतिरोध है — यह सच्चाई को दफ़नाने या विकृत करने से इनकार है।
जैसे भारत जलियांवाला बाग़ को याद करता है, वैसे ही फिलिस्तीनी कफ़र क़ासिम को याद करते हैं, प्रतिशोध के लिए नहीं, बल्कि न्याय में विश्वास और इस भरोसे के साथ कि मानवता निर्दोषों के ख़िलाफ़ किए गए अपराधों को कभी अनदेखा नहीं कर सकती।
इस गंभीर अवसर पर, भारत में फिलिस्तीन राज्य के दूतावास ने कफ़र क़ासिम के सभी शहीदों और फिलिस्तीन की स्वतंत्रता व गरिमा की लड़ाई में शहीद हुए सभी वीरों को श्रद्धांजलि अर्पित की।
भारत में फिलिस्तीन राज्य के दूतावास ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील करते हैं कि वह ऐतिहासिक सच्चाई का सामना करे, अंतरराष्ट्रीय कानून को कायम रखे, और फ़िलिस्तीनी जनता के विरुद्ध अतीत और वर्तमान में किए गए सभी अपराधों के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करे।
"न्याय और सत्य अविभाज्य हैं।"
भारत में फिलिस्तीन राज्य के दूतावास ने कहा है कि कफ्र क़ासिम को याद करना मानवता को याद करना है — और हमारे उस अटल अधिकार को भी, जिसके तहत हम अपनी मातृभूमि में स्वतंत्र, समान और गरिमापूर्ण जीवन जीना चाहते हैं।


