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अचरज की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी का सोलहवीं लोकसभा का आखिरी संबोधन (Prime Minister Modi's last address to the sixteenth Lok Sabha), राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस (Debate on President's Address) का जवाब कम और सत्ताधारी भाजपा का चुनाव प्रचार ज्यादा था। प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पूरी पारी के आक्रामक स्वर को कायम रखते हुए, नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने विपक्ष पर जमकर हमले किए। इस क्रम में, खासतौर पर विपक्ष की आम चुनाव की लिए साथ आने की कोशिशों को निशाना बनाते हुए, उन्होंने एक नया शब्द ही गढ़ डाला--मिलावटी गठबंधन। इस संज्ञा का अभिप्राय स्वत: स्पष्ट है। मिले-जुलेपन या मेल-जोल या महज गठबंधन की संज्ञाओं के विपरीत, मिलावट या मिलावटी से निश्चित रूप से सिर्फ नकारात्मक ध्वनि निकलती है। एक प्रकार प्रधानमंत्री अपने विरोधियों को एक ऐसी राजनीतिक गाली दे रहे थे, जिसे कम से कम असंसदीय कोई नहीं कह सकता है।

मोदी की असंसदीय राजनीतिक गाली का पहला मौका नहीं है ये

बेशक, यह कोई पहला मौका नहीं है जब प्रधानमंत्री ने विपक्ष की गठबंधन बनाने की कोशिशों पर हमला किया है। सच तो यह है कि पिछले दो-ढ़ाई साल से, विभिन्न मुद्दों पर मोदी सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के कारगर तरीके से एक साथ आना शुरू करने के बाद से ही, सत्ताधारी पार्टी और खुद प्रधानमंत्री भी, ‘गठबंधन’ मात्र को लगातार हमलों का निशाना बनाए रहे हैं।

बिहार में 2015 के आखिर में हुए विधानसभाई चुनाव में ‘‘महागठबंधन’’ के हाथों भाजपा की करारी हार ने, गठबंधन के खिलाफ इन हमलों को और तेज ही किया था। हां! सत्ताधारी पार्टी के इन हमलों में अब तक ज्यादातर, विपक्षी गठबंधन के विचार के लिए हिकारत से ‘खिचड़ी’ जैसी संज्ञाओं का ही प्रयोग किया जाता रहा था।

चाहे विपक्ष की इस दलील में धीरे-धीरे दम आने की वजह से हो कि मौजूदा राज में बीमार हो गए देश को ‘खिचड़ी’ ही मुफीद रहेगी या चाहे भाषण में नयेपन की तलाश में हो, भाजपा अध्यक्ष अमितशाह ने पिछले कुछ महीनों से विपक्षी गठबंधन के लिए ‘ठगबंधन’ जैसे जुम्लों को आजमाना शुरू कर दिया था। अब प्रधानमंत्री ने इन हमलों को ‘मिलावट’ और ‘मिलावटी’ तक पहुंचा दिया है!

पर अचरज की बात नहीं है कि विपक्षी गठबंधन के खिलाफ इन हमलों में, गठबंधन मात्र को कमजोरी की निशानी के रूप में पेश किया जाता रहा है।

जाहिर है कि इसी सिक्के के दूसरे पहलू के तौर पर मौजूदा सरकार को, एक ताकतवर या मजबूत सरकार के तौर पर पेश किया जाता रहा है। इस वाद-विवाद में गठबंधन बनाने की यह कथित कमजोरी, खुद ब खुद अस्थिरता, अनिर्णायकता, बड़े तथा अलोकप्रिय फैसले लेने में असमर्थता आदि का पर्याय बन जाती है। और दूसरे पहलू पर गठबंधन की जरूरत नहीं होने की मजबूती, खुद ब खुद स्थिरता, निर्णायकता, बड़े तथा अलोकप्रिय फैसले लेने की सामथ्र्य का पर्याय बन जाती है।

बेशक, सोलहवीं लोकसभा में भाजपा को खुद अकेले बहुमत हासिल होने ने, नरेंद्र मोदी की सरकार के साथ मजबूती के उक्त सभी अर्थ जोड़ दिए थे। ये अर्थ इस तथ्य से और भी चमक उठे थे कि पूरे तीस साल बाद, लोकसभा में किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ था।

    लेकिन, तीस साल बाद किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलने के तथ्य ने ही, 2014 के चुनाव में भाजपा की जीत को, उसके वास्तविक आकार से बहुत बड़ा भी बना दिया। सत्ताधारी दल ने उसे डटकर अभूतपूर्व जीत यानी अभूतपूर्व ताकत की मूर्ति के रूप में प्रचारित भी किया, हालांकि यह अव्वल तो तथ्यात्मक रूप से गलत था और अस्सी के दशक के मध्य तक, लगभग सभी सरकारें, इससे बड़े बहुमत से चुनकर आयी थीं। इसके अलावा इस चुनाव में भाजपा, सिर्फ 31 फीसद वोट के बल पर 282 सीटें लेकर, सीटों की संख्या में भी वास्तव में बहुमत की रेखा से जरा सा ही ऊपर निकल पायी थी। इसका महत्व तब साफ हो जाता है जब हम इस तथ्य पर गौर करते हैं कि पिछले दो साल में हुए एक के बाद एक लोकसभाई उपचुनावों में हार ने, अकेले भाजपा का बहुमत कब का खत्म कर दिया था। इसके बावजूद, मोदी सरकार अगर अपने पूरे कार्यकाल में अवेध्य बनी रही है, तो गठबंधन के अपने सहयोगियों के ही सहारे से। वास्तव  में सहयोगियों की ही ताकत के सहारे लोकसभा में तीन सौ तीस का आंकड़ा पार कर मोदी सरकार शुरू से ही अवध्य बनी रही थी।

    लेकिन, यहां हम मौजूदा सत्ताधारियों के गठबंधन-विरोध के एक बड़े अंतर्विरोध से दो-चार होते हैं। गठबंधन को ही कमजोरी, अस्थिरता आदि का पर्याय साबित करने में लगी रही सत्ताधारी पार्टी, इसी दौर में खुद एक गठबंधन और गठबंधन की सरकार चला रही थी। वास्तव में, खासतौर पर उत्तर-पूर्व में गठबंधनों के ही जरिए, कई सरकारों तक पहुंच बनाने में कामयाब रही भाजपा, एक समय पर तो पूरी 42 पार्टियों के साथ गठबंधन में रही थी। पार्टियों की इतनी बड़ी संख्या इससे पहले किसी और गठबंधन में शामिल रही हो, ऐसा याद नहीं पड़ता है। बहरहाल, इसे प्रचार का ही कमाल कहा जाएगा कि शायद अब तक का सबसे बड़ा गठबंधन बनाकर भी भाजपा और उसके नेतृत्ववाली सरकार, गठबंधन माने कमजोरी का समीकरण, अपने विरोधियों तक ही सीमित करने में काफी अर्से तक कामयाब रही है।

    बेशक, खुद गठबंधन चलाते हुए भी, गठबंधन मात्र के तिरस्कार के इस प्रकट अंतर्विरोध को ढांपने के लिए, सत्ताधारी भाजपा द्वारा यह बताने की कोशिशें की जाती रही हैं कि उसका गठबंधन, विपक्ष जैसे गठबंधन से बुनियादी तौर पर अलग है। कि विपक्ष का ही गठबंधन कमजोरी आदि का सबूत है, जबकि उनका गठबंधन, ताकत की मूर्ति है, आदि। इसके लिए दो तर्कों का लागातार और एक तर्क का अवसरवादी तरीके से खूब सहारा लिया जाता रहा है। पहला तर्क तो यही है कि उनका गठबंधन एक बहुत बड़ी पार्टी, भाजपा के गिर्द, उसकी तुलना में काफी छोटी-छोटी पार्टियों के जमा होने से बना गठबंधन है। लेकिन, उनके मुकाबले खड़े किए जा रहे गठबंधन में कोई ऐसा भारी केंद्र ही नहीं है और यह उसे प्रकृति से ही कमजोर तथा अस्थिर बना देता है। इसी से निकला, दूसरा तर्क यह है कि हमारा नेता तय है, तुम्हारा नेता कौन है? और अवसरवादी तर्क यह है कि विपक्षी गठबंधन, एक-दूसरे की विरोधी पार्टियों का और इसलिए अवसरवादी तथा कमजोर गठबंधन है, जबकि भाजपा के गिर्द बना गठबंधन समान विचार वाली पार्टियों का और इसलिए टिकाऊ गठबंधन है। लेकिन, यह तर्क ज्यादा से ज्यादा शिव सेना के साथ भाजपा के गठबंधन के बारे में तो सच हो सकता है, अन्य पार्टियों के साथ उसके गठबंधन के बारे में नहीं।

बहरहाल, अब जनता के बढ़ते मोहभंग तथा उसके चलते खुद सत्ताधारी गठबंधन, एनडीए से तेलुगू देशम, असम गण परिषद, रालोसपा, हम, गोरखा जन मुक्ति परिषद आदि, कई पार्टियों के नाता तोड़ने के बाद, चुनाव के लिए सत्ताधारी भाजपा को भी अपने गठबंधन होने की काफी याद आ रही है। दूसरी ओर, सत्ताधारी गठबंधन और मजबूती के उसके दावों की बुनियादी कमजोरी को उजागर करते हुए, भाजपा की सहयोगी पार्टियों ने उसकी मजबूरी भांपकर, दबाव बढ़ा दिया है। सबसे पहले यह खेल बिहार में सार्वजनिक हुआ, जहां भाजपा को गठबंधन को बनाए रखने के लिए अंतत: पिछले चुनाव की जीती सीटों से भी पांच कम सीटें लडऩे की कीमत पर, गठबंधन के सहयोगियों को संतुष्ट करना पड़ा। इसके बावजूद, पिछले चुनाव के उसके गठबंधन से दो पार्टियां छिटक चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में भी ‘छोटी’ सहयोगी पार्टियों के साथ सार्वजनिक रूप से ऐसी ही रस्साकशी चल रही है। उधर महाराष्ट्र में शिव सेना और भाजपा की सार्वजनिक कलह तो उस मुकाम पर है, जहां इस पर सिर्फ अटकलें ही लगायी जा सकती हैं कि आम चुनाव में उनका गठबंधन रहेगा भी या नहीं? दूसरी ओर, तमिलनाडु में तथा उत्तर-पूर्व के राज्यों में भाजपा जोर-शोर से सहयोगी खोजने में लगी हुई है।

जाहिर है कि यह भारत की जबर्दस्त विविधता की बुनियादी सचाई ही है, जिसे भाजपा को न चाहते हुए भी स्वीकार करना पड़ रहा है। यह बुनियादी सचाई, राजनीतिक प्रतिनिधित्व की भी विविधता का तकाजा करती है और एक गठबंधन ही उसकी बेहतर जनतांत्रिक अभिव्यक्ति हो सकता है, न कि एकदलीय शासन। बेशक, आजादी की राष्ट्रीय लड़ाई की परंपरा से निकली कांग्रेस, इसी लड़ाई से निकले लक्ष्यों को हासिल करने की उम्मीदों के बल पर, आजादी के बाद के पहले दो दशकों तक अकेले सत्ता में बनी रही थी। लेकिन, एक तो आजादी के फौरन बाद, यह पार्टी खुद एक तरह के गठबंधन का ही प्रतिनिधित्व करती थी। दूसरे, आजादी की लड़ाई की उम्मीदें पीछे हटने के  साथ, वैसी एकदलीय सत्ता की जनतांत्रिक वैधता घटती गयी। इसी पृष्ठभूमि में साठ के दशक के उत्तराद्र्घ में पहली बार सत्ता पर कांग्रेस का एकाधिकार देश के बड़े हिस्से में टूटा और अस्सी के दशक के उत्तराद्र्घ से भारत में बाकायदा गठबंधन सरकारों का दौर शुरू  हो गया, जो वास्तव में अब भी जारी है। यूपीए-प्रथम और द्वितीय की दिशा और नियतियों का अंतर दिखाता है कि भारत के लिए गठबंधन सिर्फ जरूरी ही नहीं है, वही जनतंत्र के लिए बेहतर भी है।

अचरज नहीं कि भारत के संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्र भारत के शासन की कल्पना, राज्यों के संघ के रूप में की है, न कि एकात्मक शासन के रूप में। स्वभाव से एकात्मक  शासन के पक्षधर संघ-भाजपा, आजादी के फौरन बाद के दशकों की कांग्रेस का बदल बनकर, गठबंधन की जरूरत को ही खत्म करने की कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन पिछले पांच साल यही साबित करते हैं कि ऐसा होने वाला नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि भाजपा का हिंदुत्व का आदर्श, भारत की समृद्ध धार्मिक विविधता को ही नहीं, क्षेत्रीय सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता को भी समेटने में असमर्थ है। ऐसे में भाजपा, मजबूरी में गठबंधन का सहारे लेते हुए भी, सारत: एकदलीय और वास्तव में एक नेता की ही सरकार चलाती रही है। यह गठबंधन से विविधता की अभिव्यक्ति को निकालकर, उसे अलोकतांत्रिक अवसरवादी गठजोड़ में बदल देती है।

भाजपा ने बिना किसी साझा कार्यक्रम के पांच साल गठबंधन की सरकार चलायी जरूर, लेकिन चुनाव की पूर्व-संध्या में उसका गठबंधन बिखरता नजर आ रहा है। वास्तव भाजपा का ही गठबंधन है जो सिर्फ सत्ता लोभ के सहारे टिका हुआ, अवसरवादी और इसलिए बुनियादी तौर अस्थिर गठबंधन है। वर्ना असली गठबंधन ही भारत के जनतांत्रिक मिजाज के  ज्यादा अनुकूल पड़ता है।

राजेंद्र शर्मा

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