आस्था और धर्म-कर्म की सांस्कृतिक जड़ें खत्म करके हम अपराध कर्म में तब्दील कर रहे हैं धर्म को?
यह अभूतपूर्व धर्म-संकट क्यों है?
क्योंकि मनुष्यता और प्रकृति के विध्वंस का मुक्तबाजार हमने चुना है!
पलाश विश्वास
हमारा धर्म कितना कमजोर है जो महज असहमति या आलोचना से लहूलुहान हो जाता है?
हमारी आस्था कितनी निराधार है कि हम दूसरों की आस्था से अपने को असुरक्षित मानते हैं?
हमारी आस्था कितनी असहाय है कि नास्तिकता की चुनौती के सामने वह आत्मरक्षा के लिए गिरोहबंद अपराधकर्म में बदल जाती है?
आस्था और धर्म कर्म की सांस्कृतिक जड़ें खत्म करके हम अपराधकर्म में तब्दील कर रहे हैं धर्म को?
मनुष्यता और प्रकृति को तिलांजलि देकर मुक्तबाजार का नरसंहार ही अब धर्म कर्म है, इसीलिए यह अभूतपूर्व हिंसा, युद्ध, गृहयुद्ध और फासिज्म का राजकाज है।
भारतीय उपमहादेश में धर्म कर्म का बुनियादी आधार मनुष्यता और प्रकृति दोनों है। सिंधु सभ्यता, वैदिकी साहित्य, बौद्धमय भारत, जैन धर्म, सिख धर्म से लेकर अठारवीं सदी के नवजागरण समय के ब्रह्म समाज और मतुआ आंदोलन में कर्मकांड के कारोबार, पुरोहित तंत्र और पाखंड के बदले मनुष्यता और प्रकृति को सभी स्तरों पर सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है।
भारतीय संत परंपरा में संत कबीर, सूरदास, रसखान से लेकर संत रैदास, चंडीदास और लालन फकीर के जाति-धर्म के बजाय उनकी मनुष्यता का दर्शन ही सिंधु सभ्यता, वैदिकी साहित्य, बौद्ध धम्म, जैन अहिंसा, गुरुग्रंथ साहेब की गौरवशाली परंपरा है।
भारत में उपासना पद्धति और धर्मस्थलों तक धर्म सीमाबद्ध कभी नहीं रहा है। हमारे महाकाव्यों में धर्म की व्याख्या भी मनुष्यता के शाश्वत मूल्यों पर आधारित है। जिस श्रीकृष्ण ने गीता के उपदेश दिये, वह जन्म से आर्य नहीं हैं। उनके मामा और दूसरे परिजन असुर हैं तो वे पले-बढ़े ग्वालों के साथ, जो न ब्राह्मण हैं और न क्षत्रिय।
आज की भाषा में कहें तो श्रीकृष्ण ओबीसी हैं।
इसी तरह हिंदुओं
तो करीब सात हजार साल के ज्ञात भारतीय इतिहास में आज यह अभूतपूर्व धर्म संकट क्यों है, इस पर हम विवेचना करें तो बेहतर है।
यह धर्म संकट इसलिए है कि धर्म के नाम पर हम पुरोहित तंत्र के राजकाज के ब्राह्मणधर्म को सत्ता सौंपी है और भारत विरोधी मनुष्यता विरोधी प्रकृति विरोधी युद्धक मुक्त बाजार के लिए अपनी अर्थव्यवस्था, अपनी उत्पादन प्रणाली, अपने प्राकृतिक संसाधनों के साथ साथ अपने गौरवशाली इतिहास और भारतीय संस्कृति को तिलांजलि देकर हम अमेरिकी जैविकी चरमोत्कर्ष की क्रयशक्ति की अंधीदौड़ में एक दूसरे का गला काटने से भी हिचक नहीं रहे हैं।
मुक्त बाजार का यह महाभारत है। युद्धोन्माद है।
इसीलिए हमारा धर्म अब हमारा अध्यात्म नहीं है, युद्धोन्माद है।
हम उस लालन फकीर को नहीं जानते, जिन्होंने अपने वजूद के भीतर मनुष्यता के चरमोत्कर्ष के लिए सारी अस्मिताओं को तिलांजलि देकर कर्म कांड के पाखंड के बजाय धर्मनिरपेक्षता के विविधता और बहुलता का धर्म साधा है।
लालन फकीर गीत गोविंदम् के जयदेव और पदावली के चंडीदास और वैष्णव आंदोलन के चैतन्य महाप्रभु को बाउल दर्शन में एकाकार कर देते हैं और इसी बाउल दर्शन के आाधार पर रवींद्र की गीतांजलि है, जिसे नोबेल पुरस्कार मिलने के पूरी एक सदी के बाद एक और बाउल, अमेरिकी जिप्सी बाउल बाब डिलान को राक एंड रोल और जाज के मूल स्वर से पृथक लोकसंगीत की जमीन पर खड़े होने के लिए, संगीत में मनुष्यता की जड़ों को खोजते हुए गीत लिखने के लिए नोबेल मिला है।
जो उपलब्धि रवींद्र ने सौ साल पहले हासिल कर ली थी, दोनों उपलब्धियां बाउलधर्मी हैं।
सौ सालों के आर पार मनुष्यता के लोकसंगीत की पूरब पश्चिम धाराओं को एकाकार कर देने के पीछे विशुद्ध भारतीय बाउल आंदोलन और लालन फकीर का दर्शन है जो संत कबीर का दर्शन, संत रविदास की दृष्टि और तथागत गौतम बुद्ध का धम्म भी है और इसका सबूत फिर गीतांजलि के कवि का लिखा गीति नाट्य चंडालिका है, जहां बुद्धं शरणं गच्छामि के साथ बहुजन जीवन यंत्रणा जितनी है, उससे कहीं अधिक भारत की दार्शनिक विरासत का समन्वय की विविधता और बहुलता है।
गीत गोविंदम से लेकर चंडीदास के कीर्तन, चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन में फिर असुर अनार्य श्रीकृष्ण हाड़ मांस रक्तधारा में बहुजन समाज का जैविकी जीवन और पुरोहित तंत्र के विरुद्ध वहीं बाउल आध्यात्म है जो धर्म निरप्क्ष, जाति निरपेक्ष भारतीय इतिहास है।
विविधता और बहुलता का साझा चूल्हा है।
इस आलेख की शुरूआत से पहले आज सुबह मैंने व्यापक पैमाने पर लालन फकीर के गीत, चंडीदास के पदावली कीर्तन, गीतगोविंदम, लोककवि विजय सरकार के लोकगीत, संपूर्ण गीतांजलि और चंडालिका के वीडियो सोशल मीडिया पर साझा किये हैं।
मौका लगा और हम जिंदा रहे तो इन पर अलग अलग विस्तार से चर्चा भी करेंगे।
हमारी संत साधु पीर फकीर बाउल परंपरा में पूरब में लालन फकीर और उत्तर भारत में संत कबीऱ की न कोई जाति है और न उनका कोई मजहब है।
बाउल और सूफी आंदोलन जैसे धर्म निरपेक्ष जाति निरपेक्ष है, उसी तरह भारत में संतों का भक्ति संत आंदोलन में राम रहीम एकाकार है।
मजार और दरगाह जितने मुसलमनों के हैं, उससे कम हिंदुओं के नहीं रहे हैं। संत कबीर, सूरदास, रसखान, मीराबाई, गोस्वामी तुलसीदास, संत तुकाराम, चैतन्य महाप्रभु, दादू, बशेश्वर, गुरु नानक, गाडगे महाराज जैसे संत आंदोलन के पुरोधाओं नें कर्मकांड और पुरोहित तंत्र को खारिज करके मनुष्यता को धर्म-कर्म का आधार साबित किया है, जिसका आधुनिकीकरण लिंगायत आंदोलन, मतुआ आंदोलन, आर्यसमाज आंदोलन, ब्रह्मसमाज आंदोलन में देखा जा सकता है।
इसी ब्राह्मण धर्म और पुरोहित तंत्र के खिलाफ बौद्ध, जैन, सिख धर्मो की निरंतरता बहुजन आंदोलन है जो हमारी लोकसंस्कृति की विरासत पर आधारित है और जिसका बुनियादी लक्ष्य समता, न्याय और पितृसत्ता से मुक्त स्त्री अस्मिता के साथ साथ जल जंगल जमीन और आजीविका, नागरिकता के हकहकूक है।