ललित सुरजन
देश की राजनीति में इस समय अजब सी आपाधापी मची है। लोकसभा के चुनाव 2014 में होना हैं और अभी से प्रधानमन्त्री पद के लिये कोई डेढ़ दर्जन दावेदार खड़े हो गये हैं। भाजपा में लालकृष्ण अडवानी, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नितिन गडक़री और शिवराज सिंह सात उम्मीदवारों के नाम तो चल ही रहे थे; रमन सिंह खामोश हैं, लेकिन उनका भी नाम जोड़ लेना चाहिये। समाजवादी पार्टी से मुलायम सिंह यादव और जद यू से नीतीश कुमार के साथ-साथ शरद यादव के नाम भी उठे हैं। एनसीपी के शरद पवार की महत्वाकाँक्षा किसे पता नहीं है! जयललिता, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी भी अपने-अपने समीकरण बैठाने में लगे हुये हैं। मजे की बात है कि जिस पार्टी ने प्रधानमन्त्री पद को लेकर अब तक कोई हड़बड़ी नहीं दिखायी, उसे आठ उम्मीदवारों वाली भाजपा बार-बार चुनौती दे रही है कि अपना उम्मीदवार घोषित करो। अरे भाई! तुम पहले अपने बीच में तो एक राय कायम कर लो, उसके बाद सामने वाले को ललकारना।
इस उथल-पुथल में सबसे विचित्र स्थिति भाजपा की दिखायी दे रही है। अभी कुछ माह पूर्व तक बड़बोले पार्टी प्रवक्ता अहंकारपूर्वक बताते थे कि उनका राज किस-किस प्रदेश में है। जो प्रदेश उनके पास थे, उनमें से कर्नाटक, उत्तराखंड और हिमाचल हाथ से निकल गये। झारखंड में जो अनैतिक गठबंधन किया था वह त्रिशंकु की दशा को प्राप्त हो गया है। नवीन पटनायक ने तो पाँच साल पहले ही दोस्ती तोड़ दी थी। अब बिहार में भी सत्ता की भागीदारी खत्म हो गयी है। आज की तारीख में भाजपा के पास कुल साढ़े तीन प्रान्त बचे हैं- गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गोवा और पंजाब। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने लगातार तीसरी बार चुनाव जीता है, लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि क्या मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में आसन्न चुनावों में भाजपा इस तरह का
यह तो लोग देख रहे हैं कि भाजपा में किस तरह मोदी और अडवानी के बीच प्रधानमन्त्री पद पाने की होड़ लगी हुयी है। इसे ही कहते हैं ''सूत न कपास...''। अभी लोकसभा चुनाव होना बाकी है, उसमें भाजपा ही विजयी होगी, यह पता नहीं किस दिव्य दृष्टि से इन्होंने देख लिया! काँग्रेस को पानी पी-पीकर कोसने और उठते-बैठते, सोते-जागते उस पर आरोप लगाने से यदि चुनाव जीते जा सकते तो फिर कहना ही क्या था! अपने इस प्रमाद में भाजपा ने दो महत्वपूर्ण वास्तविकताओं की अनदेखी कर दी। एक तो यह कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार बनने के कारक तत्व क्या थे। दूसरे, नरेन्द्र मोदी की महत्वाकांक्षा को हवा देते हुये यह तथ्य कि गुजरात पूरा भारत नहीं है। दरअसल यह बात तो 2004 के चुनाव में ही समझ आ जाना चाहिये थी। यह वाजपेयी जी की असफलता थी कि वे बहुत चाहकर भी श्री मोदी को नहीं हटा सके।
मैं भाजपा के बारे में विचार करता हूँ तो बिल्कुल भी नहीं समझ पाता कि यह पार्टी एक दक्षिणपन्थी, अनुदार, पूँजीवादी जनतान्त्रिक विकल्प के रूप में स्वयं को तैयार करने में क्यों हिचकती है। यह जानते हुये भी कि राम म्नदिर, कॉमन सिविल कोड और धारा-370 को ठण्डे बस्ते में डाल देने के बाद ही भाजपा एक राष्ट्रीय गठबन्धन बना पाने में सफल हो सकी थी, वह पार्टी क्यों बार-बार उग्र हिन्दुत्व की ओर लौटती है। अगर भाजपा अपनी इस जिद को किसी दिन छोड़ दे तो वह स्वतन्त्र पार्टी के नए अवतार के रूप में सामने आ सकती है। मुश्किल यह है कि अब भाजपा के पास न तो दीनदयाल उपाध्याय जैसा कोई सिद्धान्तकार है और न अटल बिहारी वाजपेयी जैसा कोई जननेता। लालकृष्ण अडवानी ने शायद इस बात को समझा था और अपने आपको एक नए साँचे में ढालने की कोशिश की थी, लेकिन संघ के जड़मति नियन्ताओं ने उनकी इस रणनीति को समझा ही नहीं और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।
इधर बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार भी राजनीति के आकाश पर धूमकेतु की तरह उदित हुये हैं। मुख्यमन्त्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें भी लग रहा है कि वे प्रधानमन्त्री की कुर्सी के लिये बेहतर उम्मीदवार हैं। इसके चलते उन्होंने भाजपा के साथ राष्ट्रीय स्तर पर सत्रह साल और प्रदेश स्तर पर आठ साल से लगातार चले आ रहे गठबंधन को तोड़ने में कोई संकोच नहीं किया। यूँ कहने को जदयू राष्ट्रीय दल है और उसके अध्यक्ष शरद यादव राजग के संयोजक थे, लेकिन सत्ता तो उनके हाथ कुल मिलाकर एक ही प्रदेश याने बिहार में है, जिसके चलते व्यावहारिक स्थिति यह है कि शरद यादव कुछ भी चाहें, होगा वही जो नीतीश कुमार चाहेंगे। नीतीश कभी प्रधानमन्त्री बन पायेंगे या नहीं, दो वर्ष बाद वे अकेले विधानसभा चुनाव जीत पायेंगे या नहीं, इस बारे में कोई भविष्यवाणी करना उचित नहीं होगा, लेकिन कम से कम आज बिहार के बाद जदयू और अधिक कमजोर हुयी है। ऐसे में शरद यादव भी अपने वर्चस्व को तभी कायम रख पायेंगे जब वे अपने गृहप्रान्त मध्यप्रदेश तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने बलबूते पार्टी को मजबूत कर सकें। ऐसी खबरें सुनने मिली हैं कि श्री यादव तत्काल राजग छोड़ने के पक्ष में नहीं थे। मुझे यह सूचना सही लगती है।
बहरहाल, राजग में जो बिखराव होना था, वह हो गया। अब आगे की तस्वीर क्या बनेगी? इस घटनाचक्र की पृष्ठभूमि में ममता बनर्जी और नवीन पटनायक भी एकाएक सक्रिय हो गये हैं। वे फैडरल फ्रन्ट या कि संघीय मोर्चा बनाने की सम्भावना टटोल रहे हैं। वे इसमें झारखंड को भी इस बिना पर जोड़ना चाहते हैं कि इन चारों प्रदेशों की स्थितियाँ एक समान हैं। यह एक कुतर्क ही है, लेकिन राजनीति अक्सर तर्क से नहीं चलती। असली सवाल यह है कि क्या सचमुच इस तरह का कोई मोर्चा बन सकता है। चार प्रदेश, चार अलग-अलग पार्टियाँ- चुनाव पूर्व गठजोड़ की सम्भावना क्षीण है, लेकिन यदि चुनाव के बाद गठजोड़ होगा तो उसके आधार क्या होंगे? नवीन, ममता और नीतीश तीनों समय-समय पर भाजपा के साथ रह चुके हैं। चुनाव के बाद तीनों मिलकर किसका साथ देंगे- काँग्रेस का या भाजपा का और किन शर्तों पर? क्या वे अपने में से किसी के लिये प्रधानमन्त्री का पद माँगेंगे या फिर और कुछ?
अभी इस प्रस्तावित मोर्चे को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। वामदल भी इनके इरादों के बारे में आश्वस्त दिखायी नहीं देते। वयोवृद्ध कम्युनिस्ट नेता ए.बी. बर्द्धन ने साफ-साफ कहा है कि बिना साझा कार्यक्रम तय किये बात आगे नहीं बढ़ सकती। ऐसे ही विचार माकपा की तरफ से भी आये हैं। वामदलों की हिचक समझ में आती है। वे ममता बनर्जी के साथ जायें, असम्भव है। वे शायद नवीन पटनायक के साथ भी न जायें जिन्होंने उड़ीसा को पास्को व वेदांता जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों के लिये खुला छोड़ दिया है। वाममोर्चे को चन्द्रबाबू नायडू अच्छे लग रहे हैं, लेकिन उनमें अब वह चमक नहीं है जो आज से दस साल पहले थी। इस बीच एक और नई बात हुयी है। सीपीआई के मुखर प्रवक्ता डी. राजा पहले डीएमके के समर्थन से राज्यसभा में पहुँचे थे, अब वे एआई डीएमके समर्थन से चुनाव लड़ रहे हैं। यह अपने आप में बड़ी बात नहीं है, लेकिन यदि कल को जयललिता अपने 'मित्र' नरेन्द्र मोदी का समर्थन करते हुये राजग में शामिल हो जायें तब क्या स्थिति बनेगी? हाँ, जयललिता ने भाजपा का साथ न देने का संकल्प कर लिया हो तो बात अलग है।
इस खेल में दो खिलाड़ियों का जिक्र मैंने अभी तक नहीं किया है। एक- शरद पवार और दूसरे- मुलायम सिंह यादव। श्री पवार के बारे में फिलहाल हम मान लें कि वे यूपीए में बने रहेंगे। उनकी बेटी के नेतृत्व में शायद राकांपा काँग्रेस में लौट भी आये! लेकिन 2014 के चुनावों में हमेशा की तरह उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों की बड़ी भूमिका होगी। बहुत से अध्येता यहाँ काँग्रेस का भविष्य धूमिल बता रहे हैं, लेकिन मेरा सोचना है कि 2009 की स्थिति से कोई बहुत ज्यादा परिवर्तन यहाँ नहीं होगा। मुलायम सिंह निर्णायक भूमिका निभा पायेंगे, ऐसा विश्वास तुरन्त नहीं करना चाहिये। कुल मिलाकर यह कोहराम जल्दी थमते नज़र नहीं आता।
देशबंधु में प्रकाशित