और फिर वे मेरे लिए आए ..
नवउदारवाद के समय में, मीडिया के जनतंत्र के प्रहरी होने की बात अविश्वसनीयसी लगने लगी है
-सुभाष गाताडे
पेड़ खामोश होना चाहते हैं
मगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं
-जोस मारिया सिसोन
/फिलीपिनो इन्कलाबी एवं कवि/
क्या हमारे वक्त़ के तमाम अग्रणी बुद्धिजीवी, जो असहमति के आवाज़ों के पक्षधर रहते आए हैं, बरबस अवकाश पर चले गए हैं - अब जबकि कन्हैया कुमार जेल से बाहर निकल कर आया है ? या वह सोच रहे हैं कि जो तूफां उठा है वह अपने आप थम जाएगा।
दरअसल जिस किसी ने हमारे समय की दो बेहद उम्दा शख्सियतों के साथ - प्रोफेसर निवेदिता मेनन और गौहर रज़ा - के खिलाफ चल रही सार्वजनिक कुत्साप्रचार एवं धमकियों की मुहिम को नज़दीकी से देखा है, और उसके बाद भी जिस तरह की चुप्पी सामने आ रही है / भले ही एकाध-दो बयान जारी हुए हों या कुछ प्रतिबद्ध कलमघिस्सुओं के लेख इधर-उधर कहीं वेबपत्रिकाओं में नज़र आए हों/ उसे देखते हुए यही बात कही जा सकती है।
प्रोफेसर निवेदिता मेनन को इस तरह निशाना बनाया गया है कि सन्दर्भ से काट कर उनके व्याख्यानों के चुनिन्दा उद्धरणों को सोशल मीडिया पर प्रसारित करके उन्हें ‘एण्टी नेशनल’ अर्थात् राष्ट्रद्रोही घोषित किया जा सके जबकि गौहर रज़ा पर गाज़ इसलिए गिरी है कि उन्होंने दिल्ली में आयोजित भारत-पाक मुशायरे में - जिसे शंकर शाद मुशायरा के तौर पर जाना जाता है - उन्होंने न केवल शिरकत की बल्कि वहां धर्म और राजनीति के खतरनाक संश्रय पर उन्होंने जो कविता पढ़ी, वह शायद ‘भक्तों’ को नागवार गुजरी है।
ध्यान देनेलायक बात है कि यहां पर भी वही टीवी चैनल फोकस में है, जिस पर यह आरोप भी लगे हैं कि उसने जेएनयू /जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली/प्रसंग में न केवल ऐसे विडिओ प्रस्तुत किए जिनके साथ छेड़छाड़ की गयी थी
...एक के बाद एक सेक्युलर लोगों को निशाना बनाने के प्राथमिक कारणों को संघ की इस सालाना बैठक में उजागर किया गया है। दरअसल विश्वविद्यालयों में ‘राष्ट्रविरोधी’ गतिविधियों पर और ‘देश की बरबादी के नारों’ के खिलाफ कार्रवाई करने की बात करके वह केसरिया एजेण्डा के खिलाफ जो रचनात्मक और तर्कशील विरोध खड़ा हो रहा है, उस प्राथमिक रास्ते को बन्द करना चाह रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने एजेण्डा को खोल कर रख दिया है।
यह समझने की जरूरत है कि इन दक्षिणपंथियों के निशाने पर आने के लिए यह कोई जरूरी नहीं कि आप कम्युनिस्ट विचारधारा से ताल्लुक रखते हों या इस्लामिस्ट हों।
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जिस सुनियोजित एवं शरारती तरीके से प्रोफेसर मेनन और गौहर रज़ा को - एक एक कर - निशाना बनाया गया है, वह एक बात को स्पष्ट करता है कि उनके निशाने पर कोई भी आ सकता है। ऐसा कोई भी व्यक्ति जो स्वतंत्र चिन्तन की क्षमता रखता हो और इतना साहसी भी हो कि जहां पर भी वह सक्रिय है, उस स्थान से उनके सामने असुविधाजनक एवं बेचैन करनेवाले सवाल खड़ा करे, वह टार्गेट बन सकता है।
जनाब गोलवलकर, जिन्हें संघ के लोग गुरूजी नाम से संबोधित करते हैं और जो संघ के दूसरे सुप्रीमो रह चुके हैं, उन्होंने अपनी किताब ‘विचार सुमन’ में भले ही ‘आन्तरिक दुश्मनों’ के तौर पर कम्युनिस्टों, मुसलमानों और ईसाइयों का जिक्र किया हो, मगर आज जबकि हिन्दू राष्ट्र के हिमायतियों के ‘अच्छे दिन’ आए हैं, हम देख सकते हैं कि अकादमिक जगत में उनकी हां में हां न मिलाना या एक सरकारी मुलाजिम के तौर पर संवैधानिक सिद्धान्तों पर टिका रहना - जबकि वह अपने उसके खिलाफ काम करते आए हैं - आप पर उनके कहर के बरपा होने का कारण बन सकता है।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जबकि जनाब रामचंद्र गुहा ने अपने साक्षात्कार में बताया कि फिलवक्त सत्ता की बागडोर सम्भाली हुकूमत स्वाधीन भारत के अब तक के इतिहास की सबसे अधिक ‘बुद्धिजीवी विरोधी’ हुकूमत है। प्रोफेसर संजय सुब्रमहमण्यम का कहना था कि ‘यह सरकार अकल से पैदल है।’ अपने साक्षात्कार के अन्त में उन्होंने विकसित होते सामाजिक विमर्श पर टिप्पणी करते हुए बताया कि ‘ आज असली लोग आज कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं हैं और आलम यह है कि छदम नामों से जितना भी जहर उगला जा सके इसपर कोई रोक नहीं है। यह स्थिति समाज के बौद्धिक दिवालियापन की स्थिति का द्योतक है, जिसे निश्चित ही देश की हाक़िम तंजीमों के उभार के साथ जोड़ा जा सकता है। ’
अग्रणी हिन्दी कवि राजेश जोशी की अस्सी के दशक के अन्त या नब्बे के दशक की बहुचर्चित कविता कहती है - याद करें यह वही दौर था जब बाबरी मस्जिद विध्वंस की तैयारियां जोरों पर थीं -
‘जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे मारे जाएंगे
निश्चित ही किसी को यह उम्मीद नहीं रही होगी कि पचीस साल बाद भी वह कविता उससे भी अधिक प्रासंगिक मालूम पड़ेगी।