पुरस्कार वापसी
पहला पुरस्कार 4 सितंबर को लौटाया था उदय प्रकाश ने। आखिरी पुरस्कार (अब तक का) आज शेखर पाठक और एक मूर्तिकार ने लौटाया है। इन दो महीनों के बीच यह पहल ''बीच की ज़मीन'' पर मजब़ूती से खड़ी थी, अगर सियासत में कोई ''बीच की ज़मीन'' होती हो तो...।
ऐसा क्या हो गया कि तमाम बिखरी हुई असहमतियों के कल मावलंकर सभागार में एकजुट होने के बाद ही आज सोनिया गांधी राष्ट्रपति से मिलने चली गईं और कल वे मार्च निकालने भी जा रही हैं?
मैं अच्छे से जानता हूं कि मेरा सवाल उसी संघी रीति का है, जैसे सवाल पुरस्कार वापसी के विरोध में दक्खिनी टोले से उठाए जा रहे हैं। फिर भी पूछना ज़रूर चाहूंगा कि क्या कल हुआ कार्यक्रम कल होने वाले कांग्रेसी मार्च के लिए एक ''बिल्ड-अप'' था?
अब यह पूछा जाना ज़रूरी है। अब तक मैंने इतना एक्सप्लिसिट तर्क संघियों की ओर से नहीं सुना था जैसा आज सुधांशु त्रिवेदी ने इरफ़ान हबीब के सामने एनडीटीवी पर दिया, कि आप एक साथ इतिहासकार और राजनीतिक नहीं हो सकते। दोनों का लाभ एक साथ नहीं ले सकते।
त्रिवेदी बोले कि मैं पेशे से इंजीनियर हूं, लेकिन भाजपा प्रवक्ता होने के नाते मैं किसी बहस में इंजीनियर होने का लाभ नहीं उठा सकता। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र में अगर एक नागरिक को राजनीतिक स्टैंड लेना है तो ऐसा वह किसी दल का हुए बगैर नहीं कर सकता, वरना उसका कोई अर्थ नहीं होगा।
इरफ़ान हबीब लगातार यह डिसक्लेमर देते रहे कि उनका कांग्रेस से क्या मतलब है, वे तो स्वतंत्र आवाज़ों की बात कर रहे हैं।
यह डिसक्लेमर उस समाज में कोई मायने नहीं रखता जहां सुस्पष्ट पाले खींच दिए गए हों।
आप ''स्वतंत्र'' होंगे, लेकिन आपके लिए ''बीच की ज़मीन'' ही नहीं छोड़ी गई है। ऐसे
में स्वतंत्र होने का उद्घोष ''माइ नेम इज़ खान बट आइ एम नॉट ए टेररिस्ट'' टाइप लगता है।
यह सच है कि असहिष्णुता का विरोध करने वाले अलग-अलग विचारधारात्मक खेमों से आते हैं, लेकिन यह भी सच है कि जब वे खुद को ''स्वतंत्र'' कहते हैं तो यह उनके बौद्धिक फ्रॉड को दिखाता है। लेखक, इतिहासकार, अकादमिक, कलाकार, आप चाहे जो हों, कम्युनिस्ट हैं तो खुद को कम्युनिस्ट कहिए। कांग्रेसी हैं तो कांग्रेसी कहिए। लोहियावादी हैं तो वही सही। रघुराम राजन, नारायणमूर्ति, शाहरुख, मूडीज़ की बैसाखी थाम कर एक बौद्धिक जब यह कहता है कि देखो-देखो, ये कौन से कम्युनिस्ट हैं लेकिन ये भी हमारी ही बात कह रहे हैं, तो वह दरअसल अपनी विश्वसनीयता को ही चोट पहुंचा रहा होता है।
ऐसे ही ढुलमुल विरोध को देखकर वे लोग लगातार कहेंगे कि यह लड़ाई आइडियोलॉजी की नहीं है, पूर्वाग्रहों की है। यह हमें बार-बार स्थापित करना होगा कि बॉस, यह लड़ाई आइडियोलॉजी की ही है और अगर आपने समाज में बीच की ज़मीन नहीं छोड़ी है, तो हम भी ताल ठोंक कर अपने पाले को चुनते हैं।
मावलंकर सभागार में अशोक वाजपेयी के कार्यक्रम के चौबीस घंटा बीत जाने के बाद मैं खुलकर इस बात को कहने का जोखिम उठा रहा हूं कि एक ''लिबरल'' स्पेस की तलाश में किए गए इस आयोजन ने दो महीने में मेहनत से हासिल की गई ''बीच की ज़मीन'' को गंवा दिया है। इसके लिए कल के कार्यक्रम को अकेले दोष देना अपनी कमी को छुपाना होगा। सारी बहस पोलराइज़ हो जाने की सबसे बड़ी वजह वे बुद्धिजीवी रहे हैं जिन्होंने खुद को स्वतंत्र साबित करने की कीमत पर अपनी राजनीतिक पक्षधरता को सार्वजनिक मंच पर छुपाया है।
कल से यह मामला कांग्रेस बनाम बीजेपी का होगा और आठ नवंबर के बाद सिर्फ और सिर्फ बीजेपी का होगा, यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है।
अभिषेक श्रीवास्तव