जितने सैनिक हर साल आतंकवादियों से लड़कर नहीं मरते, उससे ज्यादा आत्महत्या कर मरते हैं
2000 से 2012 के बीच 12 साल में 3987 सैनिक मारे गए, जबकि, इस दौरान हमने युद्ध एक भी नहीं लड़ा।
2004-13 के दस सालों में खेत में अनाज उगाने में लगे – 1,58,865 किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए।
जम्मू कश्मीर में 2013 में, 24 जवानों ने आत्महत्या की, वहीं 15 जवान आतंकवादियों से मुठभेड़ में मारे गए
अनुराग मोदी
1965 में: जब एक तरफ, देश की सीमा पर पाकिस्तान के साथ युद्ध हो रहा था; और दूसरी तरफ - देश सूखे और अकाल के संकट से झूज रहा था, ऐसे समय में, तत्कालीन प्रधानमंत्री, लाल बहादुर शाश्त्री ने नारा दिया था: ‘जय-जवान – जय-किसान’। लेकिन, पिछले दो दशकों में भाजपा और मीडिया के कुछ वर्ग ने एक ऐसा उन्माद का माहौल खड़ा कर दिया है, जैसे सैनिकों की मौत पर ‘घडियाली आंसू’ बहाना और बात-बात पर ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाना भर ही राष्ट्रवाद की असली निशानी रह गया है। माहौल इस हद तक बिगड़ गया है कि कल तक जो किसानों, आदिवासियों और छात्रों की मौत पर सवाल उठाना हर जागरूक नागरिक और नेता का कर्तव्य माना जाता था; वो, आज किसी ना किसी बहाने ‘देशद्रोह’ करार दे दिया जाता है! आपको मीडिया और सरकार कटघरे में खड़ा कर देती है।
ऐसा लगता है, जैसे देश के निर्माण में लगे:आदिवासी; किसान; दलित; मजदूर; अन्य सरकारी कर्मचारी और बाकी लोग आदि जिस काम को अंजाम देते हैं, ना तो उसमें कोई जान का जोखिम होता है और, ना वो राष्ट्रवाद का हिस्सा होता है।
लेकिन, अगर हम देश निर्माण में लगे: किसान; सफाई कर्मचारियों; और मजदूरों आदि की मौत के साथ-साथ सैनिकों और अर्ध सैनिक बल की मौत के असली कारणों पर नजर डालेंगे, तो समझ आएगा कि नेतागण ‘घड़ियाली आंसू’ बहाकर
ना सिर्फ इन मुद्दों को छुपाकर सैनिकों की मौत को अपनी ओछी राजनीति के लिए भुनाना चाहते है; बल्कि, यह देश के आम नागरिकों का ध्यान असली मुद्दों से भटकाने की साजिश है।
हमें ऐसा आभास कराया जाता है, जैसे सारे सैनिक देश की सीमा की रक्षा करते मारे जाते है। लेकिन, अगर हम 12 अगस्त, 2014 को लोकसभा में, तत्कालीन रक्षा मंत्री, अरुण जेटली का बयान देखे: देश की सीमा की रक्षा करते हुए, सीज फायर उल्लंघन में, दस साल (2004-13) में मात्र 27 जवान मारे गए। अब, हम अन्य कारणों से होने वाली सैनिकों की मौत के आंकड़ों को समझे, उसके पहले कुछ अन्य आंकड़ों पर नजर डालें।
हर साल हम जो गंदगी करते हैं; देश की गटर से उस गंदगी साफ़ करते हुए 22,000 दलित सफाई कर्मचारी मारे जाते है - 9 मार्च, राज्यसभा में, भाजपा सांसद तरुण विजय। हर साल अकेले दिल्ली में सीवर साफ़ करते-करते 100 सफाई कर्मचारी मर जाते हैं; यह कुल 5000 कर्मचारी का 2% है; अब इस प्रतिशत के अनुसार सेना में सैनिकों की मौत होने लगे, तो वो 40 हजार तक पहुंच जाएगी। दुख की बात यह है कि सफाई कर्मचारियों इस मौत की कोई कीमत नहीं है; वर्ना यह मौत कोई दुश्मन की गोली से तो होती नहीं है, जिसे उचित सुरक्षा उपाय उपलब्ध करा आसानी से रोका नहीं जा सकता था।
26 नवम्बर 2012 को, तत्कालीन, रक्षा मंत्री ए. के अंटोनी ने लोकसभा में बताया: 1999 के कारगिल युद्ध में 530 जवान शहीद हुए; वहीं, 2000 से 2012 के बीच 12 साल में 3987 सैनिक मारे गए, जबकि, इस दौरान हमने युद्ध एक भी नहीं लड़ा। वहीं, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं : 2004-13 के दस सालों में खेत में अनाज उगाने में लगे – 1,58,865 किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए। इस ब्यूरो के 2014 के आंकड़े बताते हैं: 955 मजदूर फैक्ट्री में मशीन पर काम करते हुए; 387 खदान में काम करते हुए; 998 गर्भवती महिला बच्चे को जन्म देते हुए; 946 लोग ठंड लगने से; और 1216 गर्मी में लू लगने से मारे गए। वहीं, रेल्वे के आंकड़े बताते है- मुम्बई में हर रोज काम पर जाते हुए भीड़ भरी ट्रेन से गिरकर या कटकर 10 लोग मारे जाते है।
जितने सैनिक हर साल आतंकवादियों से लड़कर नहीं मरते, उससे ज्यादा आत्महत्या कर कर मरते हैं। 22 जुलाई 2014 को तत्कालीन रक्षा मंत्री, अरुण जेटली ने लोकसभा में बताया कि 2009 से 2013 के पांच वर्षों में 597 सैनिकों ने आत्महत्या की; एक सूचना के अधिकार जानकारी के अनुसार: जम्मू कश्मीर में 2013 में, 24 जवानों ने आत्महत्या की, वहीं 15 जवान आतंकवादियों से मुठभेड़ में मारे गए।
आंतरिक सुरक्षा में लगे केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल की मौत के बारे में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, 2014 के आंकड़े बताते है : कुल 1,232 जवान मारे गए, उसमें: मात्र 7.2%, याने 89 मुठभेड़ में; उससे दुगने – 175 आत्महत्या करने कारण; 396 ट्रेन और सड़क दुर्घटना में और; आधे अन्य कारणों से अस्वाभाविक मौत मारे गए।
सियाचिन में जहाँ उस तरह से कोई सीमा पर खतरा नहीं है; और आजतक कोई युद्ध नहीं लड़ा गया, वहां 1984 से अब तक 869 सैनिक मारे गए; यहाँ हर दिन 6.8 करोड़ रुपए खर्च किए जाने के बावजूद, सैनिकों को मरने वाली ठंड से बचने के पर्याप्त साधन नहीं है। लगभग यही हाल पाकिस्तान का है। इसमें सैनिकों को ठंड से बचने के साधन उपलब्ध कराने वाली कंपनिया जरूर हर साल दोनों देशों से हर साल हजारों करोड़ रुपए कमा रहीं है। यह आग भी उनकी लगाई है।
जब सेना के काम भर को राष्ट्रवाद से जोड़ा जाता है, तो मेरे मन में सवाल उठता है कि इसे नापने का पैमाना क्या होता है? सेना में काम की हालत यह है; 2009 से 2011 में 25,062 हजार सैन्य-कर्मियों ने असामयिक सेवानिवृत्ति ली: 2009 में 7,499 ; 2010 में 7,245; 2011 में 10,317। वर्ष 2009 से 2012 तक 2215 सैन्य-अधिकारीयों ने असामयिक सेवानिवृत्ति के लिए सरकार को आवेदन दिया; इसमें से 1349 आवेदन मंजूर हुए।
अब, हम क्या इसका यह मतलब निकाले कि यह सैन्य अधिकारी और कर्मचारी अब ‘राष्ट्रवादी’ नहीं रहे? या, यह मानें कि वो परेशान होकर अन्य बेहतर तनख्वाह वाले काम में चले गए?
हमारी सेना में 10 हजार से ऊपर सैनिक नेपाली गोरखा हैं। जिनकी ईमानदारी और युद्ध छमता अतुल्ल्नीय है। लेकिन, यह हमारे देश के नागरिक नहीं है; तो फिर इनका राष्ट्रवाद कैसे तय होता है?
हाल ही में, मीडिया में एक समाचार था: बिहार में सेना में भर्ती के लिए एक हजार युवा आए जिन्हें मात्र चड्डी में जमीन पर खुले आसमान के नीचे बैठकर परीक्षा दिलवाई गई; जिससे वो नकल ना कर पाएं! हर साल जब सेना में 100 जवान के पद निकलते हैं; तो उसके लिए 10 हजार बेरोजगार युवा आवेदन करते हैं। हर बार भगदड़ मचती है; इसमें अनेक युवा घायल भी होते हैं। अभी, 17 मार्च को हैदराबाद में हुई ही एक भगदड़ में घायल 4 युवा गंभीर हालत में हैं। अब इन बेरोजगार युवाओं की देशभक्ति और राष्ट्रवाद नापने का कौन सा पैमाना सरकार के पास है- मालूम नहीं?
प्रदेश का देश की जनसंख्या और सेना में भर्ती का अनुपात इस प्रकार है: हिमाचल प्रदेश 0.6 -4.66 ; पंजाब 2.4 – 16.6 ; हरियाणा 2.2 – 7.02। वहीं, हर साल इंडियन मिलिट्री अकादमी में पास होने वाले अधिकारीयों में सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश और उसके बाद हरियाणा के युवा होते है; जैसे 2013 में: उत्तर प्रदेश से 121; हरियाणा से 62; और गुजरात से मात्र एक। अब, क्या इसका यह मतलब है? हम राज्यों को उनके यहाँ सेना में भर्ती के अनुपात में राष्ट्रवादी मानें? और, यह समझें अन्य राज्यों के मुकाबले गुजरात के लोग राष्ट्रवादी नहीं हैं! या, हम यह समझे कि वो लोग सेना में जाने की बजाए कोई और काम कर अपना पेट भरना चाहते हैं; और देश के निर्माण में अपनी हिस्सेदारी निभाते हैं।
सेवा निवृत्त सैनिकों ने अपनी पेंशन को लेकर लम्बा आंदोलन किया। इसमें से एक गुट तो अभी भी आंदोलन पर है। अब, क्या हम यह कहें कि वो सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद अपने ‘राष्ट्रवाद’ का ईनाम मांग रहे हैं? या हम यह मानें कि अन्य सरकारी कर्मचारियों की तरह उन्हें अपनी मांगों को लेकर आन्दोलन करने का अधिकार है।
इस थोथे राष्ट्रवाद ने हमें और हमारे पड़ोसी गरीब मुल्कों पाकिस्तान और चीन को इस हथियारों की दौड़ में लगा दिया, 2015 में: जहाँ चीन ने अपना रक्षा बजट में 10% की बढ़ोत्तरी की; पाकिस्तान ने 11.6% और भारत ने 11%। जबकि, यह देश गरीबी पर क्रमश: 83; 134; और 125 वें नम्बर पर थे। वहीं 2015 में अमेरिका ने अपने सैन्य खर्चे में 6.5 कमी लाया। हमें यह समझना होगा की भारत और पाकिस्तान एक समय में एक थे, जिसे परीस्थिति ने अलग किया। हमारे पड़ोसी: चीन, श्रीलंका; और नेपाल उस धर्म को मानते हैं, जिसका जन्म हमारे यहाँ हुआ था।
आज जरूरत थोथे राष्ट्रवाद और सैनिकों की मौत पर उन्माद भड़काने से बचने की है। उनकी और हमारी भलाई उनके और हमारे ‘राष्ट्रवाद’ को टकराने में नहीं है, बल्कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सूत्र पर अमल करते हुए और अपने पड़ोसियों से रिश्ते सुधारने में है। और सैन्य समान बेचने वाले देशों की चालों से बचने की। ना पाकिस्तान और चीन की जनता हथियार खा सकती है; और ना हम।
समाजवादी जन परिषद,