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क्या विकास और राष्ट्रवाद की युति का केन्द्र बन चुके हैं नरेंद्र भाई मोदी?
श्री राम तिवारी
कुछ लोगों के इस आकलन में दम है कि आइन्दा एनडीए अब इतिहास की वस्तु होने के करीब है। लगातार शिवसेना को दुत्कारने,  महाराष्ट्र में बिना शिवसेना के ही- देवेन्द्र फडणवीस सरकार बनाने, केन्द्र सरकार के अपने 'जम्बो - एक्टेंडेड मंत्रिमंडल' < यह सवाल तो लोग पूछ ही रहे हैं कि मिनिमम गवर्मेंट-मैग्ज़िमम एडमिनिस्ट्रेशन का क्या हुआ ?> में उद्धव को चिढ़ाते हुए 'बलात' सुरेश प्रभु को शामिल करने के बाद अब शक की कोई गुंजाइश नहीं कि मोदी जी को गठबंधन मुक्त भारत चाहिए ! अर्थात राह के रोड़े उन्हें कदापि पसंद नहीं। हरियाणा में वे अपने बलबूते राज्य सरकार बनवाने के बाद पंजाब और कश्मीर की ओर भी देख रहे हैं।
यदि इन राज्यों में भी वे सफल हो गए तो न केवल देश के क्षेत्रीय दल - वंशवादी राजनैतिक दल बल्कि हर किस्म के राजनैतिक गठबंधन के दौर भविष्य में अप्रसांगिक होते चले जायेंगे। वैसे भी मोदी जी को बहाव के अनुकूल तैरने का सुअवसर सहज ही प्राप्त हुआ है। जिस तरह उनका कुछ काम तो कांग्रेस-यूपीए ने आसान कर दिया है। उसी तरह कुछ काम अकाली,  नेशनल कांफ्रेंस के कुशासन तथा यत्र-तत्र-आतंकवादी और अलगाववादी भी आसान कर रहे हैं। बदनाम ममता बनर्जी और सजायाफ्ता जयललिता को भी भान होने लगा है कि उनके 'क्षेत्रीय दलों की अम्माएं' कब तक खैर मनाएंगी ? इधर देश का मध्यम वर्गीय युवा और 'व्हाइट कालर्स' भी मोदीजी की झाड़ू अदा से लेकर 'गंगा आरती' तक सब कुछ पसंद कर रहे हैं। हम भले ही मोदी के इन उपक्रमों का मजाक उड़ायें या आलोचना करें किन्तु सच यही है कि देश की बहुसंख्यक आवाम अब नीतियों और कार्यक्रम में नहीं बल्कि मोदी के व्यक्तित्व और कृतित्त्व में अपना कल्याण खोज रहे हैं। निसंदेह मोदी

जी विकास और राष्ट्रवाद की युति का के केन्द्र बन चुके हैं।
उनसे असहमत लोग भले ही उन्हें 'अधिनायकवादी' व्यक्तिवादी या वर्चस्ववादी कहते रहें किन्तु एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि मोदी राजनैतिक 'सफाई' में जरा ज्यादा ही माहिर हैं। पहले तो उन्होंने बड़ी हिकमत और तिकड़म से संघ परिवार और भाजपा में अपने ही संभावित प्रतिद्वन्द्वन्दियों की सफाई की। उन्होंने बड़े-बड़ों को कूड़ा करकट की मानिंद 'मार्गदर्शक' बना दिया। तदुपरांत अपने विश्वस्त सेनापति अमित शाह की मार्फ़त- शिवसेना और अपने बचे-खुचे अलायन्स के घरों में भी सफाई करने भी जा पहुंचे। सुरेश प्रभु हों या राव वीरेन्द्र सिंह हों या रामकृपाल यादव हों,  जो कल तक अपने पैतृक आकाओं के बगलगीर थे वे अब सभी मोदी जी की झाड़ू के तिनके बन चुके हैं। सार्वजनिक स्थलों की सफाई,  भ्रष्टाचार की सफाई, मुनाफाखोरों की सफाई, मिलावटियों की सफाई, जमाखोरों की सफाई और कालेधन वालों की सफाई भले ही वे न कर सकें या ना करना चाहें, किन्तु अपने अलायन्स पार्टनर्स दलों की सफाई में तो मोदी जी जरूर सफल होते दिख रहे हैं। वैसे भी देश में भगवा कलर की एक दर्जन पार्टियाँ होना कहाँ का न्याय है ? न केवल 'भगवा परिवार' बल्कि 'जनता परिवार' कांग्रेस परिवार 'डीएमके परिवार' सारे परिवार खत्म हों जाएँ तो भी देश में दो-तीन दल तो बच ही जाएंगे !
    कहा गया है कि सर्वजन हितकारी, क्रांतिकारी विचारधाराएँ कभी खत्म नहीं होती। अतएव मोदी की इस राजनैतिक सफाई के बाद देश में सिर्फ तीन विचारधाराएँ ही शेष रहेंगी। एक विचारधारा वह जो 'संघ परिवार' की है। एक वह जो गांधी-नेहरू-पटेल-आंबेडकर-मौलाना आजाद की है एवं जिसकी जड़ में नरसिम्हाराव और मनमोहनसिंह ने आर्थिक उदारवाद का मठ्ठा डाला है। यानी यह नव्य उदारवाद की विचारधारा ही अब कांग्रेस की विचारधारा बन चुकी है। एक वह जो देश के गरीब -मजदूरों -किसानो और शोषित पीड़ित सर्वहारा वर्ग की याने 'लेफ्ट' की विचारधारा है। चूँकि नरेंद्र भाई मोदी ने अपनी मातृ संस्था संघ की विचारधारा में नरसिम्हाराव और मनमोहनसिंह की विचारधारा का घालमेल कर लिया है, उसमें उन्होंने बहुसंख्यक हिन्दुत्ववादी विचारधारा का 'सत' भी डाल दिया है जो कि अब अल्पसंख्यक कट्टरवाद के समक्ष जस्टिफाई किया जा रहा है। इसलिए उनकी इस नई विचारधारा यानी 'मोदीवाद' के सामने अब कांग्रेस की शाम तो ढलने लगी है। इसीलिये आइन्दा जब जनता का इस 'मोदीवाद' से मोह भंग होगा, तब देश में शायद दो ही विचारधाराओं का द्वन्द्व शेष रहेगा। एक वह जो 'मोदी वाद' है और एक वह जो साम्यवाद है।
 चूँकि चारों ओर अंधाधुंध प्रचार-प्रसार और मीडिया की वर्चुअल इमेज का ही प्रभाव है कि जनता के सवाल हाशिए पर हैं,  चीन, पाकिस्तान की तो चर्चा ही छोड़िये। अब तो श्रीलंका भी आँखे दिखा रहा है। उसने चीन के फौजी बेड़ों को अपने पूर्वी तट पर आवाजाही की निरापद छूट दे रखी है। नेपाल भी आँखें तरेर रहा है। बांग्ला देश के आतंकी बंगाल में बमकांड कर रहे हैं। 'चोर-मचाये शोर' की तर्ज़ पर काला धन रातों रात स्विस बैंकों से गायब हो चुका है। क़ानून व्यवस्था की हालात ये है कि स्वर्णिम गुजरात में ही एयरपोर्ट पर जहाज से भैंस टकरा रही है। अस्पतालों में दर्जनों की तादाद में गलत इलाज से या स्कूलों में जहरीले खानपान से बच्चे रोज मर रहे हैं। हिंसा, रेप और डकैती पर बात करना अब बेकार है। बनारस में मोदी- अम्बानी- बिड़लाओं की आरती की आड़ में लोग उन फैक्टरियों और नालियों को विस्मृत कर चुके हैं जो कि मलमूत्र से गंगा को और ज्यादा गन्दी कर रही हैं।
पेट्रोल डीजल चूँकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारी गिरावट पर है इसलिए दुनिया भर में कीमतें गिरी हैं। उसी के कारण सोना भी भूलुंठित हो रहा है। यदि भारत में पेट्रोल डीजल 3-4 रुपया सस्ता कर दिया गया तो उसका बहुत प्रचार किया जा रहा है। किन्तु लोग पूछ रहे हैं की महंगाई किस चीज में कम हुई है ? डीजल-पेट्रोल सस्ता है तो ट्रासंपोर्टेशन भी सस्ता क्यों नहीं किया जा रहा है ? इन तमाम असफलताओं और आर्थिक संकट के वावजूद भी कुछ खास लोग 'मोदीमय' हो रहे हैं। क्या यह स्थायी भाव है ? क्या यह सिलसिला सदैव रह सकता है ? यह दुहराने की जरुरत नहीं कि 16 मई 2014 के बाद, भाजपा संसदीय बोर्ड का हर फैसला चूँकि नरेंद्र भाई मोदी का ही फैसला है। अतएव इस दौर में आभासी उपलब्धियों का श्रेय उनके खाते में जमा किया जा रहा है। लेकिन यदि राष्ट्र के साथ या राष्ट्र की जनता के साथ कोई 'हादसा' होता है तो आइन्दा नाकामियों का ठीकरा भी उन्हीं के सर फूटेगा।

Post by Digvijaya Singh.
श्रीराम तिवारी, लेखक जनवादी कवि और चिन्तक हैं. जनता के सवालों पर धारदार लेखन करते हैं

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