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भारत-पाकिस्तान संवाद : एक कदम आगे

प्रकाश कारात

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने, अफगानिस्तान पर एक सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए पाकिस्तान की यात्रा की। इससे पहले, भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों और विदेश सचिवों की बैठक हुई। इस तरह, पाकिस्तान के साथ बातचीत के मामले में मोदी सरकार ने अचानक पल्टी खाई है।

बेशक, अपने आप में यह बदलाव स्वागत योग्य है, फिर भी यह पाकिस्तान के प्रति कभी नरम कभी गरम तेवर दिखाने और उसके प्रति भारत की कूटनीति में सुसंगतता के अभाव को जरूर सामने लाता है।               

मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद से, पाकिस्तान के साथ संवाद जारी रखने के मामले में, टकराव का रुख अपना रखा था। विदेश सचिव के स्तर की वार्ताएं, जो 2014 के अगस्त में होनी थीं, इसका बहाना बनाकर निरस्त कर दी गयी थीं कि पाकिस्तान का विदेश सचिव, जम्मू-कश्मीर से हुर्रियत के नेताओं से मुलाकात करने जा रहा था।

करीब एक साल के अंतराल के बाद, दोनों प्रधानमंत्रियों की रूस में उफा में मुलाकात हुई और तय हुआ कि दोनों देशों के सुरक्षा सलाहकारों और सीमा-अर्द्ध सैनिक बलों के प्रमुखों की बातचीत होगी।

यह बातचीत भी, एजेंडे को लेकर दोनों ओर एक-दूसरे पर दोषारोपण के बीच निरस्त हो गयी। भारत इस पर बजिद था कि आतंकवाद ही इकलौता एजेंडा होगा, जबकि पाकिस्तान का आग्रह था कि बातचीत में कश्मीर तथा अन्य अनसुलझे मुद्दों पर भी बात होनी चाहिए। भारत ने पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की हुर्रियत नेताओं के साथ प्रस्तावित मुलाकात पर भी आपत्ति की थी।               

यहां तक आते-आते मोदी सरकार ने और भाजपा ने यह रुख

अपना लिया था कि बातचीत तभी होगी, जब पहले आतंकवाद पर काबू पा लिया जाए।

इस बीच सीमा के आर-पार लगातार गोलाबारी तथा फायरिंग से, जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर हालात बिगड़ते गए। जम्मू-कश्मीर में, सीमा पार से फिदायीन के हमले भी तेज हो गए। इस संदर्भ में भारत सरकार यह कहती आ रही थी कि जब तक पाकिस्तान सीमा पार से भारत में घुसपैठ रोकने के लिए कदम नहीं उठाता है तथा आतंकवाद से जुड़े सवालों पर बात नहीं करता है, बातचीत करने का कोई फायदा ही नहीं है।               

इसी नवंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रीनगर का दौरा किया था। जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक हलकों में इसकी उम्मीद की जा रही थी कि  इस दौरे के क्रम में पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने के संबंध में वह कुछ घोषणा करेंगे। लेकिन, कुछ नहीं हुआ।               

इसलिए, पाकिस्तान के मामले में आया बदलाव, यकायक पल्टी मारने जैसा लगता है। इससे पहले, पेरिस में पर्यावरणशिखर सम्मेलन के हाशिए पर, दोनों प्रधानमंत्रियों की चंद मिनटों की मुलाकात हुई थी।

इस मुलाकात के फलस्वरूप, 6 दिसंबर को बैंकाक में काफी गुपचुप तरीके से भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल तथा पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार लैफ्टीनेंट जनरल, नसीर जंजुआ की मुलाकात हुई। उनके साथ दोनों देशों के विदेश सचिव भी बातचीत में शामिल हो गए।

इस बैठक के बाद जारी बयान में कहा गया कि,

‘‘चर्चा में शांति व सुरक्षा, आतंकवाद, जम्मू-कश्मीर और अन्य मुद्दों के लिया गया, जिनमें नियंत्रण रेखा पर शांति भी शामिल है।’’

यह भी तय हुआ कि इस संवाद को आगे बढ़ाया जाएगा। उफा की सहमति पर आधारित बातचीत को निरस्त करने के चार महीने बाद अब भारत ने आतंकवाद के अलावा जम्मू-कश्मीर तथा अन्य मुद्दों पर बात करना मंजूर कर लिया है। याद रहे कि इन्हीं सब मुद्दों पर पहले कंपोजिट डॉयलाग के अंतर्गत बातचीत होती रही थी, जिसमें सरक्रीक विवाद तथा सियाचिन ग्लेशियर पर सेनाओं की तैनाती भी शामिल थी।               

आखिरकार, पाकिस्तान के प्रति अपनी इस अचल तथा अतार्किक मुद्रा से मोदी सरकार के पलटने की क्या वजह है?

मोदी सरकार, आतंकवाद के मुद्दे को वार्ताओं के रास्ते की बाधा के रूप में पेश करने के जरिए, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की अपनी कोशिशों में विफल रहा है। भारत के लिए हजम करना आसान नहीं था कि अमरीका ने, इसी बीच पाकिस्तान के लिए अपनी सैन्य सहायता बढ़ा दी।

नवाज शरीफ की वाशिंगटन की यात्रा के दौरान अमरीका ने, तालिबान के साथ वार्ताओं में पाकिस्तान की केंद्रीय भूमिका की एक बार फिर पुष्टिï की थी। सार्क देशों के समूह में भी भारत, खुद को अलग पड़ा पा रहा था। भारत द्वारा अपनाया गया यह रुख भी, कि भारत सीमा पार से आतंकी हमलों का सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों के जरिए जोरदार जवाब देगा और पाकिस्तान को इस मुद्दे पर अपनी बात मानने के लिए मजबूर कर देगा, एक अंधी गली में पहुंच गया था।

इस आक्रामक मुद्रा के विपरीत, सरकार की समझ में यह बात आ गयी होगी कि पाकिस्तान से बातचीत किए बिना तथा दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारे बिना, आतंकवादी हिंसा की समस्या से नहीं निपटा जा सकता है।               

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सबसे बढ़कर अमरीका और योरपीय यूनियन के देश भी, भारत पर पाकिस्तान के साथ बातचीत दोबारा शुरू करने के लिए दबाव डाल रहे थे।

मोदी सरकार, जिसने अमरीका के साथ अपने को घनिष्ठ रूप से जोड़ रखा है, इस दबाव को झेल नहीं सकती थी। अंतत:, अफगास्तिान के टकराव के समाधान में पाकिस्तान के केंद्रीय भूमिका संभाल लेने की सचाई ने, भारत के सामने इस मुद्दे पर क्षेत्रीय बहुपक्षीय प्रयासों तथा परामर्शों से अलग ही पड़ जाने की संभावना खड़ी कर दी थी। अफगानिस्तान पर हर्ट ऑफ एशिया सम्मेलन में सुषमा स्वराज का हिस्सा लेना, इसी सचाई के पहचाने जाने को दिखाता है।               

मोदी सरकार की पाकिस्तान नीति की घोर विफलता, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल के अंध-राष्ट्रवादी, राष्ट्रीय सुरक्षावादी रुख पर चलने के खतरों को ही दिखाती है। मोदी के आशीर्वाद से, पाकिस्तान से टकराव की नीति सूत्रबद्ध करने में, डोवाल की अनुचित भूमिका रही है।               

बेशक, आरएसएस और भाजपा के उग्रपंथी, पाकिस्तान के प्रति नीति में इस नये मोड़ से नाखुश हैं।  बहरहाल, उम्मीद की जाती है कि मोदी सरकार ने, पाकिस्तान के मामले में कूटनीति के दयनीय अध्याय से सही सबक लिए होंगे।

बैंकाक से शुरू हुई वार्ताओं की प्रक्रिया को अब चौतरफा संवाद की ओर बढ़ना चाहिए, जिसके दायरे में दोनों देशों के बीच तमाम अनसुलझे मुद्दों को समेटा जा सके।                                                           0

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