Hastakshep.com-समाचार-Sanatan Sanstha-sanatan-sanstha-सनातन संस्था-snaatn-snsthaa

पलाश विश्वास
आज कम से कम इस वक्त लिखने का मन मिजाज नहीं है। मौसम इधर रिस रहा है लगातार। मानसून नहीं है और न मूसलाधार लेकिन आसमान रुक रुककर रिस रहा है। अभी धूप तो अभी बरसात। अबकी दफा सावन में बंगाल में शिवभक्तों की तादाद में भारी इजाफा हुआ है। दक्षिणेश्वर विद्यासागर सेतु आखिरी सोमवार को, उससे पहले और बाद में कांवड़ियों के कब्जे में हैं।
शिवभक्तों की यह सारी जमात डायरेक्ट शिव के मत्थ जलाभिषेक कर रही हो, ऐसा भी नहीं। लोकनाथ बाबा से लेकर तारकेश्वर बाबा का प्रबल प्रताप भंग गांजा और अन्यतेर द्रव्यों के जश्नी उफान के साथ पूरे सबब पर रहा है। इसी के मध्य तारकेश्वर में बड़ा हादसा तो टल गया। ट्रेन के ओवरहेड तार टूटने से स्पार्किंग से भगदड़ मची लेकिन मरा सिर्फ एक ही है। कुंभ हादसे जैसी बात नहीं है और न सावन में सुरक्षा इंतजाम पर किसी खामी की कहीं चर्चा हो रही है। खबर भी लेग स्पिन की तरह देर से ब्रेक हुई।
आज कोलकाता जाना हुआ,जो मैं बेहद कम जाता हूं। उमस में बुरा हाल और इसी के मध्य एक जरूरी बैठक में सेक्टर वाइज जनजागरण के फौरी कार्यक्रम पर घंटों चर्चा करके छह बजे तक लौटे तो स्थानीय खबर की नब्ज पकड़ने के लिए बांग्ला चैनल के दरवज्जे खटखटाये तो अचंभित करने वाली खबर कि बंगाल में आईटी में खुदकशी।
जादवपुर विश्वविद्यालय जो बेसू के साथ बंगाल में आईटी शिक्षा का प्राचीनतम संस्था होने के साथ ही भारतीय विश्वविद्यालयों में जिनकी अकादमिक साख अब भी बनी हुई है, में अन्यतम है, के एक आईटी छात्र ने बार-बार कैंपसिंग में बड़ी नौकरी हासिल करने का लक्ष्य न मिलने पर खुदकशी कर ली।
मंगलवार क सुबह जादवपुर कैंपस में कैंपसिंग का हाट लगा था। तमाम बड़ी ब्रांडेड कंपनियां रिक्रूटिंग कर रही थीं। हर कहीं चहल पहल। इससे पहली

रात हाईवे संलग्न पूल साइड पार्टी के जश्न में जैसा हुआ, उसी तरह एक आकस्मिक मौत ने रिक्रूटिंग उत्सव और किसी किसो को मिलती लखटकिया रोजगार का मजा किरकिरा कर दिया। दो घंटे पहले भी एक नामी बहुराष्ठ्रीय संस्था की काउंसिलिंग के पहले राउंड में जो हाजिर रहा, उसकी गैरहाजिरी पर लोग चौंके और पता लगाने हास्टल में जब उसके कुछेक सहपाठी उसके कमरे तक पहुंचे, तब तक देरी हो चुकी थी। उसके कमरे का दरवाजा भीतर से बंद था। दरवाजा बार बार धकियाने पर जवाब नहीं आया तो तोड़ डाला दरवाजा।
भीतर सीलिंग से लटक रही थी आईटी फाइनल ईयर के छात्र मनीश रंजन की युवा स्वप्नभंगी लाश। हालांकि आधिकारिक तौर पर इस आत्महत्या का कारण कैंपसिंग में विफलता होने का खंडन किया जा रहा है लेकिन अधिकारी समूह इसी सफाई बयान के साथ बंगाल और बाकी देश में आईटी में मंदी का मातम भी नत्थी कर रहे हैं।
हमने तो आपको आशा भोंसले जी के उस साक्षात्कार का भी ब्योरा दिया है कि जिसमें उन्होंने कहा है कि आज के बच्चे कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें कंप्यूटर के अलावा कुछ भी नहीं आता।
बरसों पहले अक्षर पर्व में मेरी कविता ई अभिमन्यु प्रकाशित हुई तो आदरणीय ललित सुरजन के अलावा किसी ने नोटिस नहीं लिया। वह कविता अब भी मेरे अंतःस्थल पर दर्ज है कोई चाहें तो चीरकर निकाल लें।
गौरतलब है कि कैंपसिंग सिर्फ चुनिंदा प्रतिष्ठानों में होती है, आईटी सिखाने वाली दुकानों में सर्वत्र नहीं और इन्हीं दुकानों में हाईस्कूल और इंटर पास करने के बाद अब समूची युवा पीढ़ी कतारबद्ध है। मां बाप की गाढ़ी कमाई और कारोबारियों की जमा पूंजी और किसानों की जमीन भी इस हायर फायर के धूमधड़ाके की चकाचौंध में स्वाहा हो रही हैं।
हाल ही में सविता की खास सहेली एक डाक्टरनी आयीं अपने घर और वे बेहद दुःखी कि उनके इकलौते बेटे की कैंपस कैरियर में कोई रुचि नहीं है और उसकी दिलचस्पियां अकादमिक हैं और वह उन जनसरोकारों से दिनरात परेशान रहता है, जिनसे उसके वर्ग का कोई लेना देना नहीं है। मैंने उन्हें भरसक समझाने की कोशिश की कि ऐसे बच्चे पर हमें तो गर्व होना चाहिए और उसके भविष्य को लेकर आश्वस्त भी होना चाहिए कि वह ज्ञान की खोज में लगा है अब भी। उसका ज्ञान उसे तकनीक की मौत से बचायेगा जरूर। ऐसे बच्चे ही बचेंगे और न सिर्फ बचेंगे बल्कि देश दुनिया को बचायेंगे।
मुझे नहीं मालूम कि मैं उन्हें सांत्वना दो रहा था या खुद को सांत्वना दे रहा था।
अब गौर करे तो पायेंगे कि 2008 की महामंदी से काफी पहले से इक्कीसवीं की दस्तक शुरु होते न होते हमारे बच्चों ने नई सदी में आईटी के अलावा कहीं रुख किया ही नहीं है। वैसे ही आईटी सेक्टर पर गहराते संकट के बादल और अकादमिक शिक्षा का सत्यानाश करके पूरी युवा पीढ़ी को तकनीक दक्ष हायर फायर चौबीसों घंटे के श्रम में तब्दील कर देने की नालोज इकानामी के बूमरैंग होने की चर्चा होने की उम्मीद कम है।
चर्चा हो रही है आउटसर्सिंग की लगातार, चर्चा हो रही है निजता के अधिकार के उल्लंघन के साथ बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता निगरानी आधार असंवैधानिक अमानवीय आईटी दुधारु गाय की।
और चर्चा हो रही है
सेज जैसी टैक्स होलीडे कंटीन्यू करने की।
आईटी शिक्षा के विनियंत्रण और विनियमन पर अभी कोई चर्चा नहीं है।
आईटी सेक्टर के गली मोहल्ला लेबल धूमधड़ाके के जरिये रोजगार संकट के बारे में कोई चर्चा फिलहाल होने की संभावना नहीं है। क्योंकि आत्महत्याओं की खबरें अभी बनी ही नहीं हैं।
इसके बजाय आउटसोर्सिंग बंद होने के बावजूद  कैंपस रिक्रूटिंग और कामयाब बच्चों की हैरतअंगेज वेतनमान पर सोसाइटी में मां बाप की ऊंची नाक की चर्चा खूब हो रही है।
विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, अबाध पूंजी, विनिवेश, विनियमन, विनियंत्रण और पीपीपी गुजराती माडल के मुताबिक औद्योगीकरण के नाम पर जो अंधाधुंध सेज महासेज गलियारा स्मार्ट सिटी बुलेट चतुर्भुज का देहात उखाड़ो शहर बसाओ देश बेचो क्विकर पर अभियान है धर्मोन्मादी और कारपोरेट और इसे हासिल करने के लिए नागरिकता बायोमेट्रिक डिजिटल आधार, उसका मूलाधार तकनीकी क्रांति है और तकनीकी क्रांति का एपीसेंटर आईटी है।
और तकनीकी क्रांति का अंतिम मकसद है श्रम कानूनों का सफाया।
और तकनीकी क्रांति का अंतिम मकसद है श्रम का सफाया।
और तकनीकी क्रांति का अंतिम मकसद है आटोमेशन और आटोमेशन और आटोमेशन।
और तकनीकी क्रांति का अंतिम मकसद है छंटनी छंटनी और छंटनी।
इसीसे रोजगार के खात्मे के मध्य, स्वप्नभंगमध्ये मुनाफावसूली बरोबर।
बहरहाल रंगबिरंगे कारपोरेट राज में डालर नत्थी जर्मन मुद्रा नत्थी दूसरे विश्वयुद्द से पहले की मार्कमानक वाली अर्थव्यवस्थाओं की दशा को अभिशप्त भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि उपज या औद्योगिक उत्पादन से न्तथी नहीं, नहीं विकास दर अब तकनीकी क्रांति निर्भर है।
सद्दाम हुसैन की चली नहीं। तेल का कारोबार का माध्यम अब भी डालर है और यूरो की वकालत करने वाला सद्दाम मारा गया, क्योंकि सोवियत तब गोर्बच्योव का था, न लेनिन का और न स्टालिन का। और इंदिरा का अवसान हो चुका था।
कोई जरूरी नहीं कि हर बार सद्दाम मारा जायेगा और हर बार तबाह होता रहेगा मध्यपूर्व। यह तेलयुद्द स्वाहा कर सकता है डालर को भी और तेल की आग में झुलस सकती है डालरनत्थी अर्थव्यवस्था भी।
हम तो बार बार झुलसते रहते हैं और एसिडवर्षा तो हमारी पुरुषतांत्रिक सनातन संस्कृति है ही।
न डालर वर्चस्व शाश्वत है। जर्मन ग्रीक, ब्रिटिश, स्पानी, पुर्तगीज, डैनिश, जापानी, फ्रांसीसी, रोमन साम्राज्यों का इतिहास बताता है कि साम्राज्यवाद का अंत होकर रहता है और साम्राज्यवाद से नत्थी अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली की मौत भी अपरिहार्य है।
आईटी अब अमेरिका डालर से नत्थी मुक्तबाजारी उत्पादन प्रणाली है और नागरिकता भी। इस त्रासदी को समझने की दृष्टि हालांकि दाता ने दी नहीं है। करोड़ों हाथ हैं लेकिन आंखें दो चार भी नहीं।
शिक्षित अशिक्षित या अर्धशिक्षित खास फर्क पड़ता नहीं है।
फर्क है दक्ष और अदक्ष का।
अब आटोमेशन और रोबोटिक्स के चमत्रकारी सर्वव्यापी असर के वास्ते फर्क है अति दक्ष और सुपर डुपर दक्ष के बीच।
अति दक्ष के लिए भी रोजगार नहीं है।
जैसा कि जादवपुर परिघटना का तात्पर्य है।
हाय हाय हाहाकार उस अति दक्ष तबके के स्वप्नभंग को लेकर है।
जो अदक्ष है और जो दक्ष भी हैं, उस आम जमात के थोक बेरोजगार स्टेटस का कोई सीवी कहीं बन नहीं रहा है।
श्रम कानूनों  औक टैक्सों के दायरे से बाहर आुटसोर्सिंग निर्भर आईटी को भारतीय शिक्षा व्यवस्था की सर्वोच्च प्राथमिकता बनाकर हम अपने बच्चों की मौत का सामान ही बनाते रहे हैं, ऐसा मैंने पहले भी लिखा है। हाल ही में लिखा है। किसानों की थोक आत्महत्याएं, अविराम बंद हो रही औद्योगिक उत्पादन मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों, कुटीर उद्योंगों, चाय बागानों और जल जंगल जनजमीन से बेदखल आदिवासी भूगोल में मृत्युजुलूसों की चर्चा अब भी सिलसिलेवार शुरु नहीं हुई है।
सीसैट धूम के मध्य जादवपुर की यह असमय मौत राष्ट्रीय सुर्खी बनेगी, इसके आसार कम हैं।
कल ही फ्रेंडशिप स्विमिंग पूल पार्टी में एक युवती के डूब जाने की खबर दिन भर सुर्खियों में थी जो अब गायब है।
रैव पार्टियों में धरपकड़ की खबरें जितनी तेजी से आती हैं, गायब हो जाती हैं। राजनीति के अलावा अब इस देश में कोई खबर बनती ही नहीं है।
हम कायदे से यह भी नहीं जानते कि कोयंबटुर, भुवनेश्वर, बेंगलुर, पुणे जैसी तेजी से उभर रही सिलिकन सिटीज की नींव में मची हलचल के ताजा हाल क्या हैं।
हम अभिभावक भी नहीं जानते कि जिनकी कामयाबी के लिए हम जान जिगर कुर्बान कर रहे हैं, उनके ख्वाबों के हाल हकीकत की क्या दशा दिशा है।
जादवपुर जैसी खुदकशी कहीं और हुई या नहीं, हम नहीं जानते। बाकी देश भी नहीं जनता। हमें पल पल मरती नदियों, घाटियों, जमीन और जंगल की मौत का अहसास कब होता है? हमें पल पल पिघलते ग्लेशियरों की खबर कब होती है? हमें पल पल सूखते समुंदर में फट रहे ज्वालामुखियों की आंच कब महसूस होती है? हम किरचों में बिखर रहे देश के हरे जख्मों से रिसते खून को कब देख रहे होते हैं।
आप मुझे पढ़ते हों तो याद होगा कि मैंने कुछ समय पहले चर्चा की थी कि अब अगला मृत्यु जुलूस आईटी से निकलेगा।
जादवपुर की अकेली घटना के आधार पर हम फिलहाल कह नहीं सकते कि वह जुलूस निकलने ही लगा है।
लेकिन पत्रकार हूं। सबसे पहले बुरी खबरें देखने की जन्मजात आदत है और दशकों से हम अच्छी खबरों के मोहताज हैं। हालांकि मीडिया के फील गुड और विकास कामसूत्र मय में दिलोदिमाग पर पहले की तरह बुरी से बुरी खबर का कोई असर होता नहीं है।
आपदाएं निरंतर हैं।
विपदाएं अनंत।
दुर्घटनाएं पल पल।
गृहयुद्ध हर कहीं।
सुर्खियों में हत्या और बलात्कार मूसलाधार।
घोटालों का पर्दापाश रोज रोज।
विश्वव्यापी रक्तपात रोज रोज।
टैब का अनंतजीबी मैमोरी कैसे हो मानव मस्तिष्क का सवाल यह भी।
मनुष्य अब वायरस जैसे हैं, जिन पर कोई औषधि, प्रतिषेधक या प्रतिरोधक काम नहीं करते।
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

Loading...