उत्तर प्रदेश दलितों (अनुसूचित-जाति) पर अपराध के मामले में पूरे देश में काफी समय से आगे रहा है। इस सम्बन्ध में एक यह तर्क दिया जाता रहा है कि उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी (4 करोड़ 13 लाख) दूसरे सभी राज्यों से अधिक है। अतः अपराध के आंकड़े भी अधिक ही रहते हैं। इस तर्क में कुछ सचाई है परन्तु हाल में राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा वर्ष 2014 के लिए दलितों के विरुद्ध हुए अपराध सम्बन्धी जारी किये गए आंकड़े दर्शाते हैं कि उत्तर प्रदेश में दलितों के विरुद्ध अपराध बहुत अधिक है खास करके संगीन अपराध में जैसा कि निम्नलिखित विश्लेषण से स्पष्ट है :-
कुल अपराध और अपराध का दर :- वर्ष 2014 में उत्तर प्रदेश में दलितों के विरुद्ध 8075 अपराध हुए थे जो कि देश में दलितों के विरुद्ध कुल घटित अपराध (47064) का 17.2% और कुल संज्ञेय अपराध का 19.5% रहा है।
हत्या : उपरोक्त अवधि में उत्तर प्रदेश में दलितों की 245 हत्याएं हुयी थीं जो कि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों के विरुद्ध घटित कुल अपराध (744) का 33% था।
अपहरण : उक्त अवधि में उत्तर प्रदेश में अपहरण के 383 मामले हुए जो कि इस अवधि में पूरे देश में दलितों के विरुद्ध घटित कुल घटित अपराध (758) का 51% था।
दलित महिलाओं का अपहरण : उक्त अवधि में उत्तर प्रदेश में दलित महिलायों को विवाह के लिए विवश करने के इरादे से 270 अपहरण हुए थे जो कि राष्ट्रीय स्तर दलितों के विरुद्ध घटित इन मामलों की संख्या (427) का 63% था।
बलात्कार : वर्ष 2014 के दौरान उत्तर प्रदेश में दलित महिलाओं पर बलात्कार के 459 मामले हुए, जो कि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों के विरुद्ध घटित कुल अपराध (225) का 20% था। इस से स्पष्ट है कि दलित महिलाओं पर बलात्कार के मामले काफी अधिक हैं।
बलात्कार का प्रयास :
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि वर्ष 2014 में उत्तर प्रदेश में दलितों के विरुद्ध घटित अपराध ख़ास करके हत्या और महिलयों के विरुद्ध गंभीर अपराध की स्थिति बहुत खराब है, क्योंकि इस की दर राष्ट्रीय स्तर पर घटित अपराध से बहुत ज्यादा है।
दलितों पर अपराध के उपरोक्त आंकड़े वह हैं, जो पुलिस द्वारा लिखे गए हैं, परन्तु यह यथार्थ से परे हैं। वास्तविकता यह है पुलिस में जो अपराध लिखे जाते हैं वे कुल घटित अपराध का थोडा हिस्सा ही होते हैं क्योंकि यह सर्वविदित है कि दलित तथा अन्य कमज़ोर वर्गों पर घटित होने वाले अधिकतर अपराध तो दर्ज ही नहीं किये जाते। इस का एक मुख्य कारण है पुलिस अधिकारियों की जातिवादी मानसिकता और दूसरा है अपराध के आंकड़ों को कम करके दिखाना।
इस का एक अच्छा उदहारण यह है कि 2014 में दलितों के जो मामले ऊपर दिखाए गए हैं, उन में 1500 मामले धारा 156(3) दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अदालत के आदेश से दर्ज किये गए थे, क्योंकि इन को पुलिस ने थाने पर दर्ज करने से मना कर दिया था। बहुत से मामले ऐसे होते हैं, जिन में लोग विभिन्न कारणों से थाने पर लिखाने ही नहीं जाते हैं। इस प्रकार सरकारी आंकड़े दलितों के विरुद्ध कुल घटित अपराध को नहीं दिखाते हैं।
उपरोक्त समीक्षा से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश जहाँ पर दलितों की सब से बड़ी आबादी है, में दलितों पर होने वाले उत्पीड़न के अपराध खास करके संगीन अपराध सब से अधिक हैं, जो कि चिंता का विषय है। एक तो वैसे ही समाजवादी सरकार का अब तक का रवैय्या दलित
विरोधी ही रहा है। इस का सब से बड़ा उदहारण यह है कि थानों पर थानाध्यक्षों की नियुक्ति में 21% का आरक्षण होने के बावजूद भी थानों पर उन की बहुत कम नियुक्ति की गयी है, जिस का सीधा प्रभाव दलितों सम्बन्धी अपराध के पंजीकरण पर पड़ता है।
हाल में श्री पी.एल.पूनिया, अध्यक्ष, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग द्वारा की गयी समीक्षा से पाया गया है प्रदेश में दलित उत्पीड़न को रोकने के लिए मुख्य मंत्री तथा जिला स्तर पर निर्धारित अवधि में की जाने वाली समीक्षा बैठक बिलकुल नहीं की जा रही है, जिस कारण दलितों पर होने वाले अपराधों की रोकथाम तथा उनकी अदालतों में की जाने पैरवी की कार्रवाही समुचित ढंग से नहीं की जा रही है। यह बात निश्चित है कि यदि दलितों के प्रति समाजवादी सरकार का यही रवैय्या रहा, तो उन को इस का खामियाजा अगले चुनाव में ज़रूर भुगतना पड़ेगा।
– एस. आर. दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.) तथा राष्ट्रीय प्रवक्ता, आइपीएफ
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