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नवाज को यह साबित करना होगा कि पठानकोट आखिरी हमला है और मोदी को यह सुनिश्चित करना होगा 7 जवानों की मौत आखिरी कुर्बानी।

कारगिल की याद दिला देता है पठानकोट आतंकी हमला
मोदी और नवाज की मुलाकात को जादुई छड़ी समझना भूल होगी। एक अचानक की मुलाकात से सब कुछ तुरंत बदलने की उम्मीद बेमानी है।
महेंद्र मिश्रा
पठानकोट आतंकी हमला कारगिल की याद दिला देता है। वाजेपयी जी लाहौर यात्रा से लौटे। आतंकी उनके पीछे-पीछे आ गए। अब मोदी जी नवाज शरीफ से मिलकर आएं हैं और पठानकोट हो गया। कुछ लोग इसे रिटर्न गिफ्ट बता रहे हैं। हालांकि वहां तब भी नवाज शरीफ की सरकार थी और आज भी है। यहां एनडीए की थी आज भी है। बावजूद इसके दोनों में काफी अंतर है। समय और माहौल का अंतर है। सरकार और परिस्थितियों का अंतर है। जनता में आयी सोच का अंतर है। क्योंकि इस बीच सतलज और रावी में बहुत पानी बह गया है। पाकिस्तान एक ऐसे दौर में पहुंच गया है। जहां यह बात साबित हो चुकी है कि आतकंवाद उसका भस्मासुर है। आए दिन होने वाली आतंकी घटनाओं में सैकड़ों मौतें इसी की निशानदेही हैं। पेशावर की घटना आतंकवाद के समर्थन पर आखिरी ताला साबित हुई है। ऐसे में सरकार हो या कि सेना किसी के लिए उसे खुल कर शह देना मुश्किल हो जाएगा।
इस घटना को आतंकवादियों की हताशा भरी कोशिश या फिर पाकिस्तान की अंदरूनी समस्या को आखिरी बार भारत की ओर मोड़ने के हिस्से के तौर पर देखा जा सकता है। लेकिन एक बात तय है कि जनमत के खिलाफ जाकर यह बहुत दूर तक नहीं चल सकता है। क्योंकि बड़े से बड़े तानाशाह के लिए भी जनमत की अनदेखी करना मुश्किल होता है। अनायास ही नहीं घटना के तुरंत बाद पाक सरकार ने घटना की जमकर मजम्मत की।
इस

मामले में सवाल दोनों देशों के रिश्तों को बढ़ाने की प्रक्रिया को लेकर है। क्या पाकिस्तान को लेकर भारत सरकार की कोई नीति है? अगर कोई है तो उसका क्या खाका है? और उसको बढ़ाने के लिए किस तरह की प्रक्रिया ली जा रही है? इतनी बड़ी समस्या को इतने हल्के तरीके से हल करने की कोशिश कई सवाल खड़े कर देती है। मोदी और नवाज की मुलाकात को जादुई छड़ी समझना भूल होगी। एक अचानक की मुलाकात से सब कुछ तुरंत बदलने की उम्मीद बेमानी है। एक पूरा देश है उसकी करोड़ों करोड़ जनता है। पूरा एक तंत्र है। आपके विदेश मंत्री तक को आप की यात्रा की जानकारी नहीं होती। नवाज को भी क्रिसमस की छुट्टी पर गए अपने सुरक्षा सलाहकार को बुलाना पड़ता है। क्या ऐसी किसी एक आसमानी पहल से सब कुछ हासिल हो जाएगा? किसी समस्या को हल करने में जब पूरा एक तंत्र जुटता है तो उसके साथ ही दोनों तरफ एक माहौल भी बनना शुरू हो जाता है। इस प्रक्रिया में शासन तंत्र से लेकर पूरी व्यवस्था मिलकर जब आगे बढ़ती है तो साथ-साथ वह जनता की जेहनियत भी तैयार कर रही होती है। ऐसे दौर में जबकि जनता आतंकवाद के खिलाफ हो और सरकार की भी यह जरूरत हो तब इस काम को करना आसान हो जाता है। इस कड़ी में अगर शासन तंत्र का कोई हिस्सा अपने निहित स्वार्थ में आतंकवाद का समर्थन कर रहा हो तो उसको चिन्हित करना और फिर उसे अलग-थलग करना आसान हो जाता है। और अगर आतंकवाद का खात्मा दोनों देशों की जनता और सरकारों की जरूरत बन गया है तो उसको किसी तीसरे के लिए बचा पाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए इस घटना को भी अचानक हुई मुलाकात की प्रतिक्रिया के तौर पर भी देखा जा सकता है।
मोदी जी और बीजेपी समर्थकों के लिए यह घटना भी एक सबक है। सरकार के बाहर रहते एक के बदले दस सिर लाने की लफ्फाजी आसान है। लेकिन यह काम कितना कठिन है उसका अहसास अब हो रहा है। हां इस घटना का कोई गलत निष्कर्ष निकालना बहुत घातक साबित हो सकता है। युद्ध किसी समस्या का हल नहीं हो सकता है। अगर सचमुच में सरकार की मंशा शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की है तो दुश्मन शक्तियों द्वारा इसे रास्ते में रोड़ा अटकाने की कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए। शांति की नई पहल पर जितना असर पड़ेगा आतंकवादियों की उतनी ही जीत होगी। नवाज को यह साबित करना होगा कि पठानकोट आखिरी हमला है और मोदी को यह सुनिश्चित करना होगा 7 जवानों की मौत आखिरी कुर्बानी।
महेंद्र मिश्रा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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