जेएनयू की जीत में बापसा की भूमिका पर भी गौर करें!
बहुजनों के इसी वर्गीय ध्रुवीकरण से वामपक्ष को मिलेगी फासिज्म के खिलाफ लड़ने की जमीन!
पलाश विश्वास
दोस्तों, जेएनयू सारा भारतवर्ष नहीं है। जेएनयू सलवा जुड़ुम के शिकंजे में छटफटाता आदिवासी भूगोल या मुक्तबाजार में रोजमर्रे की जिंदगी में नर्क जी रहे भूख का भूगोल, या सैन्य तंत्र में तब्दील राष्ट्र के निरंकुश फासिज्म के राजकाज में गोलियों से छलनी कश्मीर या इरोम शर्मिला का मणिपुर या रेडियोएक्टिव बना दिये गये समुद्रतट या सिंगुर प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के मुताबिक जबरन बेदखल किसानों का जंल जंगल जमीन या मोहनतकशों के कटे हुए हाथ पांव, कर्मचारियों की छंटनी का महादेश या युवाओं के सपनों, या कब्रिस्तान में तब्दील चाय बागान या अरण्य या जख्मी हिमालय जैसा कुछ नहीं है और न वह औपनिवेशिक सामंती युद्धस्थल में तब्दील जमीदारियों और रियासतों का जमावड़ा यह समूचा उपमहादेश है और न यह अनार्य हड़प्पा मोहनजोदाड़ो की सिंधु सभ्यता है, न रेशम पथ है और ने फिनलैंड डेनमार्क नार्वे तक विस्तृत द्रविड़ राष्ट्रीयता का बचा खुचा तमिलनाडु है।
जेएनयू में एकजुट वाम पक्ष की जीत में हम फासिज्म की हार देख रहे हैं या फिर संस्थागत ब्राह्मणधर्म का अवसान समझ रहे हैं, जेएनयू का महिमा मंडन कर रहे हैं तो समझ लीजिये कि आने वाले वक्त सत्तावर्ग की विचारधारा और उसके अश्वमेधी नरसंहारी राजधर्म के अश्वमेधी अभियान के खिलाफ निःशस्त्र हम सभी अकेले द्वीपों में अपने अपने चक्रव्यूह में कैद अनिवार्य आत्मध्वंस से बेखबर लोग हैं, जिन्हें सामाजिक यथार्थ के समूचे परिदृश्य के बारे में कुछ भी अता पता नहीं है।
हम जेएनयू को तथागत गौतम बुद्ध का बोधगया समझने की खुशफहमी में है।
जेएनयू में जीते तो उसी भारत की राजधानी में दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदुत्व का केसरिया झंडा लालकिले के वारिसान की जीत का जश्न है और कश्मीर में
बधाई और खुशी के बाद JNUSU-2016 चुनाव के नतीजों पर अब कुछ विवेचनात्मक बातें।
1-चुनाव के नतीजे सांप्रदायिक-निरंकुशता की अवाम-विरोधी राजनीति और सोच को सिरे से खारिज करते हैं।
2- BAPSA का शानदार उभार वामपंथियों के लिये एक बार फिर चेतावनी है कि अतीत की जिद्द और अपना पारंपरिक कठमुल्लापन नहीं छोड़ा तो वामपंथ का JNU और उससे प्रभावित अन्य परिसरों में भी वही हश्र होगा, जो यूपी-बिहार और हाल के दिनों में बंगाल में होता हमने देखा है।
इसलिये भारतीय वामपंथ को अगर राष्ट्रीय स्तर पर फिर से शक्तिसंपन्न और प्रासंगिक बनना है तो उसे वास्तविक अर्थ में समावेशी(Inclusive) बनना होगा। सिर्फ Tokenism से काम नहीं चलेगा।
इससे कड़े शब्द में यादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र छंदाक चटर्जी ने लिखा है, ब्राह्मणों के गठबंधन के खिलाफ ब्राह्मणों के ही गठबंधन की जीत से जो बदलाव की चर्चा है, वह बेबुनियाद है।
छंदाक ने मरीचझांपी में दलित शरणार्थियों के नरसंहार से लेकर मुसलमानों को वोट बैंक बना देने की छद्म धर्मनिरपेक्षता, नेतृत्व में तमाम गैरब्राह्मण तबकों के साथ महिलाओं की अनदेखी से लेकर वामपक्ष की सत्ता में भागेदारी की सौदेबाज, मौकापरस्ती की निर्मम आलोचना की है।
हमें बापसा के उत्थान से क्यों सरदर्द होने लगा है, इसकी आत्मालोचना करनी होगी।
जेएनयू में खास बात यह है कि बाकी विश्वविद्यालयों की तुलना में वहां छात्राओं का प्रतिशत सबसे ज्यादा है और जेएनयू की जनपक्षधर भूमिका में इन छात्राओं की निर्णायक भूमिका है। इस बार भी महासचिव चुनी गयी शतरूपा, शेहला रशीद की निरंतरता है।
गौरतलब है कि असम के करीम गंज से हैं शतरूपा और वही असम अब गुजरात की नरसंहारी प्रयोग शाला में तब्दील है, जहां विश्वविद्यालयों के केसरियाकरण के लिए नया फतवा जारी किया है संस्थागत ब्रह्मणधर्म और अल्फा की सरकार ने।
शतरूपा असम के इस बदलाव के खिलाफ मणिपुर की इरोम शर्मिला की तरह लौहमानवी बन सकती है या नहीं, दारोमदार इसी पर है तो यकीनन कहना होगा कि बाप्सा के अंतर्गत राहुल और दूसरे बहुजन छात्रों की अगुवाई में बाकी देश की बहुसंख्य जनता की बहुजन अस्मिताओं से जुड़े छात्रों और छात्राओं के संगठन से जेएनयू में संस्थागत फासिज्म को यह कड़ी शिकस्त मिली है।
गौरतलब है कि रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद हैदराबाद, नई दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, गलूर से लेकर खड़गपुर, वर्धा और विश्वभारती तक मनुस्मृति दहन के आदार पर ब्राह्मण धर्म के पुनरूत्थान के खिलाफ देश भर में मनुस्मृति राज के खिलाफ जेएनयू की यह जीत है और इस जीत में मरे हुए रोहित वेमुला का चेहरा अभी जिंदा है और उसी चेहरे की कोख से निकला है बास्पा।
बापसा का विरोध वाम पक्ष की सामाजिक क्रांति के लक्ष्य को अंजाम देने के छात्र आंदोलन के खिलाफ आत्मदाह है आरक्षणविरोधी आंदोलन की तर्ज पर और यह ब्राह्मण धर्म की सहज सरल सनातन वैदिकी रघुकुल रीति है, जिससे भारतीय वामपक्ष का नाभिनाल का जनमजात संबंध है और इसलिए जब वे बाबा साहेब, फूले, हरिचांद गुरुचांद ठाकुर बशेश्वर और सिख गुरुओं, तथागत गौतम बुद्ध और महावीर को अपना नहीं सके तो रोहित वेमुला की तस्वीर लेकर चलना उनका दलित आंदोलन हरगिज हो ही नहीं सकता और ने वे बहुजनों का भला चाहते हैं। मनुस्मृति दहन भी सत्ता में भागेदारी के लिए वैदिकी रस्म अदायगी है।
इसी सिलसिले में वे अपने डीएनए के हिसाब से बापसा का विरोध कर रहे हैं, बहुजनों का फासिज्म के खिलाफ लामबंद वर्गीय ध्रुवीकरण को नजरअंदाज कर रहे हैं तो नेतृत्व में एकाधिकार को भी वे तोड़ने के मूड में अब भी नहीं है। स्त्री भी अभी उनके लिए वही शूद्र और दासी है और वे माता सावित्रीबाई फूले या रानी रासमणि का नाम भी नहीं लेते और न रानी दुर्गावती को याद करते हैं।
वृंदा कारत और सुभाषिणी उनके लिए चेहरे हैं जैसे सेहला और शतरूपा, जिन्हें नेतृत्व सौंपने में पोलित ब्यूरो को पेट में दर्द हो जाता है तो बहुजनों को वे कैसे सहन कर सकते हैं और बापसा का यह विरोध इसी सिलसिले में है।
वामपक्ष के मुकबले में बापसा के मंच पर संस्थागत फासिज्म के ब्राह्मण धर्म के खिलाफ ध्रुवीकरण ने जेएनयू में विद्यार्थी परिषद का वजूद मिटा दिया है क्यों जेएनयू के छात्र छात्राओं ने वोट डाले हैं या तो वामपक्ष को या फिर बापसा को।
पहले इस हकीकत को मंजूर कीजिये और फिर सामाजिक क्रांति का नाम लीजिये।
पहले ब्राह्मण धर्म के बजाय तथागत गौतम बुद्ध और शहीदे आजम भगत सिंह की तरह आस्था का यह तिलिस्म तोड़िये और सतह से उठकर खड़ी होती इंसानियत को नीला सलाम कहिये तभी जबाव में लाल सलाम सुनने को मिलेगा।
गौरतलब है कि देश के केसरियाकरण के खिलाफ बहुजन समाज का उत्थान उसी तरह खतरे की घंटी है जैसे ढाई हजार साल पहले सत्ता वर्ग के खिलाफ तथागत गौतम बुद्ध गैर ब्राह्मणों के खिलाफ वर्गीय ध3वीकरण करके सामाजिक क्रांति कर दी थी।
लाल नील एकाकार करने की किसी पहल के बिना यह सकारात्मक बदलाव का मोका फिर हम खोने लगे हैं
और अस्मिता राजनीति की निंदा करते हुए हम फिर अपनी-अपनी अस्मिता में कैद भगवान श्रीकृष्ण के धनुर्धर बनने का मंसूबा बना रहे हैं।
वामपक्ष का लक्ष्य अगर राजनीतिक सत्ता नहीं है और सामाजिक क्रांति सिर्फ नारा नहीं है तो बापसा के उत्थान पर बहुजन छात्रों को कोसने के बजाय उन्हें साथ लेकर चलने की तैयारी करनी चाहिए वामपक्ष को क्योंकि बाकी देश हैदराबाद या यादवपुर विश्वविद्यालय तक भी सीमाबद्ध नहीं है और अस्मिताओं में बंटी बहुसंख्य आम जनता इस नरसंहार संस्कृति के संस्थागत की फासिज्म की वानर सेना है।
बापसा अगर संस्थागत ब्राह्मण धर्म का केसरियाकरण अश्वमेध रोककर ब्राह्मणी सत्ता वर्ग के खिलाफ वर्गीय ध्रुवीकरण में कामयाब होता है, मसलन बंगाल के बहुजन अगर एकताबद्ध होकर दक्षिण पंथ के खिलाफ लामबंद होते हैं तो भारतीय राजनीति में हाशिये पर खड़े वामपक्ष की फिर वापसी की उम्मीद है।
गौरतलब है कि रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के खिलाफ बंगाल में भी बहुजन आंदोलन तेज है
और शरदिंदु उद्दीपन ने कल कोलकाता में हुए दलित सालिडेरिटी नेटवर्क की सिलसिलेवार रपट भेजी है, जिसे हम अलग से जारी कर रहे हैं।
जेएनयू के दायरे में या केरल और त्रिपुरा की डगमगाती सता में सीमाबद्ध निराधार हुए वामपक्ष को अब बहुजनों के साथ खड़े होने पर, उनके वर्गीय ध्रुवीकरण से ही दक्षिणपंथी मुक्तबाजारी नरसंहारी संस्थागत फासिज्म के मुकाबले लड़ाई की जमीन वापस मिल सकती है, हमारे जनपक्षधर मित्र इन रपटों को गौर से देखें और बाकी देश और दुनिया में कयामती फिजां, कश्मीर में लापता ईद के सिलसिले में जेएनयू की जीत को निर्णायक समझनेकी गलती कतई न करें तो बहुत बेहतर।
इसलिए सामाजिक क्रांति को नारे की शक्ल देकर सत्ता हासिल करने की विचारधारा में तब्दील करने के बजाये संस्थागत फासिज्म के खिलाफ बहुजनों के वर्गीय ध्रुवीकरण के बदलते हुए यथार्थ को समझने की कोशिश जरूर करें। इसी सिलसिले में बापसा का उत्थान को अपने पक्ष में बदलती हवा माने लें, तो लड़ाई अभी बाकी है।