दलित-पिछड़े बौद्धिकों का ब्राह्मणवाद
महेंद्र मिश्र
गुजरात दलित आंदोलन के नेता जिग्नेश मेवाणी आजकल दिल्ली आए हुए हैं। कल प्रेस क्लब में एक पत्रकार सम्मेलन एवं सभा में उन्होंने विस्तार से अपने आंदोलन की रूपरेखा पेश की।
इस कड़ी में उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि उनका दलित आंदोलन किसी संकुचित सोच का शिकार नहीं है। और इसमें उन सभी के लिए दरवाजे खुले हैं जो उसे मदद करना चाहते हैं या फिर उसे आगे बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन इसके साथ ही दलित आंदोलन में एक बहस खड़ी हो गई है।
चंद दलित-पिछड़े बौद्धिकों का कहना है कि प्रगतिशील सवर्णों को दलित आंदोलन में नहीं जाना चाहिए। उन्हें अपने समुदाय के लोगों के बीच काम करना चाहिए। जिससे उनके दिमाग को बदला जा सके।
देखने और सुनने तो में यह बात बिल्कुल अच्छी लगती है। लेकिन यह कितनी भोलेपन में कही जा रही है और इसके पीछे क्या शातिराना चाल है। इसके बारे में कुछ कह पाना संभव नहीं है।
लेकिन यह बात जरूर कही जा सकती है कि इसमें या तो ब्राह्मणवादी सत्ता की समझ सीमित है। या फिर उसके खात्मे को लेकर एक तरह की नासमझी है । या फिर उसे दूसरे रूप में बनाए रखने की कोई जानी-अनजानी सोच भी है।
ब्राह्मणवाद एक ऐसी सत्ता है जिसका फल सिर्फ ब्राह्मण ही नहीं चख रहे हैं। बल्कि दूसरी सवर्ण जातियों के साथ पिछड़ी और अन्य जाति के लोग भी अपने सीमित दायरे में ही सही इसका लाभ उठा रहे हैं। यहां तक कि इस जाति व्यवस्था के सबसे पीड़ित तबके दलित में भी एक हिस्सा दूसरे हिस्से के ऊपर होने का गर्व महसूस करता है।
ब्राह्मणवाद आज भी अपने पूरे वजूद और पहचान के साथ जिंदा है।
यानी समय के साथ अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है।
हजारों साल से जारी जातीय संरचना व्यवस्था और सत्ता तंत्र का हिस्सा बन गई है। लिहाजा अगर कोई सुधार
अगर सच में कोई इसे खत्म करना चाहता है तो उसे व्यवस्था परिवर्तन की किसी लड़ाई का हिस्सा बनना होगा।
ब्राह्मणों के बीच काम कर उनकी जेहनियत बदलने की कोशिश कुछ उसी तरह की चाहत है जैसे किसी राजा से उसकी गद्दी छुड़वाकर उसे अपने ही राज्य का एक सामान्य नागरिक बनवाने की बात हो। और यह काम ऊपर शासक से लेकर उसके क्षत्रपों और निचली रिसायतों तक जुड़ा हुआ है।
क्या यह चीज इतनी आसान है?
अपवाद स्वरूप या संयोग वश अगर किसी शासक का जेहन बदल जाए तो वह अपनी गद्दी छोड़ भी सकता है। लेकिन शासकों के बड़े हिस्से के अपने मन और अपनी इच्छा से विशेषाधिकार छोड़ने की बात एक कल्पना ही हो सकती है।
इतिहास में चंद एक अपवाद ऐसे होंगे जिसमें कोई राजा अपनी इच्छा से गद्दी छोड़ा होगा। वरना सिंहासन के लिए बाप-बेटे और पति-पत्नी के बीच लड़ाइयां और कत्ल के सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं।
इसी तरह से ब्राह्मणवाद के तहत जो तबके उस विशेषाधिकार को हासिल किए हुए हैं। उनमें सुधार के जरिये बदलाव कर पाना बहुत मुश्किल है। जब तक कि उसकी जड़ पर चोट नहीं किया जाए। यानी इसको खाद पानी देने वाले अर्थतंत्र से लेकर सामाजिक व्यवस्था के बीच की सत्ता संरचना पर चोट।
और फिर इसके जरिये उसका खात्मा वक्त की जरूरत बन जायेगा।
यानी ब्राह्मणवाद की जान आर्थिक-सामाजिक तंत्र के जिस तोते में है। जरूरत उसके खात्मे की है। क्योंकि दोनों के बीच नाभि-नाल का रिश्ता है। जिसे सिर्फ और सिर्फ व्यवस्था परिवर्तन के जरिये ही खत्म किया जा सकता है।
इस मामले में ब्राह्मणवाद बहुत शातिर है।
उसने पूरी सत्ता सिर्फ ब्राह्मणों में केंद्रित नहीं रखी। बल्कि दूसरी जाति के लोगों को अपने से नीचे की जाति पर श्रेष्ठता का अधिकार देकर उसे स्थायी बना दिया। इसलिए कोई दूसरी जातीय व्यवस्था ब्राह्मणवाद का अंत नहीं है बल्कि पूरी जातीय व्यवस्था का खात्मा ही इसके अंत की पहली शर्त है।
ब्राह्मणवाद और कुछ नहीं बल्कि जातीय श्रेणियों में विभाजन और अपने-अपने दायरे में उसका श्रेष्ठता बोध है।
और अगर कोई भी अपनी जाति पर गर्व करता है। या फिर उसकी श्रेष्ठता साबित करने के लिए इतिहास में इस या उस शासक के उससे जुड़े होने का उदाहरण देता है तो वह भी ब्राह्मणवाद ही है।
अगर आज सवर्णों को दलित आंदोलन से अलग रहने की बात की जा रही है तो यही तर्क पिछड़ों पर भी लागू होता है। और फिर दलितों का सबसे निचला हिस्सा भी अपने ऊपर की जाति से आशंकित होगा। फिर तो कोई भी किसी दूसरे आंदोलन का हिस्सा नहीं बन सकता।
और इस पूरी प्रक्रिया में इस बात का सबसे बड़ा खतरा है कि मजबूत और संख्या बल में ज्यादा जातियां अपने पूरे वजूद और पहचान के साथ जिंदा रहना चाहेंगी। क्योंकि सत्ता में भागीदारी से लेकर हर विशेषाधिकार के मौके पर उनके नेताओं को सबसे ज्यादा फायदा होता दिखेगा।
लिहाजा नेता अपने समुदाय से भी ज्यादा उसे बनाए रखने पर जोर देगा।
यह एक नये किस्म का ब्राह्मणवाद है। जिसे नव ब्राह्मणवाद कहा जा सकता है।
जातीय व्यवस्था के खात्मे में रोटी-बेटी के रिश्ते की एक बड़ी भूमिका मानी जाती है। ऐसे में अगर सभी जातियों को आपस में मिलने से रोक दिया गया और उनके बीच कोई संपर्क और संबंध नहीं बना। तो इसका मतलब है उनके अस्तित्व को वर्तमान रूप में ही बनाए रखना।
और इस कड़ी में आप चाहे-अनचाहे संघ की उसी कोशिश को मदद पहुंचाते दिखते हैं जिसमें वह पूरी जाति व्यवस्था को अपने मूल स्वरूप में बनाए रखना चाहता है। क्योंकि आंदोलन वह मौका होता है जो तमाम सड़ी-गली चीजों और कूड़ा-करकट को किनारे कर एक नये समाज के निर्माण का रास्ता साफ करता है।
और यह नया समाज किसी द्वीप में नहीं बल्कि उसी आंदोलन के दौरान उसी समाज में बन रहा होता है।
ऐसे में अगर जातियों को खत्म करने की बात हो रही है तो वह सबके मुश्तरका प्रयास से ही होगा। और उसमें इस व्यवस्था को बनाए रखने के पैरोकार एक तरफ होंगे और उनको बदलने वाले दूसरी तरफ।
इसमें एक किस्म का वर्गीय ध्रुवीकरण भी होगा। सभी जातियों के उच्च तबके एक तरफ होंगे जबकि शोषित, पीड़ित, दमित और आर्थिक तौर पर कमजोर तबके दूसरी तरफ। दरअसल इस व्यवस्था की सीमाएं हैं।
इस व्यवस्था के सत्ता तंत्र में देश के 20 फीसदी लोगों को ही जगह मिल सकती है। ऐसे में पूरे दलित समुदाय के भर की भी जगह सत्ता तंत्र में नहीं है। लिहाजा सिर के बल खड़ी इस व्यवस्था को सीधा करने के जरिए ही समस्या को हल किया जा सकता है ।
कम से कम ऐसे दलितवादियों से जरूर सावधान रहने की जरूरत है। जो दलित आंदोलन में किसी सवर्ण की हिस्सेदारी से तो परहेज करते हैं। लेकिन ब्राह्मणवाद के पोषक संघ और उसकी सबसे मजबूत पार्टी बीजेपी की सेवा में लगे दलित नेताओं की आलोचना तक नहीं करते।
यहां तक कि मौका पड़ने पर संघ और बीजेपी से कोई निजी लाभ हासिल करना भी उनके लिए गुनाह की श्रेणी में नहीं आता।
ऐसे अवसरवादी जिन्हें सत्ता का लाभ लेने के लिए ब्राह्मणवाद के साथ समझौते से भी परहेज नहीं लेकिन साथ ही वो दलित आंदोलन के हितैषी और अगुवा भी बने रहना चाहते हैं। उनके बारे में किसी को कुछ कहने की जरूरत नहीं है।
इस मामले में भी हम लोगों के सामने बाबा साहेब अंबेडकर सबसे बड़े उदाहरण हैं। उनकी दूसरी पत्नी ब्राह्मण थीं। फिर तो इन बौद्धिकों के तर्कों के हिसाब से ब्राह्मणवादियों ने बाबा साहेब के घर में ही अपना ‘दलाल’ बैठा दिया था। जिसके पास उनके ऊपर दिन-रात अपना असर डालने का मौका था।
लेकिन मुझे कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जिसमें उन्होंने बाबा साहेब के आंदोलन को किसी नकारात्मक तरीके से प्रभावित किया हो। बल्कि पत्नी के तौर पर वह बाबा साहेब के हर आंदोलन में कंधे से कंधा मिलाकर चलीं।
मौजूदा समय में दलित आंदोलन से पैदा नेता और बुद्धिजीवी सत्ता के सामने अपने सारे सिद्धांत और आंदोलन की आहुति देने के लिए तैयार हैं।
ब्राह्मणवाद के खिलाफ आज उनकी जुबान तक नहीं खुल रही है।
लेकिन उन्हें इस मामले में भी बाबा साहेब से सीखना चाहिए जिन्होंने सत्ता में रहते हुए अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। हिंदू कोड बिल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। कैबिनेट से पारित होने के बाद भी सदन से पास नहीं होने पर उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था।
बौद्धिकों के इस तर्क के हिसाब से तो अब्राहम लिंकन की दास प्रथा के अंत में कोई भूमिका ही नहीं बनती थी।
गोरा होने के नाते उन्हें अपने सुसुर समेत दासों के दूसरे मालिकों के सुधार के लिए काम करना चाहिए था। बजाय दास प्रथा के खात्मे के लिए राजनीतिक अभियान चलाने के। जिसके चलते अमेरिका में काले लोगों को स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार हासिल हुआ।
बौद्धिकों के इस तबके की कलई तब खुल जाती है। जब वो जिग्नेश मेवाणी के जमीन मालिकाने की मांग को खारिज करता है।
और पूरे आंदोलन को एक पहचान के आंदोलन तक सीमित कर देना चाहता है। जिसमें आंदोलन की परिणति कुछ दलितों के नौकरशाही और सत्ता में राजनीतिक हिस्सेदारी के तौर पर सामने आती है। लेकिन दलित समाज के हाशिये पर खड़े शख्स के लिए उनके पास क्या है? उसका कोई जवाब नहीं है। और पूछे जाने पर उनकी तरफ से शहरी पलायन और रोजगार के दूसरे साधनों की तलाश की सलाह दी जाती है। जो पूरी तरह से अव्यवहारिक और काल्पनिक है।
जबकि जमीन न केवल उसके आय का साधन है। बल्कि वह उसके अस्तित्व, सम्मान और इस कड़ी में सशक्तीकरण की पहली सीढ़ी है।
हां मैं इस बात से पूरा इत्तफाक रखता हूं कि दलित आंदोलन की अगुवाई दलित ही करेगा। और एक स्तर तक उसकी स्वतंत्रता किसी भी तरीके से बाधित नहीं होनी चाहिए। और दूसरे तबकों और लोगों को इसमें मददगार और सहयोगी की भूमिका निभानी होगी।
लेकिन इसका दूसरे आंदोलनों और तबकों से छुआछूत जैसा व्यवहार खुद उसके लिए भी घातक होगा। क्योंकि इस व्यवस्था के भीतर कोई भी दलित अपने को मुक्त नहीं कर सकता है। इसके लिए व्यवस्था के पार जाना होगा। जो इस व्यवस्था के ध्वंस पर खड़ी होगी।
लिहाजा जातिवाद से अगर छुटकारा पाना है तो व्यवस्था परिवर्तन उसका आखिरी लक्ष्य होगा।
और दूसरे तबकों और हिस्सों को साथ लाए बगैर यह संभव ही नहीं है। दलित आंदोलन से दूसरे तबकों के जुड़ाव को छूआछूत के नजरिये से देखना अपने किस्म का ब्राह्मणवाद है। साथ ही उस आंदोलन को बहुत सीमित कर देना है जो इतिहास में एक बड़ी भूमिका निभाना सकता है। जिसमें दूसरे तबकों, हिस्सों और जातियों के साथ मिलकर व्यवस्था परिवर्तन तक की क्षमता है। और इस कड़ी में दलित खुद के साथ जाति व्यवस्था की इस जकड़न से पूरे समाज को मुक्त करेगा।
Pain of Dalit movement and Brahmanism Dalit-backward of intellectuals