हालात बदलने के खातिर अगर हमारा लिखा बेमतलब है, तो उसे पढ़ना तो क्या, उसपर थूकना भी नहीं। हम न किसी संपादक के कहे मुकताबिक विज्ञापनों के दरम्यान फीलर बतौर माल सप्लाई करते हैं और न हमें किन्हीं दौ कौड़ी के आलोचकों और फूटी कौड़ी के प्रकाशकों की कोई परवाह है।
हम तो आपके दिलों में आग लगाने की फिराक में है ताकि आपके वजूद को भी सनद हो कि कहीं न कहीं कोई दिल भी धड़का करै है।
हमने प्रभाष जोशी से कहा था, जब उनने मुझसे पूछा था कि क्यों कोलकाता जाना चाहते हो, तो जवाब में हमने कहा था कि हमें हिसाब बराबर करने हैं।
जोशी जी ने न तब और न कभी पलटकर पूछा था कि कौन सा हिसाब, कैसा हिसाब , किससे बराबर करने हैं हिसाब।
वे मेरे संपादक थे।
अजब-गजब रिशता था हमारा भी उनसे। थोड़ी सी मुहब्बत थी, थोड़ी सी इज्जत थी, नफरत भी थी, दोस्ती हो न हो, दुश्मनी बहुत थी।
हम हुए दो कौड़ी के उपसंपादक और वे हुए हिंदी पत्रकारिता के सर्वे सर्वा, वे रग-रग पहचानते थे हम सभी को। हम भी उन्हें चीन्ह रहे थे।
हाईस्कूल पास करते ही 1973 में नैनीताल जीआईसी में दाखिला लेते ही मालरो़ड पर लाइब्रेरी के ठीक ऊपर दैनिक पर्वतीय में रोज कविता के बहाने टिप्पणियां छपवाने से लेकर नैनीताल समाचार और फिर दिनमान होकर रघुवीर सहाय जी की कृपा से पत्रकार बनते हुए एकदिन प्रभाष जोशी की रियासत के कारिंदे बन जाने की कोई ख्वाहिश नहीं थी हमारी।
मुकाबला हार गया हूं। बुरी तरह मैदान से बाहर हो गया हूं। जिंदगी फिर नये सिरे से शुरु भी नहीं कर सकता। फिर भी अबभी शेक्सपीअर और वाल्तेअर, ह्युगो, दास्तावस्की काफका और प्रेमचंद और मुक्तिबोध से मुकाबला है हमारा। यकीन करें।
हम पत्रकारिता में भले ही रोज गू मूत छानते परोसते हों, लेकिन साहित्य में जायका
साहित्य में जनपक्षधरता के सिवाय किसी भी हरकत से मुझे सख्त नफरत है।
पंगा मैं न ले रहा होता जिंदगीभर कौड़ी दो कौड़ी के समझौते भी कर लेता, तो शायद जिंदगी कुछ आसान भी होती।
हमारी मजबूरी यह रही कि नैनीताल में हमें गजानन माधव मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस ने दबोच लिया और दीक्षा देने के बाद भी वे ऐसे ब्रह्मराक्षस निकले जो पल छिन पल छिन मेरी हरकतों पर नजर रखते हैं।
किस्मत मैं नहीं मानता और न किसी लकीर का मैं फकीर हूं, लेकिन किस्मत कोई चीज होती होगी तो देश के बंटवारे की संतान होने के साथ-साथ मेरी किस्मत में उस ब्रह्मराक्षस की दीक्षा लिखी थी कि मां दिलों में आग लगाने वाला जल्लाद बनने की कोशिश में हूं।
उन्हीं ब्रह्मराक्षस, हमारे उन्हीं गुरुजी ने लिखा हैः
१५ अगस्त १९४७ को देश आजाद हुआ था. इन ६८ सालों में हम अजाद (अजाद या किसी की न सुनने वाला और मनमानी करने वाला कुमाउनी ) हो गये हैं. हमारी संसद हुड़्दंगियों के जमावड़े में बदल गयी है. और इसका कारण है हमारी मूल्यहीन राजनीति. हमारी मूल्यहीन न्याय व्यवस्था. मौका देख कर निर्णय लेने की आदत. कुल मिला कर 'अपने सय्याँ से नयना लडइहैं हमार कोई का करिहै कि मनोवृत्ति. जब अढ़्सठ साल में यह हाल है तो शताब्दी तक क्या होगा? देश विदेशी सत्ता से तो मुक्त हुआ पर अपने ही दादाओं ने उसे जकड़ लिया. सत्ता का मोह देशबोध पर हावी हो गया.
पलाश विश्वास