नई दिल्ली। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष और महासचिव को पत्र लिखकर शिक्षण संस्थानों में लोकतंत्र पर हो रहे तेज हमलों की तरफ आगाह किया है। विश्वविद्यालय में प्रवेश के दौरान नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पर शपथ पत्र लेने के विश्वविद्यालय के फैसले पर उन्होंने छात्रसंघ से अपील की है कि वह इस घटनाक्रम की जाँच की माँग करे। आइए देखते हैं क्या है पत्र और उसमें उठाया गया मुद्दा -
प्रति :
अध्यक्ष, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ
महासचिव, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ
प्रिय साथी,
मैं पिछले तीसेक सालों से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आता रहा हूँ। लेकिन यह आना जाना बस चंद घंटों के लिये ही होता रहा है। पहली बार मुझे आपके विश्वविद्यालय में दूसरे कारणों से जाना पड़ा। पहली बार विश्वविद्यालय के प्रशासन से सामना हुआ। छात्र संगठनों के बीच चल रही प्रतिद्वन्दता को देखने का मौका मिला।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में किसी के दाखिले के सम्बंध में मैं अपना समय व्यतीत कर रहा था। 17 जुलाई 2013 को मैं वहाँ था और उसके बाद कई दिनों तक आना जाना लगा रहा। दाखिले के समय मैंने ये पाया कि वहाँ दाखिले के लिये पहुँचने वाले विद्यार्थियों को मदद पहुँचाने के लिये विभिन्न विद्यार्थी संगठनों ने पण्डाल लगा रखा था। मेरे लिये बिल्कुल यहाँ नया अनुभव था। मैं इन पण्डालों में पसरी प्रवृतियों की तरफ यहाँ नहीं जाना चाहता। लेकिन मैं जो एक घटना का उल्लेख करना चाहता हूँ शायद उससे उन प्रवृतियों को समझने का आधार मिल सकता हैं।
दाखिले के समय विश्वविद्यालय प्रशासन ने एक प्रावधान किया था कि विद्यार्थियों को दस दस रूपये के दो नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पर शपथ पत्र देने होंगे। कहा ये गया कि यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले और उस फैसले के आलोक में यू जी सी के निर्देशों के अनुसार दो नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प
मैं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में भी दाखिले की प्रक्रिया को देखने गया था। वहाँ दो नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पर शपथ पत्र की व्यवस्था नहीं थी। पिछले वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेजों में यह औपचारिकता पूरी करवायी गयी और कईयों में ये नहीं करवायी गयी। मीडिया स्टडीज ग्रुप ने पिछले वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प शपथ पत्र लेने के प्रावधान को एक अध्ययन के बाद गलत बताया था जिसकी खबर कई समाचार पत्रों में छपी थी। इस वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय ने शपथ पत्र तो लिये लेकिन दो नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पर नहीं। वे शपथ पत्र ऑन लाइन थे। यानी सादे कागज पर ये शपथ पत्र लिये गए।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के संगठनों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट और यू जी सी का यह निर्देश था तो वह पूरे देश के शिक्षण संस्थानों के लिये होता। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले के समय दो नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पर शपथ पत्र नहीं लिया जा रहा था। इसका साफ अर्थ है कि इस तरह की कोई कानूनी बाध्यता नहीं रही है। मीडिया स्टडीज ग्रुप ने पिछले वर्ष एक अध्ययन के बाद ये मोटा अनुमान लगाया था कि शपथ पत्र को दो नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पर शपथ पत्र में अनूदित कर देने भर से बाजार को लगभग सौ करोड़ रूपये की कमाई हुयी। हजारों हजार विद्यार्थी परेशान हुये। अभिभावकों को भी अतिरिक्त आर्थिक बोझ का वहन करना पड़ा।
मैं 17 जुलाई को ही कुलसचिव से भी मिला। लेकिन उनके अति असंवेदनशील कुलसचिव होने का मुझे अनुभव हुआ। उन्हें इस सम्बंध में कुछ भी जानकारी नहीं थी और वे अपनी जिम्मेदारी से भी भागने की कोशिश कर रहे थे। उनके अनुसार दो नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पर शपथ पत्र की माँग उनके दायरे से बाहर है। वे प्रशासन के उस हिस्से भर को देखते हैं जिसमें दाखिले की प्रक्रिया शामिल नहीं है। उन्होंने दूसरे नौकरशाहों की तरह मुझे इससे-उससे मिलने की सलाह दे रहे थे।
मैं इस घटना का उल्लेख इस रूप में कहना चाहता हूँ कि इस दौर में हमारा निर्माण किस रूप में हो रहा है। शिक्षण संस्थान एक भीड़ की मानसिकता का निर्माण करने वाली जगहें बनती जा रही है। बाजारवाद के दौर में यह प्रवृति तेजी से बढ़ी हैं।
हम समाज,राजनीति के कई मुद्दों की तरफ सोचते विचारते हुये दिखते हैं लेकिन उससे ज्यादा समाज और राजनीतिक प्रक्रिया से कटे हुये भी हैं। इसका एहसास तक हममें नहीं है। हमें लगता है कि हम जिस तरह से सोचते विचारते हैं और जिस दायरे में सोचते विचारते हैं वह हमारी उन्नत चेतना की गवाही हैं। लेकिन वास्तव में हमारा बाजारीकरण तेजी के साथ हुआ है। अराजनीतिकरण एक स्वभाव की तरह हमारे भीतर बैठता चला गया है। जाहिर सी बात है कि ऐसे में चुनाव और चुनाव में जीत के लिये प्रतिद्वदंता का रूप बदल जाता है और विषय भी बदल जाते हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी और पूरा परिसर राजनीतिक चेतना से लवरेज दिखता रहा है। वहाँ से प्रतिद्वन्दता का राजनीतिक रूप ही दिखने की अपेक्षा रहती है।
होना तो ये चाहिए था कि यदि सुप्रीम कोर्ट और यू जी सी ने दो नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पर शपथ पत्र लेने की व्यवस्था की तो उसका विरोध किया जाना चाहिए था। दो नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प के बजाय सादे कागज पर शपथ पत्र देने की जरूरत को काफी बताना चाहिए था। लेकिन एक उल्टी प्रक्रिया यहाँ देखने को मिली और दाखिले में दो नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पर शपथ पत्र दिलवाने में विद्यार्थी नेतृत्व बतौर सहायक हो गये। मजे की बात तो यह कि मैं 6 अगस्त को फिर विश्वविद्यालय गया तो मुझे ये बताया गया कि प्रशासन ने अब सादे कागज पर शपथ पत्र की माँग की है। हैरानी की बात ये भी है कि इस आशय की जो सूचना प्रशासनिक भवन में लगी थी उसे 1 जुलाई 2013 को जारी दिखाया गया है।
मैं तो आपसे अपेक्षा करता हूँ कि आप दो नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पर शपथ पत्र माँगे जाने और फिर उसकी माँग को समाप्त किये जाने की पूरी प्रक्रिया की जाँच की माँग करें।
दरअसल मेरा यह पत्र लिखने का कारण केवल इस घटना का बयान करना भर नहीं है। मैं इसके बहाने आपके सामने ये रखना चाहता हूँ कि लोकतंत्र पर हमला लगातार तेज हुआ है। शिक्षण संस्थानों पर हमले उसकी एक कड़ी है। लेकिन मैं यहाँ खासतौर से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के राजनीतिक वातावरण पर जिस तरह से हमले होते रहे हैं, उस स्थिति में विद्यार्थी संघ की भूमिका और चुनौतीपूर्ण हो जाती है। आपको बताने की जरूरत नहीं है कि चुनावों को सम्पन्न नहीं होने देने के बहाने कैसे पहले ये हमला किय़ा गया। घटनाओं की एक लम्बी कड़ी है जो हिन्दी फिल्म रांझना और 31 जुलाई की घटना और उसकी समाचार पत्रों में रिपोर्टिंग के रूप में भी देख सकते हैं। मैं उस चुनौतीपूर्ण भूमिका के लिये आपको ये पत्र लिख रहा हूँ और शपथ पत्र की घटना के बहाने जमीनी स्थिति की तरफ आपका ध्यान ले जाना चाहता हूँ।
मैं फिलहाल एक सुझाव रखना चाहता हूँ ताकि अराजनीतिकरण की जो प्रक्रिया पिछले वर्षों में विश्वविद्यालय में चलायी गयी उसे कुछ तेजी के साथ दूर किया जा सके।
मैं ये सुझाव देना चाहता हूँ कि विद्यार्थियों की यह संस्था एक शोध कमेटी का गठन करें। वह समय- समय पर विद्यार्थियों के बीच विभिन्न पहलूओं पर अध्ययन आयोजित करें। मसलन ये अध्ययन किया जा सकता है कि विश्वविद्यालय में दाखिले की प्रक्रिया के दौरान किस तरह की समस्याओं का सामना विद्यार्थियों को करना पड़ा। औसतन कितना समय उन्हें इसके लिये लगाना पड़ा। मैं केवल एक संकेत दे रहा हूँ। आप लोग खुद उन पहलूओं पर विचार कर सकते हैं। मेरा आशय यह है कि आप दबाव बनाने की स्थिति में रहें और आपके पास सवाल भी रहे। मुझे ये लगता है कि जब कोई समस्या किसी घटना के रूप में हमारे सामने आ जाती है तब वह एक मुद्दे के रूप में हमारे सामने खड़ा हो जाता है। अन्थया प्रशासन के भरोसे स्थितियों को छोड़ दिया जाता है।
मुझे लगता है कि मौजूदा समय और घटनाएं खुद को गहरे तौर पर टटोलने और समझने की माँग कर रही हैं।
आपका
अनिल चमड़िया