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मन की बात - इन जहरीली हवाओं और पानियों बीच मुखौटा लगाये कब तक जीते रहेंगे हम?
कोलकाता में दफ्तरों और सड़कों पर लोग मंहगे मा्सक के साथ निकल रहे हैं। हम भी मुखौटा पहनेने को मजबूर हैं।
स्वाइन फ्लू है या नहीं है, इसकी जांच की व्यवस्था बंगाल की छोड़िये, देश के किस किस अस्पताल में है, इसके बारे में लोगों को कोई जानकारी नहीं है।
बंगाल में अभी मृतकों की गिनती भी शुरु नहीं हुई हैं कि अनुपलब्ध वैक्सीन के लिए मारामारी है।
बंगाल के तमाम अस्पतालों के डॉक्टर खुद तो मास्क पहन ही रहे हैं, वैक्सीन बाजार से औने पौने दामों पर खरीदकर खुद को सुरक्षित करने की फिराक में जनता के बीच पैनिक फैला रहे हैं।
कोई बता नहीं पा रहा है कि फ्लू और स्वाइन फ्लू में फर्क क्या है।
हर साल बंगाल में समुद्रतटीय आबोहवा में मौसम के उतार चढ़ाव के साथ सर्दी खासी और फ्लू आम बीमारी है। जिससे किसी को कभी परेशान होते नहीं देखा है।
लेकिन इस बार आतंक का माहौल इतना घना है हे कि जो हालात समझ रहे हैं, उन्हें भी परिजनों को आश्वस्त करने के लिए अस्पताल या नर्सिंग होम दौड़ना पड़ रहा है।
किसी के खांसते ही चारों तरफ लोगों को सांप सूंघने लग रहा है।
हम लगातार महीने भर से मेडिकल सुपरविजन पर हैं और अभी दस दिनों का एमोक्सोसिलिन कोर्स पूरा कर चुके हैं।
डॉक्टर ने हर तरह का परीक्षण करा लिया है और एंटीबायोटिक डिसकंटीन्यू करके जरूरत हुआ तो कफ सिरप लेने के लिए कहा है।
डॉक्टर के मुताबिक कोल्ड की दवा लेते रहने और एंटीबायोटिक कोर्स की वजह से खांसी पूरी तरह खत्म होने में वक्त लगता है और यह चिंता की बात नहीं है।
अब आलम यह है कि जो लोग गंभीर से गंभीर बीमारी का इलाज भी नहीं कराते,  जो जिंदा परिजनों

के लिए मातम मनाते हुए उन्हें मौत के घाट उतारे बिना चैन की नींद नहीं सोते और अपने खींसे से धेले भर अपनी सेहत पर खर्च नहीं करते, मेरे खांसते ही उनमें सनसनी पैदा हो रही है और सविता को घेर कर उनका कहना है कि कोई न कोई गंभीर बीमारी जरूर है और बिना इंतजार किये नर्सिंग होम में भर्ती हो जाना चाहिए।
ऐसे शुभचिंतक हर गली मोहल्ले गांव में व्यापक पैमाने पर हे गये हैं और उनकी एकमात्र चिंता है कि किसी रोग का संक्रमण उन्हें कहीं स्पर्श न कर लें।
हेल्थ माफिया इसका फायदा उठा रहा है।
महामारियों का कुल जमा फंडा वैक्सीन कारोबार है।
सवाल यह है कि इन जहरीली हवाओं और पानियों बीच मुखौटा लगाये कब तक जीते रहेंगे हम?
हम लगातार कहते रहे हैं कि मौजूदा मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के माईल स्टोन हैं हरित क्रांति के जरिए भारतीय कृषि का सत्यानाश, भोपाल गैस त्रासदी, आपरेशन ब्लू स्टार मार्फत हिंदुत्व का पुनरूत्थान और बाबरी विध्वंस, देश विदेश दंगे और गुजरात नरंसहार। हमरे हिसाब से ये अलग-अलग घटनाएं उसी तरह नहीं है, जैसे नरसंहार और दंगों के अरग अलग मामलों में अभियुक्तों की थोक रिहाई, जैसे सिखों और भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को दशकों से न्याय से इंकार, जैसे यूनियन कार्बाइड, डाउ कैमिकल्स और एंडरसन का बचाव और जैसे दंगाइयों की ताजपोशी के लिए कारपोरेट सक्रियता अबाध विदेशी पूंजी और अबाध बेदखली की तरह।
सुधारों का, मुक्तबाजार का यह ताना बाना और तिलिस्म अस्मिता रंगा इतना घना है, कि इसे बेनकाब करना बेहद मुश्किल है।
प्रधानमंत्री बन जाने के बड़े फायदे हैं। मीडिया और माध्यमों में प्रधानमंत्री की मन की बात ही सुनने को मिलती हैं, और बाकी आवाजें सिरे से गायब हो जाती हैं।
भूमि अधिग्रहण से किसानों को कितना फायद होने वाला है, देश भर के किसानों को प्रधानमंत्री ने सिलसिलेवार तरीके से समझाया है।
सबसे पहले हस्तक्षेप पर हाशिमपुरा कांड का खुलासा करने वाले गाजियाबाद के तत्कालीन एसपी विभूति नारायण राय का भोगा हुआ यथार्थ शेयर करने के लिए अमलेंदु का आभार।
मैंने सुबह-सुबह जब फोन लगाकर कहा कि विभूति जी के अनुभव को शेयर कर लेना चाहिए, अमलेंदु ने कहा कि पांच मिनट पहले हस्तक्षेप पर उनका अनुभव लग चुका है।
मलियाना और हाशिमपुरा दोनों कांडों में मेरठ कैंट के कुछ सैन्य अधिकारियों की बड़ी भूमिका थी। हापुड़ रोड के आरपार दंगाइयों ने हाशिमपुरा मुस्लिम बस्ती से टेलीलेंस लगाकर एक आर्मी अधिकारी के भाई को गोली से उड़ा दिया तो उस मोहल्ले के सारे मर्दों को ट्रकों में भरकर ले जाने के आपरेशन में पीएसी के अलावा आर्मी के लोग भी थे।
इसी तरह मेरठ कैंट इलाके में मलियाना को घेरकर जो नरसंहार हुआ, उसे अंजाम देने में आर्मी का खुल्ला सहयोग रहा है। हम उन बस्तियों और उन लोगों को भी जानते रहे हैं, जिन्हें पैसे, दारु और मांस देकर मेरठ में सिलसिलेवार दंगे भड़काये जाते रहे हैं। दंगाग्रस्त इलाकों का भौगोलिक ताना बाना और उसमें मेरठ के कुटीर उद्योगों का साझा कारोबार को तबाह करके एकाधिकार घरानों के न्यारा वारा के बारे में भी हम जानते रहे हैं।
गौरतलब है कि अमृतसर स्वर्णमंदिर में आपरेशन ब्लू स्टार का ब्लू प्रिंट भी मेरठ कैंट में ही बना था। गायपट्टी के भगवेकरण में जाहिर है कि मेरठ की खास भूमिका रही है।
विभूति नारायण के सौजन्य से हम मेरठ में पीएसी के कारनामे के बारे में अभी तक जान सके हैं और पूरा किस्सा अभी खुला ही नहीं है।
पीएसी ने ऐसे ही कारनामे मुरादाबाद और अलीगढ़ और यूपी के दूसरे शहरों  में करके मुसलमानों का हौसला पस्त करने में भारी भूमिका निभायी थी।
अगर विभूति नारायण का कलेजा कमजोर होता तो इस कांड का भी खुलासा नहीं होता। मीडिया में खबरें भी विभूति नारायण की वजह से लगीं, वरना मीडिया ने तो पूरे मामले को रफा दफा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मीडिया में होते हुए, सब कुछ जानते हुए हम लोग खबर नहीं बना सके थे।
यूपी के हर शहर में बाबरी विध्वंस के पहले और बाद जो दंगे हुए उनमें देशज उत्पादन प्रणालियों का खात्मा मेरठ, बरेली से लेकर बनारस और फिरोजाबाद तक कामन फैक्टर हैं।
नवउदारवादी संतानों के राजकाज से पहले देशज उत्पादन प्रणाली को कैसे खत्म किया गया, मेरठ के दंगे इसकी दिलोदिमाग दहला देने वाली केस स्टडी है।
हरित क्रांति के अधूरे एजंडा को पूरा करने के लिए सत्तर और अस्सी तके दशकों में सुपरिल्पित तौर पर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का आवाहन किया पक्ष विपक्ष की कारपोरेट राजनीति ने।
जिसकी फसल है यह मनसैंटो डाउ कैमिकल्स की हुकूमत।
दरअसल इन्हीं दंगाइयों ने जो हमारे राष्ट्र नेता भी हैं, दीर्घकालीन रणनीति बनाकर अब तक मिथकों में कैद सोने की चिडिया के आखेट का चाक चौबंद इंतजाम किया है।
पलाश विश्वास

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