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बिहार चुनाव : कुछ अन्य बातें
ललित सुरजन
बिहार की राजनीति को बारीकी से समझने वाले पत्रकारों में संकर्षण ठाकुर का नाम प्रमुखता के साथ लिया जा सकता है। वे स्वयं बिहार के हैं और उन्होंने बिहार के दो प्रमुख राजनेताओं लालू प्रसाद यादव तथा नीतीश कुमार पर विश्लेषणपरक पुस्तकें भी लिखी हैं। जैसा कि इनसे पता चलता है वे लालू प्रसाद यादव की राजनीति के विरोधी और नीतीश के प्रशंसक हैं। उनके निष्कर्ष जमीनी अध्ययन पर आधारित हैं इसलिए अभी विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद श्री ठाकुर ने नीतीश के चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर पर किसी अंग्रेजी अखबार में आधा पेज का लेख प्रकाशित किया तो मैं कुछ सोच में डूब गया। इस लेख का सार यह है कि महागठबंधन की जीत में प्रशांत किशोर की रणनीति का बहुत बड़ा योगदान रहा। मैंने पहली बार देखा कि किसी चुनावी प्रबंधक की ऐसी छवि प्रस्तुत की गई जो अतिशयोक्ति की हद को छूती हो। चूंकि लिखने वाले एक जानकार पत्रकार हैं इसलिए उनकी बात को यूं ही नहीं उड़ाया जा सकता।
बिहार में महागठबंधन की अभूतपूर्व जीत के बारे में टीकाकारों के अपने-अपने विश्लेषण हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने अपने हाल में प्रकाशित लेख में बहुत चतुराई के साथ मोदी-शाह की टीम को ही भाजपा की हार के लिए दोषी ठहरा दिया है। इसके अलावा कहीं गणित फेल होने की बात हो रही है, तो कहीं केमिस्ट्री सफल होने की। इसमें प्रशांत किशोर याने एक चुनाव प्रबंधक की भूमिका कितनी प्रभावी रही होगी, यह अलग प्रश्न उभर आया है। उल्खेनीय है कि श्री किशोर ने 2014 में नरेन्द्र मोदी के चुनाव प्रबंधक के तौर पर काम किया था। यह अभी रहस्य ही है कि वे श्री मोदी को छोड़कर नीतीश कुमार के खेमे में कैसे आ गए। एकाध जगह कहीं लिखा गया कि चुनाव जीतने

के बाद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में उन्हें अपमानित किया। इससे आहत होकर उन्होंने पाला बदल लिया। बिहार के नतीजे आने के बाद वे दिल्ली गए और पढ़ऩे में आया कि वे एक तरफ राहुल गांधी से मिले और दूसरी तरफ अरुण जेटली से भी।
इस समूचे संदर्भ में एक कयास तो ऐसा लगाया जा रहा है कि लालू प्रसाद को महागठबंधन की जीत का श्रेय न मिले, इसलिए प्रशांत किशोर का नाम आगे किया गया है। इस बात पर विश्वास करने का मन नहीं होता। संभव है कि भविष्य में लालूजी और नीतीशजी के बीच वर्चस्व का प्रश्न उठे, किन्तु हमें नहीं लगता कि चुनाव जीतने के पांच-सात दिन बाद ही ऐसा होने लगेगा। इससे एक दूसरी शंका उभरती है कि लालू-नीतीश की निकटता से चिंतित नीतीश खेमे के ही लोग तो कहीं अपनी होशियारी दिखाने के लिए ऐसा नहीं कर रहे? एक तीसरी संभावना और है कि प्रशांत किशोर स्वयं अपने छवि निर्माण में लगे हों ताकि आने वाले समय में उनकी मूल्यवान सेवाएं कांग्रेस या कोई अन्य पार्टी हासिल करने के लिए उत्सुक हो उठे।

मेरा अपना मानना है कि चुनाव प्रबंधन अपने आप में एक कला है और जिन्होंने इसे साध लिया है वे सराहना के पात्र होते हैं, लेकिन जब पक्ष या विपक्ष में लहर उठी हो तो फिर सारा मामला आम नागरिक की आशा-आकांक्षा पर आकर टिक जाता है। वहां फिर कोई गणित, कोई रणनीति, कोई प्रबंधन काम नहीं आता और अगर आता भी है तो सीमित रूप में।
बहरहाल नीतीश कुमार औपचारिक रूप से महागठबंधन के नेता चुन लिए गए हैं तथा कल याने 20 तारीख को वे एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करेंगे। अपने शपथ ग्रहण में उन्होंने अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों को शामिल होने का न्यौता दिया है। जिनमें से सिर्फ नवीन पटनायक ने ही अपनी असमर्थता जताई है। यह भव्य शपथ ग्रहण समारोह एक तरफ महागठबंधन के लिए अपनी अपूर्व सफलता का जश्न मनाने का अवसर होगा वहीं नीतीश कुमार इसे राष्ट्रीय रंगमंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के एक नायाब मौके के रूप में भी देखेंगे। कुछ ऐसी ही सुप्त महत्वाकांक्षा नवीन पटनायक की भी है और अनुमान लगाया जा सकता है कि वे शायद इसी कारण पटना नहीं आ रहे हों।
सुना है कि नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री ने शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे को भी आमंत्रित किया है। उद्धव चूंकि लगातार मोदी का विरोध कर रहे हैं, इस संदर्भ में इस निमंत्रण को देखा जा सकता है। इसका एक व्यवहारिक पक्ष भी हो सकता है कि महाराष्ट्र खासकर मुंबई में जो मराठी बनाम बाहरी के नाम पर झड़पें होती हैं उस पर विराम लगाने का कोई संकेत यहां से जाए। याद करें कि जब बिहार में किसी रेलवे स्टेशन पर पूर्वोत्तर के नागरिकों के साथ दुर्व्यवहार हुआ था तो तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद स्वयं असम गए थे और गुवाहाटी की सड़कों पर पैदल घूमकर उन्होंने क्षमायाचना की थी। ऐसी पहल करने से वातावरण सुधरता है, स्थितियां सामान्य होती हैं और नागरिकों के बीच सद्भावना पनपती है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए।
नीतीश कुमार मितभाषी हैं, लेकिन लालू प्रसाद अपने मंतव्य प्रकट करने में शब्दों में कंजूसी नहीं करते। उन्होंने तो रिजल्ट आते साथ ही ऐलान कर दिया है कि वे अब राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होंगे। यहां नोट करना चाहिए कि बिहार के बाद कांग्रेस में भी स्फूर्ति आई है, लेकिन उसे अपने भावी लक्ष्य के बारे में अभी कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। वह राष्ट्रीय पार्टी है और 2016 में होने वाले विधानसभा चुनावों में ही उसकी संभावनाएं छुपी हुई हैं।
बिहार में महागठबंधन की विजय से जुड़े एक अन्य पहलू पर अभी बहुत ध्यान नहीं गया है। यह सबको पता है कि चाहे राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद हों, चाहे अध्यक्ष नीतीश कुमार, चाहे जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव- ये सब डॉ. राममनोहर लोहिया की आक्रामक और व्यक्तिवादी राजनीति के प्रशंसक थे और उसी से प्रेरित होकर राजनीति में आए थे। ये एक तरफ जॉर्ज फर्नांडीज़ के तीखे तेवरों के मुरीद थे, तो दूसरी तरफ मधु लिमये व किशन पटनायक की सौम्य विचारशीलता इन्हें प्रभावित करती थी। तब के इन समाजवादी युवाओं में शरद यादव पहले व्यक्ति थे जो 1975 में संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी बन लोकसभा उपचुनाव जीत संसद में पहुंचे थे। वे छात्र राजनीति से निकलकर एकाएक राष्ट्रीय क्षितिज पर आ गए थे। जबकि लालू प्रसाद इत्यादि के राजनैतिक कॅरियर की शुरुआत आपातकाल में छात्र आंदोलन और जेल यात्रा से हुई। ऐतिहासिक दृष्टि से विवेचना करें तो 1946-47 से लेकर 2014 तक समाजवादी खेमा और उसके विभिन्न धड़ों की राजनीति कांग्रेस-विरोध पर ही केन्द्रित थी।
जब स्वतंत्र देश की पहली सरकार बन रही थी तब पंडित नेहरू के समाजवादी मित्रों ने उनका साथ छोड़ दिया था। डॉ. लोहिया ने तो गैर-कांग्रेसवाद का नारा ईजाद किया था जिसकी पहली सफलता 1967 में देखने मिली जब कांग्रेस से दलबदल कर विभिन्न प्रदेशों में संविद सरकारें (संयुक्त विधायक दल) बनीं। ये सरकारें आपसी विग्रह के कारण लंबे समय तक तो नहीं चल पाईं, लेकिन इसका असली लाभ लोहिया के अनुयायियों के बजाय जनसंघ ने उठाया। इसके बावजूद विभिन्न पार्टियों में बंटे समाजवादियों के कांग्रेस विरोध में कोई कमी नहीं आई। 1977 में सारे कांग्रेस-विरोधी जनता पार्टी के नाम पर एकजुट हुए जिसका कालांतर में लाभ भाजपा को मिला। 1998 में भी जब कांग्रेस सरकार बनने की संभावना जग रही थी तब एक-दूसरे समाजवादी मुलायम सिंह ने उसमें सेंध लगा दी थी। इस इतिहास को देखने से स्पष्ट होता है कि ऐसा पहली बार 2015 में जाकर हुआ है जब कांग्रेस और समाजवादी दोनों एक साथ मिलकर चुनाव लड़े और लड़े ही नहीं, चुनाव जीते भी।
 यह स्पष्ट है कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टियां- इनके बीच कोई बहुत ज्यादा वैचारिक मतभेद नहीं हैं। किसी हद तक सीपीआई याने भाकपा की भी इनसे कोई बड़ी वैचारिक असहमति नहीं है। अगर ये सब मिलकर एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार कर लें और उस पर ईमानदारी के साथ अमल करें तो यह महागठबंधन देश की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन करने में कामयाब हो सकता है। इसमें तीनों समाजवादियों नेताओं को अपनी-अपनी भूमिका भी अभी से तय करना होगी- नीतीश सुशासन का मॉडल पेश करें, लालूप्रसाद वोट बटोरने का और वरिष्ठता के नाते शरद यादव समन्वय का जिम्मा उठाएं।
देशबन्धु में 19 नवंबर 2015 को प्रकाशित

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