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शम्सुल इस्लाम

            इस 8 अगस्त 2016 को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक अहम मील के पत्थर, ऐतिहासिक ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को 75 साल पूरे हो जायेंगे।

7 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने बम्बई में अपनी बैठक में एक क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित किया जिसमें अंग्रेज शासकों से तुरंत भारत छोड़ने की मांग की गयी थी।

कांग्रेस का यह मानना था कि अंग्रेज सरकार को भारत की जनता को विश्वास में लिए बिना किसी भी जंग में भारत को झोंकने का नैतिक और कानूनी अधिकार नहीं है। अंग्रेजों से भारत तुरंत छोड़ने का यह प्रस्ताव कांग्रेस द्वारा एक ऐसे नाजुक समय में लाया गया था जब दूसरे विश्वयुद्ध के चलते जापानी सेनाएं भारत के पूर्वी तट तक पहुंच चुकी थी और कांग्रेस ने अंग्रेज शासकों द्वारा सुझाई ‘क्रिप्स योजना’ को खारिज कर दिया था।

‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के साथ-साथ कांग्रेस ने गांधी जी को इस आंदोलन का सर्वेसर्वा नियुक्त किया और देश के आम लोगों से आह्वान किया कि वे हिंदू-मुसलमान का भेद त्याग कर सिर्फ हिदुस्तानी के तौर पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए एक हो जाएं। अंग्रेज शासन से लोहा लेने के लिए स्वयं गांधीजी ने ‘करो या मरो’ ब्रह्म वाक्य सुझाया और सरकार एवं सत्ता से पूर्ण असहयोग करने का आह्वान किया।

भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के साथ ही पूरे देश में क्रांति की एक लहर दौड़ गयी। अगले कुछ महीनों में देश के लगभग हर भाग में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध आम लोगों ने जिस तरह लोहा लिया उससे 1857 के भारतीय जनता के पहले मुक्ति संग्राम की यादें ताजा हो गईं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने इस सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित किया कि भारत की आम जनता किसी भी कुर्बानी से पीछे नहीं हटती है। अंग्रेज शासकों ने दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 9

अगस्त की सुबह से ही पूरा देश एक फौजी छावनी में बदल दिया गया। गांधीजी समेत कांग्रेस के बड़े नेताओं को तो गिरफ्तार किया ही गया दूरदराज के इलाकों में भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भयानक यातनाएं दी गईं।

सरकारी दमन और हिंसा का ऐसा तांडव देश के लोगों ने झेला जिसके उदाहरण कम ही मिलते हैं। स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार पुलिस और सेना द्वारा सात सौ से भी ज्यादा जगह गोलाबारी की गई जिसमें ग्यारह सौ से भी ज्यादा लोग शहीद हो गए। पुलिस और सेना ने आतंक मचाने के लिए बलात्कार और कोड़े लगाने का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया।

भारत में किसी भी सरकार द्वारा इन कथकंडों का इस तरह का संयोजित प्रयोग 1857 के बाद शायद पहली बार ही किया गया था।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को ‘अगस्त क्रांति’ भी कहा जाता है। अंग्रेज सरकार के भयानक बर्बर और अमानवीय दमन के बावजूद देश के आम हिंदू मुसलमानों और अन्य धर्म के लोगों ने हौसला नहीं खोया और सरकार को मुंहतोड़ जवाब दिया। यह आंदोलन ‘अगस्त क्रांति’ क्यों कहलाता है इसका अंदाजा उन सरकारी आंकड़ों को जानकर लगाया जा सकता है जो जनता की इस आंदोलन में कार्यवाहियों का ब्योरा देते हैं।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार 208 पुलिस थानों, 1275 सरकारी दफ्तरों, 382 रेलवे स्टेशनों और 945 डाकघरों को जनता द्वारा नष्ट कर दिया गया। जनता द्वारा हिंसा बेकाबू होने के पीछे मुख्य कारण यह था कि पूरे देश में कांग्रेसी नेतृत्व को जेलों में डाल दिया गया था और कांग्रेस संगठन को हर स्तर पर गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था। कांग्रेसी नेतृत्व के अभाव में अराजकता का होना बहुत गैर स्वाभाविक नहीं था। यह सच है कि नेतृत्व का एक बहुत छोटा हिस्सा गुप्त रूप से काम कर रहा था परंतु आमतौर पर इस आंदोलन का स्वरूप स्वतः स्फूर्त बना रहा।

यह जानकर किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दमनकारी अंग्रेज सरकार का इस आंदोलन के दरम्यान जिन तत्वों और संगठनों ने प्यादों के तौर पर काम किया वे हिंदू और इस्लामी राष्ट्र के झंडे उठाए हुए थे। ये सच है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी भारत छोड़ो आंदोलन से अलग रहने का निर्णय लिया था। इसके बारे में सबको जानकारी है। लेकिन आज के देशभक्तों के नेताओं ने किस तरह से न केवल इस आंदोलन से अलग रहने का फैसला किया था बल्कि इसको दबाने में गोरी सरकार की सीधी सहायता की थी जिस बारे में बहुत कम जानकारी है।

मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्नाह ने कांग्रेसी घोषणा की प्रतिक्रिया में अंग्रेज सरकार को आश्वासन देते हुए कहा, ‘कांग्रेस की असहयोग की धमकी दरअसल श्री गांधी और उनकी हिंदू कांग्रेस सरकार अंग्रेज सरकार को ब्लैकमेल करने की है। सरकार को इन गीदड़भभकियों में नहीं आना चाहिए।’ मुस्लिम लीग और उनके नेता अंग्रेजी सरकार के बर्बर दमन पर न केवल पूर्णरूप से खामोश रहे बल्कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज सरकार का सहयोग करते रहे। मुस्लिम लीग इससे कुछ भिन्न करे इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी क्योंकि वह सरकार और कांग्रेस के बीच इस भिड़ंत के चलते अपना उल्लू सीध करना चाहती थी। उसे उम्मीद थी कि उसकी सेवाओं के चलते अंग्रेज शासक उसे पाकिस्तान का तोहफा जरूर दिला देंगे।

लेकिन सबसे शर्मनाक भूमिका हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रही जो भारत माता और हिंदू राष्ट्रवाद का बखान करते नहीं थकते थे। भारत छोड़ो आंदोलन पर अंग्रेजी शासकों के दमन का कहर बरपा था और देशभक्त लोग सरकारी संस्थाओं को छोड़कर बाहर आ रहे थे; इनमें बड़ी संख्या उन नौजवान छात्र-छात्राओं की थी जो कांग्रेस के आह्वान पर सरकारी शिक्षा संस्थानों को त्याग कर यानी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर बाहर आ गये थे। लेकिन यह हिंदू महासभा ही थी जिसने अंग्रेज सरकार के साथ खुले सहयोग की घोषणा की। हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा वीर सावरकर ने 1942 में कानपुर में अपनी इस नीति का खुलासा करते हुए कहा,

‘सरकारी प्रतिबंध के तहत जैसे ही कांग्रेस एक खुले संगठन के तौर पर राजनीतिक मैदान से हटा दी गयी है तो अब राष्ट्रीय कार्यवाहियों के संचालन के लिए केवल हिंदू महासभा ही मैदान में रह गयी है... हिंदू महासभा के मतानुसार व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज सरकार के साथ संवेदनपूर्ण सहयोग की नीति है। जिसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेजों के साथ सहयोग जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है।’

कांग्रेस का भारत छोड़ो आंदोलन दरअसल सरकार और मुस्लिम लीग के बीच देश के बंटवारे के लिए चल रही बातचीत को भी चेतावनी देना था। इस उद्देश्य से कांग्रेस ने सरकार और मुस्लिम लीग के साथ किसी भी तरह के सहयोग का बहिष्कार किया हुआ था। लेकिन इसी समय हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ सरकारें चलाने का निर्णय लिया। वीरसावरकर जो अंग्रेज सरकार की खिदमत में 5 माफी-नामे लिखने के बाद दी गयी सजा का केवल एक तिहाई हिस्सा भोगने के बाद हिन्दू महासभा के सर्वोच्च नेता थे, ने इस शर्मनाक रिश्ते के बारे में सफाई देते हुए 1942 में कहा,

‘व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि बुद्धिसम्मत समझौतों के जरिए आगे बढ़ना चाहिए। यहां सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली जुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सबको पता है। उद्दंड लीगी जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के साथ संपर्क में आने के बाद काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गये। और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फजलुल हक को प्रधानमंत्रित्व और महासभा के काबिल व मान्य नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदाय के फायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली।’

            यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि बंगाल और सिंध के अलावा छॅथ्च् में भी हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की गांठ-बंधन सरकार 1942 में सत्तासीन हुई।

DR SYAMA PRASAD MOOKERJEE DEPUTY CM IN THE BENGAL MUSLIM LEAGUE MINISTRY TOOK UP THE RESPONSIBILITY OF CRUSHING QIM IN BENGAL

Following the Hindu Mahasabha directive to co-operate with the British, the Hindutva icon, Dr. Mookerjee assured the British masters through a letter dated July 26, 1942. Shockingly, it read:

“Let me now refer to the situation that may be created in the province as a result of any widespread movement launched by the Congress. Anybody, who during the war, plans to stir up mass feeling, resulting internal disturbances or insecurity, must be resisted by any Government that may function for the time being”

The second-in-command of the Hindu Mahasabha, Dr Syama Prasad Mookerjee who was also the deputy chief minister in Bengal Muslim league ministry in a letter to Bengal governor on behalf of Hindu Mahasabha and Muslim League made it clear that both these parties looked at the British rulers as saviours of Bengal against Quit India Movement launched by Congress. In this letter, he mentioned item wise the steps to be taken for dealing with the situation. It read: “The question is how to combat this movement (Quit India) in Bengal? The administration of the province should be carried on in such a manner that in spite of the best efforts of the Congress, this movement will fail to take root in the province. It should be possible for us, especially responsible Ministers, to be able to tell the public that the freedom for which the Congress has started the movement, already belongs to the representatives of the people. In some spheres it might be limited during the emergency. Indian have to trust the British, not for the sake for Britain, not for any advantage that the British might gain, but for the maintenance of the defence and freedom of the province itself.

अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रवैया 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जानना हो तो इसके दार्शनिक एम.एस. गोलवलकर के इस शर्मनाक वक्तव्य को पढ़ना काफी होगा –

‘1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। इस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया।’ इस तरह स्वयं गोलवलकर, जिन्हें गुरुजी भी कहा जाता है, से हमें यह तो पता चल जाता है कि संघ ने आंदोलन के पक्ष में परोक्ष रूप से किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं की। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी भी प्रकाशन या दस्तावेज या स्वयं गुरुजी के किसी दस्तावेज से आज तक यह पता नहीं लग पाया है कि संघ ने अप्रत्यक्ष रूप से भारत छोड़ो आंदोलन में किस तरह की हिस्सेदारी की थी। गुरुजी का यह कहना कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रोजमर्रा का काम ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है। यह रोजमर्रा का काम क्या था इसे समझना जरा भी मुश्किल नहीं है। यह काम था मुस्लिम लीग के कंधे से कंधा मिलाकर हिंदू और मुसलमान के बीच खाई को गहराते जाना।

अंग्रेजी राज के खिलाफ संघर्ष में जो भारतीय शहीद हुए उनके बारे में गुरुजी क्या राय रखते थे वह इस वक्तव्य से बहुत स्पष्ट है- ‘हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे नहीं माना है क्योंकि अंततः वह अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि  थी।’ शायद यही कारण है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक भी कार्यकर्ता अंग्रेेजों के खिलाफ संघर्ष करते हुए शहीद नहीं हुआ।

भारत छोड़ो आंदोलन के 75 साल गुजरने के बाद भी कई महत्वपूर्ण सच्चाईयों से पर्दा उठना बाकी है। दमनकारी अंग्रेज शासक और उनके मुस्लिम लीगी प्यादों के बारे में तो सच्चाईयां जगजाहिर है लेकिन अगस्त क्रांति के वे गुनहगार जो अंग्रेजी सरकारी द्वारा चलाए गए दमन चक्र में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल थे अभी भी कठघरे में खड़े नहीं किए जा सके हैं। सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि वे भारत पर राज कर रहे हैं। हिंदू राष्ट्रवादियों की इस भूमिका को जानना इसलिए भी जरूरी है ताकि आज उनके द्वारा एक प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ जो खिलवाड़ किया जा रहा है उसके आने वाले गंभीर परिणामों को समझा जा सके।

शमसुल इस्लाम