Hastakshep.com-हस्तक्षेप-मौलाना अबुल कलाम आज़ाद: एक धर्मनिरपेक्ष भारत के पैरोकार-मौलाना आज़ाद का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा,कांग्रेस और स्वतंत्रता संग्राम में मौलाना आज़ाद की भूमिका,मौलाना आज़ाद का भारत के लिए सपना-एक शिक्षामंत्री के रूप में मौलाना आज़ाद की भूमिका,

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद: एक धर्मनिरपेक्ष भारत के पैरोकार

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के जीवन और विचारों का सार—एक धर्मनिरपेक्ष भारत की कल्पना जो "उम्मतुलवाहिदा" (एक हिंदुस्तान) के आदर्श पर आधारित है। जानें उनके अद्वितीय योगदान, उनके धार्मिक और सामाजिक विचार, और आधुनिक भारत के लिए उनके दृष्टिकोण की प्रासंगिकता।

'उम्मतुलवाहिदा' (एक हिंदुस्तान) के पैरोकारों मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की 136 वीं जयंती 11 नवंबर पर विशेष

मौलाना आज़ाद का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जन्म मक्का (सऊदी अरब) में ग्यारह नवम्बर 1888 के दिन हुआ था क्योंकि उनके पिता मौलाना ख़ैरुद्दीन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के कारण और उसमें नाकामयाबी के बाद अंग्रेजी सल्तनत को नापसंद करने की वजह से भारत से मक्का जाकर बस गये थे और उन्हीं के कुछ शागिर्दों ने 1867 में देवबंद धार्मिक संस्थान का निर्माण किया था।

मौलाना ख़ैरुद्दीन मक्का में रहकर देवबंद के धार्मिक संस्थान का मार्गदर्शन करते रहे।

11 नवम्बर को पैदा हुए इस बच्चे का नाम मक्का की प्रथा के अनुसार दो नाम रखे गये एक मोहिउद्दीन अहमद तो कलकत्ता के मुस्लिम पीठ के भावी वारिस के रूप में उनका दूसरा नाम फ़िरोज़ बख़्त रखा गया। मौलाना आज़ाद ने अपने लेखन के लिए 'आज़ाद' नाम खुद पसंद किया। मौलाना आज़ाद की मक्का की तालीम पारंपरिक मुस्लिम तौर-तरीकों से हुई है और जन्मना प्रतिभा के कारण वह मुस्लिम धर्मशास्त्र में विलक्षण पांडित्य प्राप्त करने के कारण समस्त अरब में ख्याति अर्जित करने के कारण उन्हें विद्यापारंगत यानी विद्दावाचस्पती मतलब अबुल कलाम की उपाधि दी गई। उस समय उनकी उम्र अठारह साल की थी। इसी कारण उनके बचपन के दिये हुए दोनों नाम विस्मरण में चले गये और वह आगे

चलकर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के नाम से ही जाने गए।

कांग्रेस और स्वतंत्रता संग्राम में मौलाना आज़ाद की भूमिका

कलकत्ता के मुस्लिम पीठ के अनुयायियों के आग्रह के कारण मौलाना ख़ैरुद्दीन जब अपने बेटे के साथ भारत वापस आए, तब तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी और देवबंद संस्था का पूर्ण सहयोग शुरू से ही कांग्रेस को रहा। इस कारण मौलाना आज़ाद भी जब भारत वापस आए तो स्वाभाविक रूप से कांग्रेस के साथ जुडे गए।

भारत वापस आने के बाद उन्होंने आधुनिक शिक्षा ग्रहण की जिसमें उन्होंने हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में महारत हासिल की अरबी भाषा का ज्ञान तो पैदाइशी रूप से उन्हें था ही। इस कारण 1908 में उम्र के बीसवें साल में अरबस्थान, इजिप्ट (मिस्र), तुर्किस्तान और इराक-ईरान की यात्रा की।

1912 में मौलाना आज़ाद ने जनजागृति के लिए कलकत्ता से 'अल हिलाल' नाम की पत्रिका शुरू की और इस पत्रिका को पढने के कारण सरहद गाँधी, ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए। कुरान के माध्यम से अंग्रेजी सल्तनत के खिलाफ प्रभावशाली ढंग से 'अल हिलाल' में मौलाना आज़ाद के लेखन से 'अल हिलाल' के हजारों की संख्या में पाठक बढते देखकर अंग्रेजो ने मौलाना आज़ाद को गिरफ्तार कर लिया और 'अल हिलाल' को 'बैन' कर दिया। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने 'अल बलाग़' नाम से दुसरा अख़बार शुरू किया।

मौलाना आज़ाद 1912-1923 के ग्यारह सालो में विलक्षण लोकप्रिय राजनेताओं में शामिल हो चुके थे। 1923 में दिल्ली में हुए कांग्रेस अधिवेशन के वह अध्यक्ष चुने गए। उस समय उनकी उम्र महज़ 35 साल थी। उल्लेखनीय है कि उनके बाद महात्मा गाँधी 1924 में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए।

कुरान का तर्कसंगत दृष्टिकोण: कट्टरपंथ के खिलाफ एक आवाज

मौलाना आज़ाद ने धर्मग्रंथों का क्रांतिकारी विश्लेषण किया। मुख्य रूप से कुरान के भाष्यकार के रूप में उन्होंने 1930 में अपना ग्रंथ प्रकाशित किया और इस कारण कठमुल्लापन के शिकार मौलानाओ ने उन्हें बिदत, इरतक़ाम और इरतदान, तीन गुनाहो की सजा सुनाई। इन तीनों में से किसी भी एक गुनाह की सजा पत्थरों से कुचल कर मारना थी। यह 1930 की बात है।

मौलाना आज़ाद को इतनी कड़ी सजा सुनाने की वजह मुहम्मद पैगंबर के मृत्यु के तीन सौ साल बाद यानी 933 ईस्वी में संग्रह करके अधिकृत कुरान को प्रकाशित किया गया और वह अपरिवर्तनीय, परिपूर्ण, परमेश्वरी ग्रंथ होने का दावा करने वाले लोगों को मौलाना आज़ाद ने चेतावनी दी कि इजतिहाज, कयास का मतलब तर्कसंगत विचार इस्लाम में है और यह उन्होंने तर्कशास्त्र, भाषाशास्र के माध्यम से कालसापेक्षता, सर्वधर्म समभाव और शुद्ध मानवता के अनुसार कुरान का मुख्य आधार बताया। और कहा कि जिहाद, काफिर, दारूल हर्ब जैसे विचार उस जमाने के स्वार्थी, भ्रष्टाचारी राजनीति की देन है। इस तरह इस्लाम में तेरह सौ साल के बाद इतिहास में पहले इस्लाम के विद्वान पैदा हुए। मौलाना आज़ाद के हिसाब से हदीस मनुष्य द्वारा किया गया भाष्य है, और उसमें गलतियाँ हो सकती है। उनके अनुसार इस्लाम के तीन सौ साल बाद कुरान का अर्थ हजरत मुहम्मद पैगंबर साहब के समय जो लगाया जा रहा था उसे आज मैं मानने के लिए बाध्य नहीं हूँ और इस तरह से समस्त इस्लामिक परंपरा को जबर्दस्त धक्का देने का काम किया। इस में उनका मुख्य तर्क काल-सापेक्षकता का ही रहा क्योंकि सातवीं शताब्दी में अरब स्थान की परिस्थितियों से निकला हुआ कुरान आज भी वैसे ही लागू करवाने का आग्रह सर्वथा गलत है यही उनका मुख्य तर्क था।

उम्मतुलवाहिदा: मौलाना आज़ाद का भारत के लिए सपना

मौलाना आज़ाद ने कुरान का अर्थ 'उम्मतुलवाहिदा' के संदर्भ में लगाया है। मदीना में यहूदी, ईसाई, साबीयान, मागियान और मूर्तिपूजक इस तरह के पाँच गुट और इस्लाम के अनुयायियों को मिलाकर छ: प्रकार के समुदाय रह रहे थे तो सबकी प्रार्थनापद्धति एक हो और मक्का की तरफ मुहं करके प्रार्थना करने वाले मुस्लिम, जेरूसलम की तरफ मुहं करके प्रार्थना करने लगे। ईश्वर तो सब तरफ है तो जेरूसलम की तरफ मुहं करके प्रार्थना करने में क्या हर्ज़ है? यह सवाल खुद पैगंबर साहब ने किया और मुसलमान होने की जबरदस्ती किसी पर भी नहीं करनी है। इस तरह की बहुधर्मीय सरकार अस्तित्व में लाने का और पुरानी अमानुष प्रथाओं को बंद कर के महिला और गुलामों का आदर करना, सूद प्रथा खत्म कर के सभी को समान न्याय व्यवस्था कायम करने की हजरत मुहम्मद साहब के समय जो पद्धति बनाई वह धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक इस्लाम का मूल है। यानि सर्वधर्मीय सरकार 'उम्मतुलवाहिदा' का निर्माण करना और उसे कायम रखना यही सच्चा धर्म है और वही कुरान का असली अर्थ है। यही बात मौलाना आज़ाद ने अपने कुरान के तर्जुमे (भाष्य) में लिखा था जिसके कारण उन्हें पत्थरों से कुचल कर मारने की सजा कुछ कट्टरपंथी मौलाना आजसे नब्बे साल पहले सुना चुके हैं।

मौलाना आज़ाद ने स्वतंत्र पाकिस्तान के बनने का पुरजोर विरोध किया है ! और हिंदू-मुसलमान दोनों के लिए यह बात गलत है यह मौलाना आज़ाद की राय ईमानदारी से थी।

अल-हिलाल और अल-बलाग: जन जागृति का माध्यम

एक हिंदुस्तान सर्वधर्मिय 'उम्मतुलवाहिदा' के प्रयोग हेतु मौलाना आज़ाद को चाहिए था। उसमें हदीस की तुलना में आधुनिकता, विज्ञान, और शुद्ध धार्मिकता का समावेश उन्हें अपेक्षित था और मौलाना आज़ाद के विचारों के अनुसार यदि हिंदुस्तान एक रहता तो देश में वर्तमान सांप्रदायिक राजनीति का नामो-निशान तक नहीं होता और ज़िना, वंदेमातरम, मंदिर-मस्जिद, तीन तलाक़ जैसे भावनाओं को भड़काने वाले सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की संभावना नहीं होती। हमारी आजादी की पचहत्तरवीं साल में हम आज अगर मौलाना आज़ाद की 136 वीं जयंती के अवसर पर उन्हें सच्चा सम्मान देना चाहते हैं तो उन्होंने इंडिया विन्स फ्रीडम, तजकेरा, गुब्बारेखातिर, कौल फौसल, दास्ताँने करबला और कुरान के ऊपर जो लिखा व उनकी लिखी हुई साहित्य संपदा का अध्ययन करना और उन्होंने 1924 में एकता परिषद जो हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए गठित की थी उसकी इतिहास में पहले कभी उतनी आवश्यकता नहीं थी जितनी आज है। क्योंकि गत तीस-पैतीस सालों से हमारे देश की राजनीति का केंद्र बिंदु सिर्फ और सिर्फ हिंदू-मुस्लिम भावनाओ भड़काकर बदस्तूर जारी है और सचमुच हमारे आजादी के पचहत्तरवी वर्षगाँठ के समय भारत जैसे बहुधर्मिय देश ने 'उम्मतुलवाहिदा' के रास्ते से चलना शुरू किया तो हम आने वाले पच्चीस साल के बाद हमारे देश की शताब्दी तक सही मायने में आजादी के लक्ष्य को प्राप्त करने में कामयाब होंगे !

कुल 70 साल की उम्र के थे, तब 22 फरवरी 1958 के दिन, हृदयाघात से मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की मृत्यु हुई।

राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का निर्माण: एक शिक्षामंत्री के रूप में मौलाना आज़ाद की भूमिका

आजादी के बाद लगातार भारत के शिक्षामंत्री के रूप में ग्यारह साल काम किया और वर्तमान आईआईटी बैंगलोर, यूजीसी, की विश्व स्तर की विज्ञान की संस्था और इनके लिए पर्याप्त मात्रा में संसाधनों की व्यवस्था करने का ऐतिहासिक काम किया।

राष्ट्रीय शिक्षा दिवस 11 नवम्बर

इसी कारण उनके जन्मदिन 11 नवम्बर को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है ! मौलाना आज़ाद के विचारों के अनुसार भारत 'उम्मतुलवाहिदा' (एक हिंदुस्तान) अगर बनाने का सपना सचमुच ही कुछ लोग देख रहे हैं तो उन्हें हिंदुस्तान में रहने वाले हर जाति, धर्म, लिंग के लोगों को भारत हमारा है सभी का देश है ऐसा माहौल बनाना होगा और वह प्रेम, आपसी सौहार्द के माहौल से ही संभव है नाकि लाठी-काठी या आजकल के आधुनिक हथियारों के बल पर। जब घर के छोटे बच्चे को प्रेम, मुहब्बत से हम सिखाते हैं तो वह भी कुछ भी सीखता है।मगर हम तो अच्छी-खासी कौमों के साथ अगर बल प्रयोग करेंगे तो क्या असर होगा? तो हम मौलाना आज़ाद की 136वीं जयंती के अवसर पर सचमुच अगर उन्हें सही सम्मान देना चाहते हैं तो हमें उनके सपने का भारत का उम्मतुलवाहिदा बनाना होगा।

डॉ. सुरेश खैरनार

नागपुर.

(लेखक मराठी के प्रसिद्ध साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)